अयोध्या कांड उन्नीसवाँ मासपारायण 209-215 अर्थ सहित

अयोध्या कांड उन्नीसवाँ 

मासपारायण 209-215 अर्थ सहित  

चौपाई 
नव बिधु बिमल तात जसु तोरा। रघुबर किंकर कुमुद चकोरा।।
उदित सदा अँथइहि कबहूँ ना। घटिहि न जग नभ दिन दिन दूना।।
कोक तिलोक प्रीति अति करिही। प्रभु प्रताप रबि छबिहि न हरिही।।
निसि दिन सुखद सदा सब काहू। ग्रसिहि न कैकइ करतबु राहू।।
पूरन राम सुपेम पियूषा। गुर अवमान दोष नहिं दूषा।।
राम भगत अब अमिअँ अघाहूँ। कीन्हेहु सुलभ सुधा बसुधाहूँ।।
भूप भगीरथ सुरसरि आनी। सुमिरत सकल सुंमगल खानी।।
दसरथ गुन गन बरनि न जाहीं। अधिकु कहा जेहि सम जग नाहीं।।
यह चौपाई काअर्थ है
"तुम्हारे चेहरे की शोभा कितनी प्राकृतिक है, जैसा कि तोरे सच्चे ताता रघुवर के सेवक होते हैं। तुम्हारा चमकता हुआ चेहरा कभी नहीं अस्थायी है, यह ना ही सूर्य के समान नश्वर है और न ही चंद्रमा के समान दिन-रात बदलता है। तुम्हारा प्रेम भगवान के प्रताप को बदल नहीं सकता, वे सूर्य की तरह चमकते हैं और धरती-आकाश को हर दिन रोशन करते हैं। तुम्हारे नित्य सुखदायी स्वभाव को कोई भी नहीं ग्रहण कर सकता, क्योंकि वह किसी को भी बाधित नहीं करता है। श्रीराम, तुम्हारा प्रेम अपूर्ण है जैसे कि एक पूर्ण प्याला मधु से भरा हुआ होता है, तुम्हारे गुरु का अपमान करना दोषपूर्ण नहीं होता। अब भगवान श्रीराम के भक्त अघाहुं हैं, उन्होंने इस सुखद पानी को पी लिया है, जो पूरी पृथ्वी को प्रसन्न कर देता है। दशरथ राम के गुणों का गुणगान करने में समर्थ नहीं हैं, इस समय कोई भी ऐसा नहीं है जो उनकी तरह हो।"
दोहा
जासु सनेह सकोच बस राम प्रगट भए आइ।।
जे हर हिय नयननि कबहुँ निरखे नहीं अघाइ।।209।।
इस दोहे का अर्थ 
"जिनका सच्चा प्रेम है, वे बस राम को ही देखते हैं। जो राम को हृदय और नयनों से कभी नहीं हटाते, वे कभी भी अपमानित नहीं होते।"
इस दोहे में, कबीर जी भगवान राम के सच्चे प्रेम की महत्ता को बता रहे हैं। जिनका हृदय और नयन सदैव राम को ही देखने में रत रहते हैं, वे कभी भी अपमानित नहीं होते, क्योंकि उनका आत्म-समर्पण और प्रेम सदैव प्रगट रहता है।
चौपाई
कीरति बिधु तुम्ह कीन्ह अनूपा। जहँ बस राम पेम मृगरूपा।।
तात गलानि करहु जियँ जाएँ। डरहु दरिद्रहि पारसु पाएँ।।।।
सुनहु भरत हम झूठ न कहहीं। उदासीन तापस बन रहहीं।।
सब साधन कर सुफल सुहावा। लखन राम सिय दरसनु पावा।।
तेहि फल कर फलु दरस तुम्हारा। सहित पयाग सुभाग हमारा।।
भरत धन्य तुम्ह जसु जगु जयऊ। कहि अस पेम मगन पुनि भयऊ।।
सुनि मुनि बचन सभासद हरषे। साधु सराहि सुमन सुर बरषे।।
धन्य धन्य धुनि गगन पयागा। सुनि सुनि भरतु मगन अनुरागा।।
इस चौपाई का अर्थ 
"तुमने अत्यंत अनूप हीरे की तरह अपनी कीर्ति बनाई है, जहाँ भगवान राम का प्रेम आपका मार्गप्रदर्शक है। वहाँ तात, आप दीन-हीनों के साथ मिलकर उन्हें आशा देते हैं और उनके डर को दूर करने में मदद करते हैं। भरत, मैं झूठ नहीं कह रहा हूँ, लेकिन यह एक संत तापस्या में डूबा हुआ है। सब साधनों का सही उपयोग करके भी लक्ष्मण राम और सीता के दर्शन प्राप्त किया गया है। उसी फल को फल-रूप में प्राप्त करने के लिए, हमारा सुभाग्य भी प्रयाग के साथ है। भरत, आप जगत् के जीतनेवाले की तरह धन्य हैं, और पुनः प्रेम में मग्न हो जाते हैं। साधु-संगति में सभी सदस्य हर्षित हो रहे हैं, सभी साधुओं ने आपकी प्रशंसा की है और सुमन्त सुर महात्माओं के उत्साहित हो रहे हैं। पयाग का गगन धन्य है, और भरत, आपकी प्रेम में मग्न होकर सुनते-सुनते आनंदित हो रहे हैं।"
दोहा
पुलक गात हियँ रामु सिय सजल सरोरुह नैन।
करि प्रनामु मुनि मंडलिहि बोले गदगद बैन।।210।।
इसका अर्थ है
"राम और सीता के दर्शन से ह्रदय में उत्कण्ठा होती है, और आंसुओं से भरे हुए नेत्र होते हैं। मुनियों को प्रणाम करते हुए वे गदगद आवाज में बोलते हैं।"इस दोहे में राम और सीता के दर्शन से भक्त के हृदय में उत्कण्ठा और आंसुओं का आवाज में व्यक्त होना वर्णित है,और मुनियों को प्रणाम करते समय उनकी आवाज में भावनाओं का अभिव्यक्ति किया गया है।
चौपाई
मुनि समाजु अरु तीरथराजू। साँचिहुँ सपथ अघाइ अकाजू।।
एहिं थल जौं किछु कहिअ बनाई। एहि सम अधिक न अघ अधमाई।।
तुम्ह सर्बग्य कहउँ सतिभाऊ। उर अंतरजामी रघुराऊ।।
मोहि न मातु करतब कर सोचू। नहिं दुखु जियँ जगु जानिहि पोचू।।
नाहिन डरु बिगरिहि परलोकू। पितहु मरन कर मोहि न सोकू।।
सुकृत सुजस भरि भुअन सुहाए। लछिमन राम सरिस सुत पाए।।
राम बिरहँ तजि तनु छनभंगू। भूप सोच कर कवन प्रसंगू।।
राम लखन सिय बिनु पग पनहीं। करि मुनि बेष फिरहिं बन बनही।।
यह चौपाई इस काअर्थ 
"मुनियों और समाज के तीर्थराजों के समान हो, इनको सत्य की प्रतिज्ञा करने का कार्य अघा है। इस जगह पर कुछ भी कहते हैं, तो सच का बोध कराते हैं, यहाँ अधिकतम अघ और अधम नहीं होता। तुम सब जानते हो, सत्य बोलने वाले, और रघुनाथ, तुम्हारी ज्ञानी बातों को अंतर्दृष्टि से जानते हो। मातृभाव से नहीं करता कोई काम, यह समझता हूं, क्योंकि जगत् के दुःख को समझना चाहता हूं। परलोक का डर नहीं, पिता के मरने से दुःख नहीं होता, मैं यह जानता हूं। सुकृति और सुख से भरी हुई, लक्ष्मण ने राम को सुंदर बालक प्राप्त किया। राम की वियोग से तन-मन की समस्या, भूप, मैं किस प्रकार सोच सकता हूं। राम, लक्ष्मण, और सीता के बिना भी पैरों में सहारा नहीं, मुनियों ने विचार करके जंगलों में चरना है।"
दोहा
अजिन बसन फल असन महि सयन डासि कुस पात।
बसि तरु तर नित सहत हिम आतप बरषा बात।।211।।
इसका अर्थ है
"वृक्ष जिस जगह बसे होते हैं, वहां उनके फल और अजिन (बर्खासन) में कुछ न कुछ कमी रहती है। पेड़ों में हर दिन बर्फ, धूप, बारिश का तापमान सहते रहते हैं।"
इस दोहे में यह कहा गया है कि जैसे पेड़-पौधे हर दिन अलग-अलग मौसमों का सामना करते हैं और वहां कुछ न कुछ कठिनाई सहनी पड़ती है, उसी तरह मनुष्य भी अपने जीवन में विभिन्न प्रकार की कठिनाइयों का सामना करता है।
चौपाई
एहि दुख दाहँ दहइ दिन छाती। भूख न बासर नीद न राती।।
एहि कुरोग कर औषधु नाहीं। सोधेउँ सकल बिस्व मन माहीं।।
मातु कुमत बढ़ई अघ मूला। तेहिं हमार हित कीन्ह बँसूला।।
कलि कुकाठ कर कीन्ह कुजंत्रू। गाड़ि अवधि पढ़ि कठिन कुमंत्रु।।
मोहि लगि यहु कुठाटु तेहिं ठाटा। घालेसि सब जगु बारहबाटा।।
मिटइ कुजोगु राम फिरि आएँ। बसइ अवध नहिं आन उपाएँ।।
भरत बचन सुनि मुनि सुखु पाई। सबहिं कीन्ह बहु भाँति बड़ाई।।
तात करहु जनि सोचु बिसेषी। सब दुखु मिटहि राम पग देखी।।
इस चौपाई का अर्थ है
"यह दुःख दाहिनी है, जो दिन-रात मन को जला रही है। इसमें भूख नहीं, न नींद की राहत है। यह रोग है, जिसका कोई औषधि नहीं है, सम्पूर्ण विश्व में इसे खोजना है। माता की बुरी सोच ने बुराई की जड़ें बढ़ा दी हैं, इसलिए हमने उन्हें बँसूला, अर्थात निर्मूल कर दिया है। कलियुग ने जादूगरी की है, और इस व्यवस्था ने समय की कठिनाइयों को बढ़ा दिया है। यह कठिनाइयाँ मुझे वहाँ खींच रही हैं, जहाँ भी मैं जाता हूँ, सम्पूर्ण जगह से मुझे उसका सामना होता है। वह कलियुग जादू मिट जाएगा जब राम वापस आएंगे, लेकिन वह अयोध्या में नहीं बसेंगे। भरत, मुनियों ने तेरी बातें सुनकर सुख प्राप्त किया है, सभी ने अलग-अलग तरीके से तुझे प्रशंसा की है। तात, इसे विचार कर विशेषता से करो, सभी दुःख राम के पैरों को देखकर ही मिटेंगे।"
दोहा-
करि प्रबोध मुनिबर कहेउ अतिथि पेमप्रिय होहु।
कंद मूल फल फूल हम देहिं लेहु करि छोहु।।212।।
इसका अर्थ है
"ओ मुनिवर! अतिथि को प्रिय होने के लिए समझाओ कि हम भी फल, फूल और कंदे के रूप में ही हैं। उसे स्नेहपूर्वक स्वीकार करो और उसकी सेवा में आनंद लो।"इस दोहे में यह बताया गया है कि हम भी अतिथि के साथ उसी तरह संबंध रखते हैं जैसे कि पेड़-पौधों का रूप बदलता रहता है, और उसे प्रिय रूप से स्वीकार करना चाहिए।
चौपाई
सुनि मुनि बचन भरत हिँय सोचू। भयउ कुअवसर कठिन सँकोचू।।
जानि गरुइ गुर गिरा बहोरी। चरन बंदि बोले कर जोरी।।
सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धरम यहु नाथ हमारा।।
भरत बचन मुनिबर मन भाए। सुचि सेवक सिष निकट बोलाए।।
चाहिए कीन्ह भरत पहुनाई। कंद मूल फल आनहु जाई।।
भलेहीं नाथ कहि तिन्ह सिर नाए। प्रमुदित निज निज काज सिधाए।।
मुनिहि सोच पाहुन बड़ नेवता। तसि पूजा चाहिअ जस देवता।।
सुनि रिधि सिधि अनिमादिक आई। आयसु होइ सो करहिं गोसाई।।
इस चौपाई का अर्थ है
"भरत, मुनियों के वचन सुनकर हे भाई, सोचो। यह अवसर जानकर भी कठिन है, संकोच में पड़ा है। जानकर गुरु का वचन फिरे, वह चरणों को बंद करके बोले ध्यानपूर्वक। अपना सिर झुकाकर तुम्हारी सेवा की बात की, क्योंकि सबसे ऊँचा धर्म हमारे नाथ की सेवा है। भरत, मुनियों के वचनों से मन भाया, सहायता देने वाले सेवक को निकट बोलाया। उन्होंने भरत से कहा कि उन्होंने जो काम किया है, वह उस वृक्ष के मूल और फलों की तरह है, जो आते-जाते हैं। यहाँ तक कि उन्होंने उनके सिर को छूकर उनको आशीर्वाद दिया, और अपने कामों को पूरा किया। मुनियों ने सोचकर बड़ी नेकी देखी, जैसा कि देवताओं की पूजा की जाती है। रिधियों, सिधियों और अनिमा सिद्धियों ने सुनते ही भी आ गई, इसलिए वह जो भी काम करते हैं, वह होता है, हे गोसाई!"
दोहा
राम बिरह ब्याकुल भरतु सानुज सहित समाज।
पहुनाई करि हरहु श्रम कहा मुदित मुनिराज।।213।।
इसका अर्थ है

"राम के वियोग से व्याकुल होकर भरत, उसके साथी सम्पूर्ण समाज के साथ श्रम करने लगे। मुनिराज ने उनसे पूछा, 'आपका यह कार्य क्यों खुशियों से कर रहा है?'"
इस दोहे में बताया गया है कि राम के वियोग से भरत और उनके साथी समाज के सदस्य व्याकुल हो गए और उन्होंने मुनिराज को अपने कार्य के पीछे की खुशियों से पूछा।
चौपाई
रिधि सिधि सिर धरि मुनिबर बानी। बड़भागिनि आपुहि अनुमानी।।
कहहिं परसपर सिधि समुदाई। अतुलित अतिथि राम लघु भाई।।
मुनि पद बंदि करिअ सोइ आजू। होइ सुखी सब राज समाजू।।
अस कहि रचेउ रुचिर गृह नाना। जेहि बिलोकि बिलखाहिं बिमाना।।
भोग बिभूति भूरि भरि राखे। देखत जिन्हहि अमर अभिलाषे।।
दासीं दास साजु सब लीन्हें। जोगवत रहहिं मनहि मनु दीन्हें।।
सब समाजु सजि सिधि पल माहीं। जे सुख सुरपुर सपनेहुँ नाहीं।।
प्रथमहिं बास दिए सब केही। सुंदर सुखद जथा रुचि जेही।।
यह चौपाई का अर्थ है
"रिधि और सिधि, मुनियों के वचनों को स्वीकार करके, यह कहने वाली बहुत ही भाग्यशाली होती है, जो सम्पूर्ण सिद्धियों की समुदाय में कहती है, 'अतुलित अतिथि राम लघु भाई।' मुनियों के पादुका बंद करके, वह आजीवन समृद्ध और समाज में सुखी होती है। ऐसी सुंदर और विभूषित जगह बनाने की कहानी सुनाई जाती है, जो देखने वाले को बहुत ही प्रसन्न करती है। वे जो अमरता की अभिलाषा रखते हैं, वे भोग, भूषण और धन को बहुत संभालते हैं। वे अपने दासों को बहुत ही संकोच और विनम्रता से ले लेते हैं, उन्होंने वास्तविक ज्ञान को मन में रखा है। वह सभी समाज में सिद्धियों की पल-पल में सजी होती हैं, जैसे कि कोई ऐसी सुखमयी जगह नहीं होती है। वहाँ सब कुछ प्रथमतः बास किया जाता है, सुंदर, सुखद और रुचिकर जैसे ही।"
दोहा
बहुरि सपरिजन भरत कहुँ रिषि अस आयसु दीन्ह।
बिधि बिसमय दायकु बिभव मुनिबर तपबल कीन्ह।।214।।
इसका अर्थ है
"बहुत से सपरिवारों के साथ रहकर भरत ने ऋषियों के साथ इस भूमि को धन्य किया। भगवान ने बहुत समय को धन्य और विशेष बनाया है, जिसका उपयोग मुनियों ने तपोबल से किया।"
इस दोहे में बताया गया है कि भरत ने बहुत सारे सपरिवारों के साथ रहकर ऋषियों की आशीर्वाद से इस भूमि को समृद्ध किया। भगवान ने समय को धन्य बनाया है, और मुनियों ने उस समय का सही उपयोग करके तपशक्ति से अच्छा कार्य किया।
चौपाई
मुनि प्रभाउ जब भरत बिलोका। सब लघु लगे लोकपति लोका।।
सुख समाजु नहिं जाइ बखानी। देखत बिरति बिसारहीं ग्यानी।।
आसन सयन सुबसन बिताना। बन बाटिका बिहग मृग नाना।।
सुरभि फूल फल अमिअ समाना। बिमल जलासय बिबिध बिधाना।
असन पान सुच अमिअ अमी से। देखि लोग सकुचात जमी से।।
सुर सुरभी सुरतरु सबही कें। लखि अभिलाषु सुरेस सची कें।।
रितु बसंत बह त्रिबिध बयारी। सब कहँ सुलभ पदारथ चारी।।
स्त्रक चंदन बनितादिक भोगा। देखि हरष बिसमय बस लोगा।।
इस चौपाई का अर्थ है
"जब मुनि भरत को देखते हैं, तो सभी लोगों के सामने सभी लोगों को छोटा और लघु लगते हैं। वह बहुत सुख समाज में जाते हैं, लेकिन उनकी बातें देखकर वह भगवान को भूल जाते हैं। वह अपने आसन, शयन, और सुबसन में समय बिताते हैं, वनों में चिड़ियाघरों, बागों में चिरपिंग और पशुओं के बीच बहुत सारी बातें। वह सुरभि, फूल, फल, और पानी को समान रूप से अपनाते हैं, लेकिन लोग इसे अनजाने से देखते हैं। सुर, सुरभी, और सुरतरु, सभी के सब इच्छुक होते हैं, लेकिन सच्ची इच्छा सिर्फ देवताओं की होती है। रितु, बसंत, और तीन प्रकार की ऋतुएं होती हैं, सभी यही कहते हैं कि चारों तीनों में सुलभ पदार्थ मिल जाते हैं। सुत्र, चंदन, और बाणिता, ये सभी भोग मिलते हैं, और इसे देखकर लोग हर्षित और अचंभित हो जाते हैं।"
दोहा
संपत चकई भरतु चक मुनि आयस खेलवार।।
तेहि निसि आश्रम पिंजराँ राखे भा भिनुसार।।215।।
इसका अर्थ है

"सम्पत्ति के चक्र को भरत ने चक की तरह बढ़ाया, मुनियों की आज्ञा में खेलते रहे। और उन्हीं आज्ञा के अनुसार वह राजा के आश्रम को एक बंद कुंज में बंधा रखा गया।"
इस दोहे में बताया गया है कि भरत ने सम्पत्ति के चक्र को बढ़ावा दिया, लेकिन मुनियों की आज्ञा में रहकर समय-समय पर उनकी मार्गदर्शन में चलते रहे। और उन्हीं मुनियों की आज्ञा के अनुसार राजा के आश्रम को एक प्रकार की बंद जगह में बंद किया गया।

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