अयोध्या कांड उन्नीसवां विश्राम संपूर्ण

अयोध्या कांड उन्नीसवां विश्राम संपूर्ण Ayodhya case nineteenth rest complete

चौपाई
मोहि उपदेसु दीन्ह गुर नीका। प्रजा सचिव संमत सबही का।।
मातु उचित धरि आयसु दीन्हा। अवसि सीस धरि चाहउँ कीन्हा।।
गुर पितु मातु स्वामि हित बानी। सुनि मन मुदित करिअ भलि जानी।।
उचित कि अनुचित किएँ बिचारू। धरमु जाइ सिर पातक भारू।।
तुम्ह तौ देहु सरल सिख सोई। जो आचरत मोर भल होई।।
जद्यपि यह समुझत हउँ नीकें। तदपि होत परितोषु न जी कें।।
अब तुम्ह बिनय मोरि सुनि लेहू। मोहि अनुहरत सिखावनु देहू।।
ऊतरु देउँ छमब अपराधू। दुखित दोष गुन गनहिं न साधू।।
यह चौपाई श्रीरामचरितमानस से ली गई है। इसका अर्थ है: "गुरु ने मुझे उपदेश दिया है, जो बहुत उत्तम है। सभी प्रजा और सचिव भी उसको मानते हैं। माता ने मुझे सही दिशा में आगे बढ़ने का संदेश दिया है, और मैं चाहता हूँ कि उनके चरणों में सीर झुकाऊँ। गुरु, पिता, और माता ने हमेशा हमारे हित में बात की है। उनकी वाणी सुनकर मन बहुत प्रसन्न होता है और हमें उनकी बातों को ध्यान में रखना चाहिए। सही और गलत को समझकर विचार करो। धर्म को ध्यान में रखकर सिर पर उठाने योग्य बोझ उठाओ। तुम मुझे वह उपदेश दो जो मुझे सरलता से सीखने को मिले, जिसे अनुसरण करने से मेरा भला हो। यद्यपि मैं अच्छी तरह समझता हूँ, तथापि मुझे तुम्हें संतुष्ट नहीं होता। अब तुम मेरी विनती सुनो और मुझे वह शिक्षा दो जिसे मैं अनुसरण कर सकूँ। अपने छमबे से अपराधों को हटा दो, दुखी और दोषी होकर गुणों का गणना न करो।"
दोहा-
पितु सुरपुर सिय रामु बन करन कहहु मोहि राजु।
एहि तें जानहु मोर हित कै आपन बड़ काजु।।177।।
अर्थ: इस दोहे में सुग्रीव श्रीराम से कह रहा है कि "हे राजन! आप अपने पिता सुरपुर (स्वर्ग) में स्थित राजा राम के रूप में बनकर मुझसे मिल रहे हैं। मुझे यह बताइए कि आप मुझसे कौन-कौन से बड़े कार्य करवाना चाहते हैं जो मेरे हित में हों।"
चौपाई
हित हमार सियपति सेवकाई। सो हरि लीन्ह मातु कुटिलाई।।
मैं अनुमानि दीख मन माहीं। आन उपायँ मोर हित नाहीं।।
सोक समाजु राजु केहि लेखें। लखन राम सिय बिनु पद देखें।।
बादि बसन बिनु भूषन भारू। बादि बिरति बिनु ब्रह्म बिचारू।।
सरुज सरीर बादि बहु भोगा। बिनु हरिभगति जायँ जप जोगा।।
जायँ जीव बिनु देह सुहाई। बादि मोर सबु बिनु रघुराई।।
जाउँ राम पहिं आयसु देहू। एकहिं आँक मोर हित एहू।।
मोहि नृप करि भल आपन चहहू। सोउ सनेह जड़ता बस कहहू।।
यह चौपाई भगवान रामचरितमानस से ली गई है। इसका अर्थ है:
"हमारे हित के लिए सीता पति की सेवा करती थी, लेकिन वह हरि ने उसे गोद लिया। मैं समझता था, मन में सोचता था कि मेरे हित का कोई उपाय नहीं है।
राजा और समाज इसको कुछ लिख सकते हैं, लेकिन रघुराम को बिना सीता के पदार्थ लगते हैं। भूषण के बिना वस्त्र भारी होते हैं, ब्रह्मा बिना निरंतर चिंतन करते हैं।
सारे भोग बिना हरिभक्ति के बोझ बनते हैं, बिना भगवान के जप-तप कुछ भी नहीं होता। जीवन बिना राम के देह को सुखदायी नहीं बना सकता, रघुराम के बिना मेरी सारी शक्ति व्यर्थ होती है।
मैं राम के पास जाता हूं क्योंकि मेरे हित के लिए यही सही है। मुझे राजा के रूप में कुछ भी चाहिए, लेकिन वह सहेज रहे, उस स्नेह को मैं जड़ता कह सकता हूँ।"
दोहा-
कैकेई सुअ कुटिलमति राम बिमुख गतलाज।
तुम्ह चाहत सुखु मोहबस मोहि से अधम कें राज।।178।।

चौपाई
कहउँ साँचु सब सुनि पतिआहू। चाहिअ धरमसील नरनाहू।।
मोहि राजु हठि देइहहु जबहीं। रसा रसातल जाइहि तबहीं।।
मोहि समान को पाप निवासू। जेहि लगि सीय राम बनबासू।।
रायँ राम कहुँ काननु दीन्हा। बिछुरत गमनु अमरपुर कीन्हा।।
मैं सठु सब अनरथ कर हेतू। बैठ बात सब सुनउँ सचेतू।।
बिनु रघुबीर बिलोकि अबासू। रहे प्रान सहि जग उपहासू।।
राम पुनीत बिषय रस रूखे। लोलुप भूमि भोग के भूखे।।
कहँ लगि कहौं हृदय कठिनाई। निदरि कुलिसु जेहिं लही बड़ाई।।


यह चौपाई श्रीरामचरितमानस से ली गई है। इसका अर्थ है:
"मैं सच्चाई से कहता हूँ, पतियों! मुझे एक धर्मसील व्यक्ति चाहिए।
जब मुझे राजा हठ से देंगे, तब मैं रसातल की ओर जाऊंगा।
मुझे किसी और की तरह पापी स्थान नहीं चाहिए, जैसे की लोग राम और सीता के बनवास में गए थे।
राम ने राजा को कहा, 'मुझे वन (कानन) दे दो', और अमरपुर में जाने का निर्णय किया।
मैंने सभी अनर्थों को किया है, हेतु के लिए सभी को सुना है और सतर्क हूँ।
रघुबीर के बिना मेरा वास अकेला है, प्राणों के साथ सम्पूर्ण जग मेरे लिए हँसी का विषय बना हुआ है।
राम को पाप में रस की लालसा नहीं है, वह भूमि के भोगों में लोलुप होने वाले नहीं हैं।
मेरे हृदय में कठिनाई के बिना कहना मुश्किल है, जैसे कुलिस (युद्धीय उपकरण) चालू और बड़ाई लेने में मुश्किल होती है।"
दोहा-
कारन तें कारजु कठिन होइ दोसु नहि मोर।
कुलिस अस्थि तें उपल तें लोह कराल कठोर।।179।।
इस दोहे का अर्थ नीचे दिया गया है:
"कारणों से कार्य कठिन होते हैं, मेरे मन में ऐसा कोई भी दोष नहीं है। सिर की अस्थि से लेकर ऊपर के लोहे तक, सभी कठोर होते हैं।"
इस दोहे में, कबीर जी कह रहे हैं कि कारणों के कारण कार्य कठिन हो सकते हैं, लेकिन उनके मन में ऐसा कोई दोष नहीं है। उन्होंने इसे शरीर की अनानुगमनीयता की ओर एक सुझाव देने के रूप में उपयोग किया है, जिससे समझाया जा सकता है कि कठिनाईयों को स्वीकार करना और उनके सामने सहारा लेना आवश्यक है।
चौपाई
कैकेई भव तनु अनुरागे। पाँवर प्रान अघाइ अभागे।।
जौं प्रिय बिरहँ प्रान प्रिय लागे। देखब सुनब बहुत अब आगे।।
लखन राम सिय कहुँ बनु दीन्हा। पठइ अमरपुर पति हित कीन्हा।।
लीन्ह बिधवपन अपजसु आपू। दीन्हेउ प्रजहि सोकु संतापू।।
मोहि दीन्ह सुखु सुजसु सुराजू। कीन्ह कैकेईं सब कर काजू।।
एहि तें मोर काह अब नीका। तेहि पर देन कहहु तुम्ह टीका।।
कैकई जठर जनमि जग माहीं। यह मोहि कहँ कछु अनुचित नाहीं।।
मोरि बात सब बिधिहिं बनाई। प्रजा पाँच कत करहु सहाई।।
यह चौपाई श्रीरामचरितमानस से ली गई है। इसका अर्थ है:
"कैकेई, तुम्हारी भावना बड़ी ही अनुरागी है। तुम्हारी जीवन की प्राण-रेशा बड़ी ही अधीन है।
जब से प्रिय की वियोग की प्राणों में प्रियता हुई है, तब से बहुत आगे बढ़ गए हैं, जैसे देखते और सुनते हैं।
राम ने लखना को कहा, 'सीता को बनवास दे दो, पति हित के लिए।'
कैकेई ने विधवापन को अपमानित किया है, और प्रजा में बहुत संताप उत्पन्न किया है।
मुझे सुख देने के बजाय उन्होंने सब काम करवाए। अब मुझे इसमें कोई अच्छाई नहीं लगती।
कैकेई ने जठर में जन्म लिया है और यह सब कुछ मुझे अनुचित नहीं लगता।
मेरे अनुसार सभी बातें नियमित रूप से की गई हैं, प्रजा के लिए पांच कत्ते सहायता करें।"
दोहा-
ग्रह ग्रहीत पुनि बात बस तेहि पुनि बीछी मार।
तेहि पिआइअ बारुनी कहहु काह उपचार।।180।।
इस दोहे का अर्थ नीचे दिया गया है:
"ग्रहण को ग्रहीत किया जाता है, फिर उसी बात को बस में बीछा जाता है। उसी में पिआइअ (प्याला) में बारुनी (वरुण) को कहो और कहो कि इसका इलाज क्या है।"
इस दोहे में, कबीर जी एक उपमहाद्वीपीय परंपरा का उदाहरण दे रहे हैं जहां सुख-दुःख, जीवन की चुनौतियों को ग्रहण किया जाता है और उसे बातचीत में बीचा जाता है। फिर उन्होंने इस बीचे के चरणों को प्याले में बारुनी कहने का सुझाव दिया है, जिससे इसका समाधान हो सके।
चौपाई
कैकइ सुअन जोगु जग जोई। चतुर बिरंचि दीन्ह मोहि सोई।।
दसरथ तनय राम लघु भाई। दीन्हि मोहि बिधि बादि बड़ाई।।
तुम्ह सब कहहु कढ़ावन टीका। राय रजायसु सब कहँ नीका।।
उतरु देउँ केहि बिधि केहि केही। कहहु सुखेन जथा रुचि जेही।।
मोहि कुमातु समेत बिहाई। कहहु कहिहि के कीन्ह भलाई।।
मो बिनु को सचराचर माहीं। जेहि सिय रामु प्रानप्रिय नाहीं।।
परम हानि सब कहँ बड़ लाहू। अदिनु मोर नहि दूषन काहू।।
संसय सील प्रेम बस अहहू। सबुइ उचित सब जो कछु कहहू।।
इस चौपाई में कहा गया है कि जिस व्यक्ति को सभी जगहों में चतुरता दिखती है, वही ब्रह्मा के समान होता है और वही मुझे विवेक प्रदान करता है।
दसरथ के पुत्र राम, छोटे भाई, वे ही मुझे सब प्रकार से बड़ा और बढ़ाते हैं।
तुम सभी मुझे सच्चाई से बताओ, राजा और राज्य के बारे में सब अच्छा होता है।
देखो, वहाँ से कुछ तरीके हैं, कुछ विचार करो, जो जो अच्छा लगता है।
मैंने सभी संदेहों को देखा है, बताओ किसका भला है और किन चीजों का क्या अच्छा है।
मैंने सभी तथ्यों को सहलाते हुए कुछ भी गलत नहीं किया है।
सबसे बड़ा नुकसान होगा, कोई भी मेरे द्वारा कोई गलती नहीं मिलेगी।
संदेह, सही व्यवहार और प्यार, ये सभी जगहों पर उचित हैं। सब कुछ बताओ जो सही है।
दोहा-
राम मातु सुठि सरलचित मो पर प्रेमु बिसेषि।
कहइ सुभाय सनेह बस मोरि दीनता देखि।।181।
इस दोहे का अर्थ नीचे दिया गया है:
"राम की माता की सुठी सरलता मेरे पर प्रेम में विशेष है। मेरी दीनता को देखकर वह सुभाय से मेरे प्रेम को कहते हैं।"
इस दोहे में, कबीर जी भगवान राम के प्रेम में अपनी आत्मा की सरलता को बयान कर रहे हैं। उन्होंने राम की माता की सरलता को देखकर वह उनसे विशेष प्रेम करते हैं और राम उन्हें दीनता से सुभाषित करते हैं, जिससे उनका प्रेम और भी बढ़ता है।
चौपाई
गुर बिबेक सागर जगु जाना। जिन्हहि बिस्व कर बदर समाना।।
मो कहँ तिलक साज सज सोऊ। भएँ बिधि बिमुख बिमुख सबु कोऊ।।
परिहरि रामु सीय जग माहीं। कोउ न कहिहि मोर मत नाहीं।।
सो मैं सुनब सहब सुखु मानी। अंतहुँ कीच तहाँ जहँ पानी।।
डरु न मोहि जग कहिहि कि पोचू। परलोकहु कर नाहिन सोचू।।
एकइ उर बस दुसह दवारी। मोहि लगि भे सिय रामु दुखारी।।
जीवन लाहु लखन भल पावा। सबु तजि राम चरन मनु लावा।।
मोर जनम रघुबर बन लागी। झूठ काह पछिताउँ अभागी।।
चौपाई का अर्थ:

"गुरु, जो विवेक का सागर हैं, वे जानते हैं कि जो व्यक्ति ब्रह्मांड को समानता से देखता है।
मैं तिलक को अपने शरीर में लगाता हूं, लेकिन सभी लोग अनुभव को विभाजित कर रहे हैं।
राम और सीता को जगत में अलग कर दिया। कोई नहीं कह सकता कि मैंने ऐसा किया है।
वहाँ जहां पानी है, वहां मैंने सुख को पा लिया।
मुझे जगत में किसी की डर नहीं, किसी को भी प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए।
मेरे मन में एक ही इच्छा है, उसी के द्वार पर जाने की, जिसने मेरे दुःख को बढ़ावा दिया।
अगर मैं अपने जीवन को लौह पाऊँगा, तो भी राम के चरणों को त्याग दूँगा।
मेरा जन्म राम के भक्त बनने के लिए हुआ है, बाकी कुछ भी झूठा नहीं है।"
दोहा-
आपनि दारुन दीनता कहउँ सबहि सिरु नाइ।
देखें बिनु रघुनाथ पद जिय कै जरनि न जाइ।।182।।
इस दोहे का अर्थ नीचे दिया गया है:
"अपनी अद्भुत दीनता को मैं सबके सामने कहता हूँ, बिना रघुनाथ (राम) के प्रति मेरा मन नहीं जाता।"
इस दोहे में, कबीर जी अपनी निराकुल दीनता और भक्ति को व्यक्त कर रहे हैं। उनका कहना है कि वह सभी के सामने अपनी दीनता को बयान करते हैं, लेकिन उनका मन राम के प्रति हमेशा जगह नहीं देता है। इससे वह अपने आत्मा की विशेष बॉन्डिंग को बता रहे हैं और राम के बिना उनका मन शांत नहीं हो सकता है।
चौपाई
आन उपाउ मोहि नहि सूझा। को जिय कै रघुबर बिनु बूझा।।
एकहिं आँक इहइ मन माहीं। प्रातकाल चलिहउँ प्रभु पाहीं।।
जद्यपि मैं अनभल अपराधी। भै मोहि कारन सकल उपाधी।।
तदपि सरन सनमुख मोहि देखी। छमि सब करिहहिं कृपा बिसेषी।।
सील सकुच सुठि सरल सुभाऊ। कृपा सनेह सदन रघुराऊ।।
अरिहुक अनभल कीन्ह न रामा। मैं सिसु सेवक जद्यपि बामा।।
तुम्ह पै पाँच मोर भल मानी। आयसु आसिष देहु सुबानी।।
जेहिं सुनि बिनय मोहि जनु जानी। आवहिं बहुरि रामु रजधानी।।
चौपाई का अर्थ:

"मुझे आन और उपाय दोनों नहीं समझ आया है, कौन है जो रघुनाथ के बिना समझ सकता है?
मैंने अपने मन में एक ही चेहरा देखा है, और मैं प्रभु की प्रातःकालीन चाह को प्राप्त करने के लिए जा रहा हूँ।
हालांकि, मैं अज्ञानी और पापी हूँ, मेरे सभी उपाधियों के कारण मुझे भय होता है।
लेकिन जब मैं भगवान के सम्मुख चला गया, तो उन्होंने मुझे देखकर सभी क्षमा की विशेष कृपा की।
मेरी चाल, चालाकी, संकोच, सरलता और भगवान राम के प्रति प्रेम सदा रहता है।
मैंने अपने गलतियों को समझा लिया है, लेकिन मैं वाममार्गी होने के बावजूद भी तुम्हारे प्रति मान को पांच मानता हूँ।
जैसा कि मैंने आपकी सुनी, आपकी आशीर्वाद दीजिए, मैं उम्मीद करता हूँ कि भविष्य में फिर से राम की राजधानी में आ सकूँ।"
दोहा-
जद्यपि जनमु कुमातु तें मैं सठु सदा सदोस।
आपन जानि न त्यागिहहिं मोहि रघुबीर भरोस।।183।।
इस दोहे का अर्थ नीचे दिया गया है:
"जबकि मेरा जन्म कुमातु में हुआ है, मैं सदा सत्य का पालन करता हूँ। रघुकुल रीति यह मुझे त्यागने की भावना को नहीं जानती, क्योंकि मेरा विश्वास रघुबीर (राम) पर है।"
इस दोहे में, कबीर जी अपने जन्म स्थान को उच्चारित कर रहे हैं और कह रहे हैं कि वे सदा सत्य का पालन करते हैं, चाहे उनका जन्म कहीं भी हो। उन्होंने रघुकुल रीति की भावना को नहीं जानते क्योंकि उनका पूरा भरोसा रघुबीर (राम) पर है।
चौपाई
भरत बचन सब कहँ प्रिय लागे। राम सनेह सुधाँ जनु पागे।।
लोग बियोग बिषम बिष दागे। मंत्र सबीज सुनत जनु जागे।।
मातु सचिव गुर पुर नर नारी। सकल सनेहँ बिकल भए भारी।।
भरतहि कहहि सराहि सराही। राम प्रेम मूरति तनु आही।।
तात भरत अस काहे न कहहू। प्रान समान राम प्रिय अहहू।।
जो पावँरु अपनी जड़ताई। तुम्हहि सुगाइ मातु कुटिलाई।।
सो सठु कोटिक पुरुष समेता। बसिहि कलप सत नरक निकेता।।
अहि अघ अवगुन नहि मनि गहई। हरइ गरल दुख दारिद दहई।।
चौपाई का अर्थ:
"भरत के सभी वचन प्रिय लगते थे। राम के प्रति स्नेह नजर आता था।
लोग वियोग की बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण चिह्नित होते हैं। सभीज मंत्र सुनकर जागते हैं।
माता, सचिव, गुरु, पुरुष और स्त्री - सभी ने राम के प्रति सम्मान किया।
भरत ने सराहना की और कहा - राम प्रेम की मूर्ति हैं।
ताता, भरत कहाँ करूं, जो जीवन भर मेरे प्राण समान राम को पसंद नहीं कहता।
जो अपनी जड़ता को पाता है, वह माता को भी परेशान करता है।
वह सच्चे कोटि पुरुषों के साथ बैठता है और सत्य और नरक के निवासों को जानता है।
वहाँ अघ और अवगुण मन में नहीं ले सकता, वह गले की गरल और दुख को ही दहलाता है।"
दोहा-
अवसि चलिअ बन रामु जहँ भरत मंत्रु भल कीन्ह।
सोक सिंधु बूड़त सबहि तुम्ह अवलंबनु दीन्ह।।184।।
इस दोहे का अर्थ नीचे दिया गया है:
"राम जी का मंत्र मुझे उस अवस (स्थान) तक पहुँचाता है जहाँ भरत ने भले मंत्र का पालन किया है। जैसे समुद्र के बादल सभी दिशाओं से वायु को अपना सहारा देते हैं, उसी प्रकार तुम अपना आश्रय देते हो।"
इस दोहे में, कबीर जी भगवान राम के मंत्र की महत्ता को बता रहे हैं और कह रहे हैं कि जैसे भरत ने भले मंत्र का पालन किया है, वैसे ही मनुष्य को भी इसे अपना सहारा लेना चाहिए। इसे अपने मन में धारण करने के बराबर कहा गया है, जो व्यक्ति को सभी परिस्थितियों से संरक्षित रख सकता है।
चौपाई
भा सब कें मन मोदु न थोरा। जनु घन धुनि सुनि चातक मोरा।।
चलत प्रात लखि निरनउ नीके। भरतु प्रानप्रिय भे सबही के।।
मुनिहि बंदि भरतहि सिरु नाई। चले सकल घर बिदा कराई।।
धन्य भरत जीवनु जग माहीं। सीलु सनेहु सराहत जाहीं।।
कहहि परसपर भा बड़ काजू। सकल चलै कर साजहिं साजू।।
जेहि राखहिं रहु घर रखवारी। सो जानइ जनु गरदनि मारी।।
कोउ कह रहन कहिअ नहिं काहू। को न चहइ जग जीवन लाहू।।
चौपाई का अर्थ:
"सभी का मन थोड़ा भी संतोषित नहीं था। मैने सुना था कि मोर को घने बादलों के ध्वनि में चातक की प्रतीक्षा होती है।
जब प्रातः चला, तो मैंने देखा कि भरत सभी के प्रिय थे।
मुनि ने भरत को सराहा और उनके सिर पर हाथ रखा। फिर भरत ने सभी घरों को विदा कर दिया।
धन्य है भरत, जो दुनिया में जीवन व्यतीत करते हुए भी, उनकी शीलता और प्रेम की प्रशंसा होती है।
वे एक दूसरे के प्रति बड़े आदरणीय और सम्मानी हैं। सभी उनके नेतृत्व में चलते हैं और उनकी ही शरण में रहने की इच्छा रखते हैं।
जो घर में रखता है और रहने की इच्छा रखता है, वह जानता है कि गर्दन को कौन संभालता है।
कोई भी यहाँ रहने की इच्छा नहीं रखता, कोई भी इस दुनिया को जीवित नहीं रखता।"
दोहा-
जरउ सो संपति सदन सुखु सुहद मातु पितु भाइ।
सनमुख होत जो राम पद करै न सहस सहाइ।।185।।
इस दोहे का अर्थ नीचे दिया गया है:
"जिसका संपत्ति, सुख, सुहाग (पति), माता, पिता और भाई सब सुखद हो, जो राम के प्रति समर्पित होता है और संमुख रहकर सहायता के लिए नहीं रत्नाएं मांगता।"
इस दोहे में, कबीर जी सार्थक और पूर्ण जीवन को बयान कर रहे हैं, जो राम के प्रति भक्ति और समर्पण से भरा होता है। ऐसा जीवन सभी परिस्थितियों में सुखद होता है और यह अन्य संपत्तियों से भी महत्वपूर्ण है।

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