भगवान श्रीराम का संपूर्ण जीवन परिचय

भगवान श्रीराम का संपूर्ण जीवन परिचय 


भगवान श्रीराम, हिन्दू धर्म के एक प्रमुख देवता हैं और उनका जीवन महाकाव्य रामायण में विस्तार से वर्णित है। श्रीराम का जीवन धर्म, मार्गदर्शन, और नीति के उत्कृष्ट उदाहरणों से भरपूर है। यहां उनका संपूर्ण जीवन परिचय है:
अवतार
भगवान श्रीराम को विष्णु भगवान का सेवक और साकार अवतार माना जाता है। उन्हें आदि काव्य रामायण के प्रमुख पात्र के रूप में वर्णित किया गया है, जिसके लेखक आदिकवि वाल्मीकि थे।
जन्म
श्रीराम का जन्म अयोध्या में हुआ था। उनके माता-पिता का नाम राजा दशरथ और कौसल्या था। उनका जन्म चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को हुआ था, जिसे भगवान राम नवमी या राम नवमी कहा जाता है।
बचपन और ब्रह्मचर्य
राम का बचपन आदि काव्य में विशेष रूप से उनके प्राचीन खिलवार के साथ और उनके गुरु विश्वामित्र के साथ विवर्ण है। उन्होंने तात्कालिक राक्षसी शक्तियों से युद्ध किया और उन्होंने त्रिपुरासुर को मार गिराया।
सीता स्वयंवर और विवाह
श्रीराम ने सीता स्वयंवर में धनुष धारण करके सीता के स्वयंवर में भाग लिया और धनुषधारी राजा के रूप में विभूषित होते हुए धनुषधारण के प्रतियोगिता में सफलता प्राप्त की। उन्होंने सीता से विवाह किया और उन्हें अपनी पतिव्रता भर्ता के रूप में प्रस्तुत किया।
अयोध्या के राजा बनना
श्रीराम का पिता दशरथ ने उन्हें अपने उत्तराधिकारी राजा के रूप में चुना था, लेकिन इसके बावजूद, कैकेयी के तंत्र के कारण, राम को 14 वर्षों के वनवास भेजना पड़ा।
वनवास
राम, सीता, और लक्ष्मण ने अपने वनवास के दौरान भगवान शिव की आज्ञा पर शापित राक्षसी सूर्पणखा का वध किया और उसके पुत्र खर और दूषण के साथ युद्ध किया।
सीता हरण
रावण ने राक्षसी राक्षसी सीता को हरण कर लिया, जिसके परिणामस्वरूप राम ने अयोध्या के राजा बनने के बज

रामायण: भगवान श्रीराम का संपूर्ण जीवन परिचय व उनसे मिलती शिक्षा


भगवान विष्णु ने अपने सातवें अवतार में भगवान श्रीराम के रूप में जन्म लिया था जिसका मुख्य उद्देश्य रावण का वध करके धरती को पापमुक्त करना था (Bhagwan Ram History In Hindi) व धर्म की पुनः स्थापना करनी थी। किंतु श्रीराम के रूप में उन्होंने एक ऐसा आदर्श स्थापित किया कि उनके जीवन की हरेक घटना हमारे लिए प्रेरणा बन गयी। यदि हम उनके जीवन में घटित किसी भी घटना का विश्लेषण करेंगे तो पाएंगे कि (Essay On Shri Ram In Hindi) हर घटना हमें कुछ न कुछ शिक्षा देकर जाती हैं। इसलिये आज हम आपको श्रीराम के जन्म से लेकर उनके समाधि लेने तक की हर घटना व उससे जुड़ी शिक्षा का वर्णन करेंगे।

मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम का जीवन परिचय

भगवान श्रीराम का जन्म (Shri Ram Ka Janam)
अयोध्या के नरेश दशरथ की तीन रानियाँ थी जिनके नाम कौशल्या, कैकेयी व सुमित्रा था। वही दूसरी ओर लंका में अधर्मी राजा रावण का राज्य था जो राक्षसों का सम्राट था (Shri Ram Par Nibandh)। उसके राक्षस केवल लंका तक ही सिमित नही थे बल्कि वे समुंद्र के इस पार दंडकारण्य के वनों में भी फैले हुए थे जिसके कारण ऋषि-मुनियों को भगवान की स्तुति करने व धार्मिक कार्यों को करने में समस्या हो रही थी।आकाश में स्थित देवता भी रावण के बढ़ते प्रभाव के कारण व्यथित थे। तब सभी भगवान विष्णु के पास सहायता मांगने गए। भगवान विष्णु ने कहा कि (Shri Ram Ka Charitra Chitran In Hindi) अब उनका सातवाँ अवतार लेने का समय आ गया हैं। इसके बाद उन्होंने दशरथ पुत्र (Sri Ram Ke Pita Ka Naam) के रूप में महारानी कौशल्या के गर्भ से जन्म लिया जिसका नाम राम रखा गया।
श्रीराम के साथ उनके तीन सौतेले भाई भरत, लक्ष्मण व शत्रुघ्न (Shri Ram Ke Kitne Bhai The) का भी जन्म हुआ। अयोध्या की प्रजा (Shri Ram Ka Janm Kahan Hua) अपने भावी राजा को पाकर अत्यंत प्रसन्न थी तथा चारो ओर उत्सव की तैयारी होने लगी।

श्रीराम का अपने भाइयों के साथ गुरुकुल जाना (Ram Ji Ki Story)

जन्म के कुछ वर्षों तक श्रीराम अपने भाइयों के साथ अयोध्या के राजमहल में रहे। जब उनकी आयु शिक्षा ग्रहण करने की हुई तब उनका उपनयन संस्कार करके गुरुकुल भेज दिया गया। श्रीराम (Ramji Ki Kahani) ने अयोध्या के राजकुमार तथा स्वयं नारायण अवतार होते हुए भी विधिवत रूप से गुरुकुल में रहकर शिक्षा ग्रहण की।
उनके गुरु अयोध्या के राजगुरु महर्षि वशिष्ठ (Ram Ke Kul Guru Kaun The) थे। वे गुरुकुल में बाकि आम शिष्यों की भांति शिक्षा ग्रहण करते, भिक्षा मांगते, भूमि पर सोते, आश्रम की सफाई करते व गुरु की सेवा करते (Bhagwan Shri Ram Ki Kahani In Hindi)। जब उनकी शिक्षा पूर्ण हो गयी तब उनका पुनः अयोध्या आगमन हुआ।
गुरुकुल (Guru Of Lord Rama In Hindi) में रहकर उन्होंने अपने तीनो छोटे भाइयों को कभी माता-पिता की याद नही आने दी। उन्होंने स्वयं से पहले हमेशा अपने भाइयों का सोचा। उनके तीनो भाई भी अपने बड़े भाई की बहुत सेवा करते।

ब्रह्मर्षि विश्वामित्र का श्रीराम व लक्ष्मण को लेकर जाना 

जब श्रीराम विद्या ग्रहण करके अयोध्या वापस आ गए तब ब्रह्मर्षि विश्वामित्र अयोध्या पधारे। उन्होंने दशरथ को बताया कि उनके आश्रम पर आए दिन राक्षसों का आक्रमण होता रहता हैं (Ramayan Katha In Hindi) जिससे उन्हें यज्ञ आदि करने में बाधा हो रही हैं। अतः वे श्रीराम को उनके साथ चलने की आज्ञा दे। तब दशरथ ने कुछ आनाकानी करने के बाद श्रीराम को उनके साथ चलने की आज्ञा दे दी।
चूँकि लक्ष्मण हमेशा अपने भाई श्रीराम के साथ ही रहते थे (Sampurna Ramayan Katha In Hindi) इसलिये वे भी उनके साथ गए। वहां जाकर श्रीराम ने अपने गुरु विश्वामित्र के आदेश पर ताड़का व सुबाहु का वध कर डाला व मारीच को दूर दक्षिण किनारे समुंद्र में फेंक दिया। इस प्रकार उन्होने आश्रम पर आए संकट को दूर किया।
इसमें श्रीराम ने यह संदेश दिया कि शास्त्रों में किसी महिला पर अस्त्र उठाना या उसका वध करना धर्म विरूद्ध बताया गया हैं (Ramayana Summary In Hindi) लेकिन यदि गुरु की आज्ञा की अवहेलना की जाए तो वह उससे भी बड़ा अधर्म रुपी कार्य हैं। इसलिये इस धर्मसंकट में उन्होंने उस धर्म को चुना जो श्रेष्ठ था व गुरु की आज्ञा का आँख बंद कर पालन किया।

अहिल्या व श्रीराम का प्रसंग 

जब श्रीराम अपने गुरु के साथ विचरण कर रहे थे तब बीच में उन्हें एक पत्थर की शिला दिखाई दी। विश्वामित्र ने उन्हें बताया कि यह शिला पहले अहिल्या माता थी जो गौतम ऋषि के श्राप से पत्थर की शिला बन गयी। तब से यह प्रभु चरणों के स्पर्श की प्रतीक्षा कर रही हैं ताकि इनका फिर से उद्धार हो सके।
श्रीराम का माता सीता से विवाह 
इसके बाद ब्रह्मर्षि विश्वामित्र उन्हें व लक्ष्मण को लेकर मिथिला राज्य गए जहाँ माता सीता का स्वयंवर था। उस स्वयंवर में महाराज जनक ने एक प्रतियोगिता रखी थी कि जो भी वहां रखे शिव धनुष को उठाकर उस पर प्रत्यंचा चढ़ा देगा उसका विवाह उनकी सबसे बड़ी पुत्री सीता से हो जाएगा।

जब श्रीराम ने माता सीता को बगीचे में फूल चुनते हुए देखा था तो उस समय मृत्यु लोक में दोनों का प्रथम मिलना हुआ था। दोनों ही जानते थे कि वे भगवान विष्णु व माता लक्ष्मी का अवतार हैं लेकिन उन्हें मनुष्य रूप में अपना धर्म निभाना था। प्रतियोगिता का शुभारंभ हुआ व एक-एक करके सभी राजाओं ने उस शिव धनुष को उठाने का प्रयास किया।
वह शिव धनुष इतना भारी था कि इसे पांच हज़ार लोग सभा में उठाकर लाए थे। सभा में कोई भी ऐसा बाहुबली नही था जो उस धनुष को उठाकर उस पर प्रत्यंचा चढ़ा सके। अंत में विश्वामित्र जी ने श्रीराम को वह धनुष उठाने की आज्ञा दी। गुरु की आज्ञा पाकर श्रीराम ने शिव धनुष (Ramayan Me Shiv Dhanush Kisne Toda) को प्रणाम किया व एक ही बारी में धनुष उठाकर उस पर प्रत्यंचा चढ़ाने लगे जिससे शिव धनुष टूट गया।
यह दृश्य देखकर वहां उपस्थित सभी अतिथिगण आश्चर्यचकित थे। इसके पश्चात श्रीराम का विवाह माता सीता से हो गया। इससे हमे यह शिक्षा मिलती हैं कि एक गुरु अपने शिष्य के जीवन के सबसे महत्वपूर्ण निर्णय भी ले सकता हैं। जब माता-पिता अपने बच्चे का हाथ एक गुरु को सौंप देते हैं तो वही गुरु उसके माता-पिता बन जाते हैं। उनकी आज्ञा अर्थात अपने माता-पिता की आज्ञा समझी जाती हैं जिसका पालन करना हर मनुष्य का परम कर्तव्य हो जाता हैं।

भगवान परशुराम का श्रीराम पर क्रोध 

उस समय भगवान विष्णु के छठे अवतार भगवान परशुराम भी इस धरती पर उपस्थित थे तथा शिव साधना में लीन थे। जब उन्होंने शिव धनुष के टूटने की आवाज़ सुनी तो वे अत्यंत क्रोध में उस सभा में पहुंचे। उन्हें इतने क्रोध में देखकर सभी सभासद डर गए। वे शिव धनुष तोड़ने वाले को सामने आकर उनसे युद्ध करने की चुनौती देने लगे।
परशुराम को इस तरह क्रोधित व श्रीराम का अपमान देखकर लक्ष्मण अपना क्रोध रोक नही पाए व उनकी परशुराम से बहस होने लगी। लेकिन इसी बीच श्रीराम ने ना अपना संयम खोया व ना ही कोई कटु वचन कहे। वे लगातार परशुराम व लक्ष्मण को समझाते रहे व परशुराम जी के द्वारा कठोर वचन सुनने के बाद भी उनसे क्षमा मांगी।
अंत में परशुराम का क्रोध शांत करने के लिए उन्होंने उन्हें अपना विष्णु अवतार होने का दिखलाया। जब परशुराम को पता चला कि भगवान विष्णु का सातवाँ अवतार जन्म ले चुका हैं तथा वे स्वयं भगवान श्रीराम हैं तो वे वहां से चले गए।

सीता को एक पत्नी का वचन देना

उस समय एक पुरुष के द्वारा कई पत्नियाँ रखने का चलन आम था। मुख्यतया एक राजा की कई पत्नियाँ हुआ करती थी। स्वयं श्रीराम के पिता दशरथ की तीन पत्नियाँ थी किंतु श्रीराम ने माता सीता को वचन दिया कि वे आजीवन किसी परायी स्त्री के बारे में सोचेंगे तक नहीं। जीवनभर केवल और केवल माता सीता ही उनकी धर्मपत्नी रहेंगी व कभी कोई दूसरी स्त्री को यह अधिकार प्राप्त नही होगा। इस प्रकार उन्होंने एक पति-पत्नी के आदर्शों को स्थापित किया।

श्रीराम को चौदह वर्ष का वनवास 

अपने विवाह के कुछ समय पश्चात उन्हें अपने पिता दशरथ की ओर से राज्यसभा में बुलाया गया व उनके राज्याभिषेक करने का निर्णय सुनाया गया। शुरू में तो श्रीराम असहज हुए लेकिन इसे अपने पिता की आज्ञा मानकर उन्होंने स्वीकार कर लिया। इसके बाद पूरी अयोध्या नगरी में इसकी घोषणा कर दी गयी व उत्सव की तैयारियां होने लगी।
अगली सुबह जब उनके पिता राज्यसभा में नही आए तब उन्हें दशरथ का अपनी सौतेली माँ कैकेयी के कक्ष में होने का पता चला। वहां जाकर उन्हें ज्ञात हुआ कि कैकेयी ने राजा दशरथ से अपने पुराने दो वचन मांग लिए हैं जिनमे प्रथम वचन राम के छोटे भाई व कैकेयी पुत्र भरत का राज्याभिषेक था व दूसरा वचन श्रीराम को चौदह वर्ष का वनवास। उनके पिता यह वचन निभा पाने में स्वयं को असहाय महसूस कर रहे थे इसलिये वे अपने कक्ष में बैठकर विलाप कर रहे थे।
जब वे कक्ष में पहुचे तो अपने पिता को दुखी पाया। उनके पिता ने श्रीराम से कहा कि वे विद्रोह करके उनसे यह राज्य छीन ले (Ram Ko 14 Varsh Ka Vanvas Kyu Mila) तथा स्वयं राजा बन जाए। श्रीराम ने इसे सिरे से नकार दिया तथा अपने पिता के दिए गए वचनों को निभाने के लिए सहजता से वनवास स्वीकार कर लिया। इसके साथ ही उन्होंने अपनी माता कैकेयी से कहा कि यदि उन्हें भरत के लिए राज्य ही चाहिए था तो वे सीधे उन्हें ही कह देती, वे प्रसन्नता से वह राज्य भरत को दे देते।
श्रीराम का अपनी पत्नी सीता व भाई लक्ष्मण सहित वनवास जाना श्रीराम ने अपने पिता का वचन निभाने के लिए वनवास जाने का निर्णय ले लिया। उनके साथ उनकी पत्नी सीता ने अपना पति धर्म निभाते हुए वनवास में जाने का निर्णय लिया। साथ ही हमेशा उनके साथ रहने वाला छोटा भाई लक्ष्मण भी उनके साथ चला।

उस समय उनके दो भाई भरत व शत्रुघ्न अपने नाना के राज्य कैकेय प्रदेश में थे, इसलिये उन्हें किसी घटना का ज्ञान नही था। जब श्रीराम वनवास जाने लगे तो अयोध्या की प्रजा विद्रोह पर उतर आयी। उन्होंने भरत को अपना राजा मानने से साफ मना कर दिया। यह देखकर श्रीराम ने अयोध्या की प्रजा को समझाया तथा अपने राजा की आज्ञा का पालन करने को कहा।
श्रीराम ने अपने वनवास में जाने के पश्चात (Rama Ka Charitra Chitran In Hindi) भरत को राज्य चलाने में सहयोग देने को कहा। इससे श्रीराम ने यह शिक्षा दी कि चाहे उनके साथ कैसा भी अन्याय हुआ हो लेकिन उन्होंने अपनी सौतेली माँ कैकेयी व भरत के प्रति कभी कोई दुर्भावना नही रखी।
अयोध्या की प्रजा राजा दशरथ को भी भला-बुरा कह रही थी। साथ ही लक्ष्मण भी दशरथ व कैकेयी को बुरा समझ रहे थे लेकिन श्रीराम ने सभी से दोनों का सम्मान बनाए रखने को कहा। उन्होने लक्ष्मण को भी माता कैकेयी का अनादर ना करने को कहा।

अयोध्या की प्रजा को पीछे छोड़ देना 

श्रीराम ने अयोध्या की प्रजा को बहुत समझाया लेकिन वह उनसे इतना प्रेम करती थी कि उनके साथ चौदह वर्ष के वनवास पर जाने को तैयार थी। श्रीराम के बार-बार आग्रह करने के पश्चात भी अयोध्या की प्रजा पैदल उनके रथ के पीछे चली जा रही थी। इससे श्रीराम को अयोध्या में राजनीतिक संकट पैदा होता दिखाई दिया।
तब श्रीराम ने अयोध्या के निकट तमसा नदी (Shri Ram Vanvas Route In Hindi) के पास अपना रथ रुकवा दिया व रात्रि वहां विश्राम करने को कहा। अयोध्या की प्रजा भी श्रीराम के साथ वहां रुक गयी। जब सभी सो गए तब प्रातःकाल श्रीराम जल्दी उठकर अपनी पत्नी सीता व लक्ष्मण के साथ निकल गए। बाद में जब अयोध्या की प्रजा उठी तब उन्होंने पाया कि श्रीराम अपना कर्तव्य निभाने के लिए अकेले निकल चुके हैं तो वे सभी निराश होकर वापस अयोध्या लौट गए।

अपने मित्र निषादराज गुह से मिलना 

इसके बाद श्रीराम आगे श्रृंगवेरपुर नगरी पहुंचे जो कि एक आदिवासी स्थल था। वहां के राजा निषादराज गुह थे जो आदिवासी समुदाय से थे। गुरुकुल में दोनों एक साथ ही पढ़े थे इसलिये दोनों के बीच मित्रता हो गयी थी। जब निषादराज को श्रीराम के अपनी नगरी के पास वन में आने का पता चला तो (Nishad Raj Role In Ramayana) वे पूरी प्रजा को लेकर वहां पहुंचे व उन्हें अपनी नगरी में रहकर विश्राम करने का कहा। उन्होंने तो श्रीराम को चौदह वर्ष तक अपनी नगरी का राजा बनकर राज करने तक का कह दिया था।
श्रीराम ने उनका राज्य स्वीकारना तो दूर नगर में जाने से भी मना कर दिया। अपने पिता के वचन के अनुसार उन्हें चौदह वर्ष केवल वन में ही रहना था तथा इस दौरान उनका किसी भी नगर में प्रवेश करना निषिद्ध था। इसलिये उन्होंने निषादराज गुह का आमंत्रण विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया।
तब श्रीराम के लिए वही वन में विश्राम करने की व्यवस्था की गयी। श्रीराम अपनी पत्नी सीता व भाई लक्ष्मण के साथ भूमि पर ही सोए। यहाँ ध्यान रखने वाली बात यह हैं कि लक्ष्मण अपने भाई श्रीराम की सेवा में इतने लीन थे कि वे रात्रि में सोते तक नही थे। उन्होंने दिन में श्रीराम व माता सीता की सेवा करने व रात्रि में उनकी सुरक्षा के लिए पहरा देने का निर्णय लिया था। इसलिये लक्ष्मण चौदह वर्ष तक सोये तक नही थे।

रथ को छोड़ आगे बढ़ गए राम (Ram Vanvas Map In Hindi)
इसके बाद उन्होंने अपने साथ आए अयोध्या के मंत्री व राजा दशरथ के मित्र सुमंत को रथ सहित वापस लौट जाने को कहा। वनवास का अर्थ ही होता हैं सभी राजसी वस्तुओं का त्याग कर एक वनवासी की भांति अपना जीवनयापन करना। उस समय केवल अस्त्र-शस्त्रों को ही अपने साथ रखा जा सकता था ताकि स्वयं की रक्षा की जा सके। इसके बाद भगवान श्रीराम एक केवट की सहायता से यमुना नदी को पार कर आगे बढ़ गए।

केवट व श्रीराम का प्रसंग

जो यात्रियों को अपनी नाव में नदी पार करवाता हैं उसे केवट कहा जाता हैं। श्रीराम को भी नदी पार करके उस किनारे तक पहुंचना था किंतु केवट जानता था कि वे नारायण अवतार हैं। इसलिये उसने श्रीराम के सामने अहिल्या का प्रसंग दोहराया (Ram Kewat Milan) व कहा कि कही उनके पाँव पड़ते ही उनकी नाव भी एक स्त्री में बदल गयी तो उनकी आय का साधन चला जायेगा।
इसलिये उसने श्रीराम को अपनी नाव में बिठाने से पहले उनके पाँव धोने की शर्त रखी। श्रीराम उसके भक्तिभाव को समझ गए व उसे यह आज्ञा दे दी। तब केवट ने पूरे भक्तिभाव से श्रीराम की चरण वंदना की व फिर उन्हें अपनी नाव में बिठाकर नदी पार करवा दी।

चित्रकूट में श्रीराम व भरत का मिलन 

यमुना पार करके श्रीराम माता सीता व लक्ष्मण के साथ चित्रकूट (Chitrakoot Ramayan In Hindi) के वनों में अपनी कुटिया बनाकर रहने लगे। कुछ दिन ही हुए होंगे कि उन्होंने देखा भरत समेत अयोध्या का पूरा राज परिवार, राजगुरु, अयोध्या की प्रजा व सैनिक वहां आ गए हैं। भरत के द्वारा उन्हें अपने पिता की मृत्यु का समाचार मिला। यह सुनकर श्रीराम व लक्ष्मण दोनों अधीर हो गए व अपने पिता को जलांजलि दी।
इसके बाद भरत ने श्रीराम को ही अयोध्या का राजा माना व पुनः अयोध्या चलने की विनती की। कैकेयी ने भी अपने दिए वचन वापस लेकर श्रीराम को वापस चलने को कहा लेकिन श्रीराम ने चलने से मना कर दिया। उन्होंने कहा कि केवल वचन (Shri Ram Ka Anmol Vachan) देने वाला ही उसे वापस ले सकता हैं। श्रीराम को वन जाने की आज्ञा महाराज दशरथ ने दी थी इसलिये केवल वही यह वचन उनसे वापस ले सकते हैं। अतः वे अब जीवित नही हैं तो श्रीराम चौदह वर्ष का वनवास समाप्त करने के पश्चात ही वापस आ सकते हैं।
इस प्रसंग से श्रीराम ने यह शिक्षा दी कि उन्होंने अपने पिता की मृत्यु के पश्चात भी उनके वचन को झूठा नही होने दिया तथा पूरी श्रद्धा के साथ उसका पालन किया किंतु भरत स्वयं को अयोध्या का राजा मानने को तैयार नही थे। चूँकि उनके पिता के वचन के अनुसार यह राज्य भरत को मिल चुका था तथा अब भरत अपनी इच्छा से यह राज्य श्रीराम को लौटा देना चाहते थे, इसलिये श्रीराम ने इसे स्वीकार कर लिया।
तब श्रीराम ने अपने चौदह वर्ष के वनवास के अंतराल में भरत को अयोध्या का राजकाज सँभालने का आदेश दिया। अपने भाई श्रीराम की आज्ञा पाकर भरत श्रीराम की खडाऊ (Shri Ram Ki Khadau) अपने सिर पर रखकर अयोध्या चले गए व राजसिंहासन पर उनकी खडाऊ रख दी। इसके साथ वे श्रीराम की भांति अयोध्या के पास नंदीग्राम के वनों में रहने लगे तथा वहां से ही राजकाज के कार्य सँभालने लगे।

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