अयोध्या कांड इक्कीसवाँ विश्राम श्री रामचरितमानस अर्थ सहित

अयोध्या कांड इक्कीसवाँ विश्राम श्री रामचरितमानस अर्थ सहित  Ayodhya incident twenty-first rest with Shri Ramcharitmanas meaning

चौपाई 
तापस बेष जनक सिय देखी, भयउ पेमु परितोषु बिसेषी ||
पुत्रि पवित्र किए कुल दोऊ, सुजस धवल जगु कह सबु कोऊ ||
जिति सुरसरि कीरति सरि तोरी, गवनु कीन्ह बिधि अंड करोरी ||
गंग अवनि थल तीनि बड़ेरे, एहिं किए साधु समाज घनेरे ||
पितु कह सत्य सनेहँ सुबानी, सीय सकुच महुँ मनहुँ समानी ||
पुनि पितु मातु लीन्ह उर लाई, सिख आसिष हित दीन्हि सुहाई ||
कहति न सीय सकुचि मन माहीं, इहाँ बसब रजनीं भल नाहीं ||
लखि रुख रानि जनायउ राऊ, हृदयँ सराहत सीलु सुभाऊ ||
ये चौपाई भी श्रीरामचरितमानस से हैं। इनका अर्थ इस प्रकार है:
तापस बने हुए जनक ने सीता को देखकर वे प्रेम में परितोषित हो गए, यह प्रेम अत्यंत विशेष था। सीता ने दो पुत्रों को पावन रूप से जन्म दिया, जो समस्त जगहों में सुनाया जाता है। तुम्हारी कीर्ति ने समुद्रों की सरहदों को भी छू लिया, जिसका अंडे की तरह अंदाजा करना संभव नहीं था। गंगा जल को तीन तरह से पवित्र किया गया, जो साधु-समाज को अत्यंत संगठित बनाते हैं। जो बात पिताजी ने सत्य और प्रेम से कही, सीता ने उसे मन में समान ठहारा। पुनः पिता और माता को अपने हृदय में लेकर, वह उनसे आशीर्वाद और हित की बातें सीखी और सम्मानित की। सीता ने मन में कहा, "इस राजनीति का वहाँ कोई भी अच्छा फल नहीं होता, मैं राजा को यह सिखाऊंगी।" रानी सीता ने रुक कर राजा को यह बताया कि श्रीराम का हृदय सील और सुभाव से भरा हुआ है।
दोहा
बार बार मिलि भेंट सिय बिदा कीन्ह सनमानि,
कही समय सिर भरत गति रानि सुबानि सयानि ||२८७ ||
इसका अर्थ है:
"सीता ने बार-बार मिलकर विदा की अत्यंत सम्मानित होकर, कहा कि हे भरत, कभी कभी समय होता है जब राजनीतिक नीति मानने वाले व्यक्ति को सीटा ने पुराने संस्कारों के आधार पर अनुशासित करने का सुझाव दिया।"
इस दोहे में सीता ने भरत को सलाह दी है कि कभी-कभी बुद्धिमत्ता और स्मार्ट राजनीतिक नीति को छोड़कर पुराने संस्कारों के आधार पर कार्य करना चाहिए।
चौपाई 
सुनि भूपाल भरत ब्यवहारू, सोन सुगंध सुधा ससि सारू ||
मूदे सजल नयन पुलके तन, सुजसु सराहन लगे मुदित मन ||
सावधान सुनु सुमुखि सुलोचनि, भरत कथा भव बंध बिमोचनि ||
धरम राजनय ब्रह्मबिचारू, इहाँ जथामति मोर प्रचारू ||
सो मति मोरि भरत महिमाही, कहै काह छलि छुअति न छाँही ||
बिधि गनपति अहिपति सिव सारद, कबि कोबिद बुध बुद्धि बिसारद ||
भरत चरित कीरति करतूती, धरम सील गुन बिमल बिभूती ||
समुझत सुनत सुखद सब काहू, सुचि सुरसरि रुचि निदर सुधाहू ||
यह चौपाई भी श्रीरामचरितमानस से हैं। इनका अर्थ इस प्रकार है:
भूपाल ने भरत के व्यवहार को सुना, जिसमें सोने के समान सुगंध और सुधा के समान निराला चमकारा होता था। उनकी चेहरे की रौशनी ने मेरे मन को आनंदित कर दिया, जिससे मेरी आंखों के अंसू बहने लगे और मेरा शरीर कंपने लगा। सुमुखी और सुलोचनी (सीता जी) से सावधानी से सुनो, भरत की कहानी सुनकर संसार से मुक्त हो जाओ। राज धर्म और ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए, मैं यहाँ अपनी बुद्धि से इसे प्रचारित करता हूँ। वो मेरी बुद्धि में है भरत की महिमा में, तो किसी भी विचार की छलना और छुपाव नहीं करती है। गणपति, अहिपति (इंद्र) और शिवजी को भूल जाने वाला बुद्धिमान होता है, किन्तु कवि, विद्वान्, बुद्धिमान कभी नहीं भूलता है। भरत के चरित्र में जो कीर्ति और कर्तव्य है, वो धर्म, सील और गुणों में अत्यंत विशेष है। सबको समझने और सुनने में ही सुख मिलता है, सच्ची सुन्दरता सर्वत्र और अन्यत्र मिलती है।
दोहा
निरवधि गुन निरुपम पुरुषु भरतु भरत सम जानि,
कहिअ सुमेरु कि सेर सम कबिकुल मति सकुचानि ||२८८ ||
इसका अर्थ है:
"भरत, निरंतर गुणों और अनुपम पुरुष को समझते हुए, समझो कि सुमेरु पर्वत के समान तुम्हारी मति भी सुचारु है।"
इस दोहे में भरत को यह समझाया जा रहा है कि उन्हें स्वयं को निरंतर गुणों से सम्पन्न और अनुपम व्यक्ति को मानना चाहिए, और उनकी मति को सुमेरु पर्वत के समान सुचारु मानना चाहिए।
चौपाई 
अगम सबहि बरनत बरबरनी, जिमि जलहीन मीन गमु धरनी ||
भरत अमित महिमा सुनु रानी, जानहिं रामु न सकहिं बखानी ||
बरनि सप्रेम भरत अनुभाऊ, तिय जिय की रुचि लखि कह राऊ ||
बहुरहिं लखनु भरतु बन जाहीं, सब कर भल सब के मन माहीं ||
देबि परंतु भरत रघुबर की, प्रीति प्रतीति जाइ नहिं तरकी ||
भरतु अवधि सनेह ममता की, जद्यपि रामु सीम समता की ||
परमारथ स्वारथ सुख सारे, भरत न सपनेहुँ मनहुँ निहारे ||
साधन सिद्ध राम पग नेहू ||मोहि लखि परत भरत मत एहू ||
ये चौपाई भी श्रीरामचरितमानस से हैं। इनका अर्थ इस प्रकार है:
वह अगम्य है, जिसे सब लोग बर्णने की कोशिश करते हैं, जैसे जलहीन मीन धरती पर घूमते हैं। रानी, भरत की अमित महिमा को सुनो, जिसे वह राम को व्यक्त नहीं कर सकता है। भरत ने प्रेम से राम की भावना को अनुभव किया, और उनकी रुचि को देखकर यहाँ कहा। फिर भरत वहाँ से चले जाना चाहते हैं ताकि सभी लोग अच्छा करें और सबका मन भला रहे। भरत ने राम को प्रिय होने के बावजूद उनकी प्रीति और प्रतीति को समझा। भरत का सनेह और ममता की अवधि सीमित है, क्योंकि वह राम के सीमा-समता में बहुत संतुष्ट है। परमार्थ, स्वार्थ और सभी सुखों की साधना में, भरत ने न किसी को सपना देखा है और न ही किसी का मनोरंजन किया है। राम के पादों में साधना करने के बावजूद, भरत ने मुझे पुनः अपनी दृष्टि में नहीं लिया।
दोहा
भोरेहुँ भरत न पेलिहहिं मनसहुँ राम रजाइ,
करिअ न सोचु सनेह बस कहेउ भूप बिलखाइ ||२८९ ||
इसका अर्थ है:
"हे भरत, सुबह समय में मन में राम को न रखो, उसकी इच्छा को मन में न धारण करो। अपनी नींद को छोड़ दो और बस भूप जनों को बोलो।"
इस दोहे में भरत से कहा जा रहा है कि वह सुबह को रामचंद्र जी के विचार में समय न गवाएं, उनकी चिंता न करें, बल्कि लोगों को सम्मोहित करने में व्यस्त रहें।
चौपाई 
राम भरत गुन गनत सप्रीती, निसि दंपतिहि पलक सम बीती ||
राज समाज प्रात जुग जागे, न्हाइ न्हाइ सुर पूजन लागे ||
गे नहाइ गुर पहीं रघुराई, बंदि चरन बोले रुख पाई ||
नाथ भरतु पुरजन महतारी, सोक बिकल बनबास दुखारी ||
सहित समाज राउ मिथिलेसू, बहुत दिवस भए सहत कलेसू ||
उचित होइ सोइ कीजिअ नाथा, हित सबही कर रौरें हाथा ||
अस कहि अति सकुचे रघुराऊ, मुनि पुलके लखि सीलु सुभाऊ ||
तुम्ह बिनु राम सकल सुख साजा, नरक सरिस दुहु राज समाजा ||
यह चौपाई भी श्रीरामचरितमानस से हैं। इनका अर्थ इस प्रकार है:
राम और भरत दोनों गुणों को गुनन करके प्रीति से बीतते थे, जैसे रात्रि के समय जोड़े हुए जीवनसाथी समान बीतते हैं। राज्य और समाज में यहाँ जगह-जगह योग्य सेवा के लिए जागरूकता होती थी, सभी स्थानों पर सुरक्षा का ध्यान रखा जाता था। राम ने पहले गुरु के पास जाकर नहाया, फिर उनके पादुकाओं को बंधकर बोले और उनके चरणों में रुख किया। भरत ने नाथ, अपने पुरोहित और पुरजनों के साथ बहुत दुःखद और विचलित वनवास को भोगा। मिथिला के समाज में राम के संग वनवास जैसा कष्टकर दिन बीते। वही उचित होता है जो नाथ आपकी इच्छा है, सभी को हित करने के लिए हाथ बढ़ाते हैं। राम नहीं होते तो सब सुख संसार का कोई भी साजा नहीं सकता, ऐसा कहते हुए मुनि जी मेरी सील और सुभाव को देखकर पुलकित होते हैं। तुम्हारे बिना सभी सुख संसार का कोई भी साजा नहीं सकता, राजा और समाज दोनों ही नरक हो जाते।
दोहा
प्रान प्रान के जीव के जिव सुख के सुख राम,
तुम्ह तजि तात सोहात गृह जिन्हहि तिन्हहिं बिधि बाम ||२९० ||
इसका अर्थ है:
"राम ही प्राणों के प्राण हैं, जीवन के जीव हैं, सुख के सुख हैं। उनको छोड़कर जो अन्य तात और भात आत्मा को सोहाते हैं, वे सब तात्म्य को छोड़कर बिना बुद्धि के चले जाते हैं।"
यह दोहा भगवान राम को ही सबका स्रोत और सुख का स्रोत मानने की प्रेरणा देता है और उसके सिवाय अन्य भोगों को छोड़कर जाने की भीख माना गया है।
चौपाई 
सो सुखु करमु धरमु जरि जाऊ, जहँ न राम पद पंकज भाऊ ||
जोगु कुजोगु ग्यानु अग्यानू, जहँ नहिं राम पेम परधानू ||
तुम्ह बिनु दुखी सुखी तुम्ह तेहीं, तुम्ह जानहु जिय जो जेहि केहीं ||
राउर आयसु सिर सबही कें, बिदित कृपालहि गति सब नीकें ||
आपु आश्रमहि धारिअ पाऊ, भयउ सनेह सिथिल मुनिराऊ ||
करि प्रनाम तब रामु सिधाए, रिषि धरि धीर जनक पहिं आए ||
राम बचन गुरु नृपहि सुनाए, सील सनेह सुभायँ सुहाए ||
महाराज अब कीजिअ सोई, सब कर धरम सहित हित होई,
ये चौपाई भी श्रीरामचरितमानस से हैं। इनका अर्थ इस प्रकार है:
वह सुख और कर्म, वह धर्म जहाँ नहीं होते जिसमें राम के पाद पंकजों का भाव नहीं होता। जहाँ योग, ध्यान और ज्ञान होता है, वहाँ राम का प्रेम नहीं होता, जो सर्वोपरि होता है। तुम्हारे बिना सुखी हो जाते हैं तो भी तुम्हीं, जो तुम्हें जैसा जानते हैं, वैसा ही होते हैं। सबका सिर तुम्हें ही आश्रय लेते हैं, सबकी गति भली होती है जब उन्हें दयालु राम से परिचित होता है। स्वयं आश्रम में धारण करके मैंने आपके प्रेम से चिंता छोड़ दी है, मुनि ने संकोच उठाया। धीरे-धीरे नमस्कार करते हुए राम ने सीता को लेकर जनक के आश्रम में आया। राम ने गुरु और राजा को उनके वचन सुनाए, जो उनकी भावना, प्रेम और श्रेष्ठता को सुहाए। महाराज, अब आप वही कीजिए, जो सबके हित में धर्म के साथ किया जाता है।
दोहा
ग्यान निधान सुजान सुचि धरम धीर नरपाल,
तुम्ह बिनु असमंजस समन को समरथ एहि काल ||२९१ ||
यह दोहा तुलसीदासजी की "रामचरितमानस" से ली गई है। इसका अर्थ है:
"जो व्यक्ति ज्ञान, धन, सुज्ञान, सुचि, धर्म और धीरता सहित धर्म को पालता है, वह बिना तुम्हारे सहारे के इस समय में किसे समर्थ कहेगा?"
यह दोहा उस उच्च और समर्थ शख्सियत को स्तुति करता है जो धर्म, ज्ञान, और साहस के साथ समय के सभी परिस्थितियों में समर्थ होता है।
चौपाई 
सुनि मुनि बचन जनक अनुरागे, लखि गति ग्यानु बिरागु बिरागे ||
सिथिल सनेहँ गुनत मन माहीं, आए इहाँ कीन्ह भल नाही ||
रामहि रायँ कहेउ बन जाना, कीन्ह आपु प्रिय प्रेम प्रवाना ||
हम अब बन तें बनहि पठाई, प्रमुदित फिरब बिबेक बड़ाई ||
तापस मुनि महिसुर सुनि देखी, भए प्रेम बस बिकल बिसेषी ||
समउ समुझि धरि धीरजु राजा, चले भरत पहिं सहित समाजा ||
भरत आइ आगें भइ लीन्हे, अवसर सरिस सुआसन दीन्हे ||
तात भरत कह तेरहुति राऊ, तुम्हहि बिदित रघुबीर सुभाऊ ||
ये चौपाई भी श्रीरामचरितमानस से हैं। इनका अर्थ इस प्रकार है:
मुनियों ने जनक के प्रेम से बातें सुनीं, जिनसे वे वैराग्य और ज्ञान की गति को समझ गए। जब मन में विलंबित प्रेम होता है, तो यहाँ आकर कुछ भी नहीं किया जा सकता। राम में राजा बनने का विचार करने लगे, परंतु उन्होंने स्वयं को प्रियतम प्रेमान्वित किया। अब हम जंगल में रहेंगे, जो बुद्धि को बड़ाई देगा, हम प्रसन्न और विवेकी बनेंगे। तापसों और मुनियों ने देखा और सुना, जो प्रेम का अत्यंत विशेष है। राजा ने सबको समझकर धैर्य धारण किया, भरत सहित समाज के साथ चले। भरत आगे आए और उन्होंने समय का उपयोग किया, समय को सुशासन दिया। भरत ने तुमसे ही कहा, तुम्हीं हो रघुबीर (राम) के भावी विशेषज्ञ।
दोहा
राम सत्यब्रत धरम रत सब कर सीलु सनेहु ||
संकट सहत सकोच बस कहिअ जो आयसु देहु ||२९२ ||
इस दोहे में कबीरदास जी कह रहे हैं कि हमें भगवान राम के सत्यव्रत में और धर्म के प्रति रत रहना चाहिए। हमें सभी को सम्मान और प्रेम से देखना चाहिए। जो कुछ भी संकट आता है, हमें उसे सहना चाहिए और बस भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए कि वह हमें उसका समाधान दे।
चौपाई 
सुनि तन पुलकि नयन भरि बारी, बोले भरतु धीर धरि भारी ||
प्रभु प्रिय पूज्य पिता सम आपू, कुलगुरु सम हित माय न बापू ||
कौसिकादि मुनि सचिव समाजू, ग्यान अंबुनिधि आपुनु आजू ||
सिसु सेवक आयसु अनुगामी, जानि मोहि सिख देइअ स्वामी ||
एहिं समाज थल बूझब राउर, मौन मलिन मैं बोलब बाउर ||
छोटे बदन कहउँ बड़ि बाता, छमब तात लखि बाम बिधाता ||
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना, सेवाधरमु कठिन जगु जाना ||
स्वामि धरम स्वारथहि बिरोधू, बैरु अंध प्रेमहि न प्रबोधू ||
यह चौपाई भी श्रीरामचरितमानस से हैं। इनका अर्थ इस प्रकार है:
भरत ने तन को पुलकित करके नयनों में भाव भरकर धीरे-धीरे भारी शब्दों में कहा। "प्रभु, आप मेरे पिता के समान ही पूजनीय, प्रिय और पूजनीय हैं, लेकिन आप मेरे कुलगुरु के समान ही मेरे हित के लिए भी माने नहीं जाते हैं।" "आप वाल्मीकि और अन्य मुनियों के सचिव, सामाजिक समर्थन और ज्ञान का संग्रहण करते हैं, आज आप मेरे सेवक के रूप में आए हैं, कृपया मुझे भी ज्ञान दीजिए।" "मुझे यहाँ की समाजिक स्थिति समझने में मदद कीजिए, मैं चुप रहकर मैला हो जाता हूं।" "मेरे छोटे बदन में बड़ी बातें कहता हूं, छम्बा ताता, मैंने आपको सभी गुण देखे हैं।" "वेदों और पुराणों में प्रसिद्ध सेवा और धर्म को कठिन माना गया है। स्वामी, धर्म और स्वार्थ के बीच विरोध होता है, और बैर और अंधे प्रेम में जागरूकता नहीं होती।"
दोहा
राखि राम रुख धरमु ब्रतु पराधीन मोहि जानि,
सब कें संमत सर्ब हित करिअ पेमु पहिचानि ||२९३ ||
इस दोहे में कबीरदास जी कह रहे हैं कि मैं राम के धर्म को पालन करता हूँ और उसके व्रतों में पराधीन रहता हूँ, क्योंकि मैं जानता हूँ कि सभी लोगों के साथ समझौता करना है। राम के सभी में हित करने की भावना रखते हुए, मैं प्रेम को पहचानता हूँ।
चौपाई 
भरत बचन सुनि देखि सुभाऊ, सहित समाज सराहत राऊ ||
सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे, अरथु अमित अति आखर थोरे ||
ज्यौ मुख मुकुर मुकुरु निज पानी, गहि न जाइ अस अदभुत बानी ||
भूप भरत मुनि सहित समाजू, गे जहँ बिबुध कुमुद द्विजराजू ||
सुनि सुधि सोच बिकल सब लोगा, मनहुँ मीनगन नव जल जोगा ||
देवँ प्रथम कुलगुर गति देखी, निरखि बिदेह सनेह बिसेषी ||
राम भगतिमय भरतु निहारे, सुर स्वारथी हहरि हियँ हारे ||
सब कोउ राम पेममय पेखा, भउ अलेख सोच बस लेखा ||
ये चौपाई भी श्रीरामचरितमानस से हैं। इनका अर्थ इस प्रकार है:
भरत ने बातें सुनकर देखकर सभी का समाज सराहा। राम के मुख से निकली बातें सुगम, अगम, मृदु, मनोहर, और कठोर, विशाल और अत्यंत आधिकृत थीं। राम की अद्भुत बाणी मुखरित थी जैसे मुख में जो निजी जल हो, वह कभी नहीं जा सकता। राजा भरत ने मुनियों के साथ समाज को लेकर गाए, जहाँ बुद्धिमान विद्वान् द्विजराज थे। सभी लोगों ने सुनकर विचार किया, मन में जलन की नई भावना उत्पन्न हुई। उन्होंने पहले देवताओं को देखा, जो कुलगुरु की गति को देखकर विचार किया और उन्हें बिदेश में विशेष प्रेम देखा। भरत ने राम को भक्तिमय रूप में देखा, जो स्वर्गीय सुखों में ही अपना हृदय हर चुके थे। सभी लोगों ने राम का प्रेममय रूप देखा, जिसे अलेख और सोचने योग्य समझा गया।
दोहा
रामु सनेह सकोच बस कह ससोच सुरराज,
रचहु प्रपंचहि पंच मिलि नाहिं त भयउ अकाजु ||२९४ ||
इस दोहे में कबीरदास जी कह रहे हैं कि भगवान राम का स्नेह इतना अप्रत्याशित है कि स्वर्गीय देवताओं ने भी उसे समझने की कोशिश की, परन्तु समझ में नहीं आ सके। वे इस संसार की रचना करते हैं, परन्तु उनमें भी राम के स्नेह की गहराई को समझने की क्षमता नहीं होती।
चौपाई 
सुरन्ह सुमिरि सारदा सराही, देबि देव सरनागत पाही ||
फेरि भरत मति करि निज माया, पालु बिबुध कुल करि छल छाया ||
बिबुध बिनय सुनि देबि सयानी, बोली सुर स्वारथ जड़ जानी ||
मो सन कहहु भरत मति फेरू, लोचन सहस न सूझ सुमेरू ||
बिधि हरि हर माया बड़ि भारी, सोउ न भरत मति सकइ निहारी ||
सो मति मोहि कहत करु भोरी, चंदिनि कर कि चंडकर चोरी ||
भरत हृदयँ सिय राम निवासू, तहँ कि तिमिर जहँ तरनि प्रकासू ||
अस कहि सारद गइ बिधि लोका, बिबुध बिकल निसि मानहुँ कोका ||
यह चौपाई भी श्रीरामचरितमानस से हैं। इनका अर्थ इस प्रकार है:
सारदा (जानकी माता) ने सुरों से समर्थन किया, देवी जानकी के शरण में आकर पाया गया। फिर भरत ने अपनी माया में धोखा देकर बुद्धिमानों का कुल खोकर पाला। जानकी माता ने बुद्धिमानों की विनय को सुनकर कहा, यह सुरों का स्वार्थिक तथा निर्बुद्धि है। भरत ने कहा, "मेरी बुद्धि को धोखा मत दो, मेरी दृष्टि बहुत तेज़ है।" भगवान हरि की माया अत्यधिक भारी है, ऐसी माया को भरत की बुद्धि समझना असंभव है। ऐसा मोहित मुझे कहो मत, जैसे चंद्रमा को चोर रात के कारण नहीं देख सकता। भरत के हृदय में सीता और राम का निवास है, वहाँ जहाँ अंधकार को प्रकाशमय बनाते हैं। सारदा ने यह बात बताकर लोगों को बताया, बुद्धिमानों को रात के कोकों से कोई मानना नहीं चाहिए।
दोहा
सुर स्वारथी मलीन मन कीन्ह कुमंत्र कुठाटु ||
रचि प्रपंच माया प्रबल भय भ्रम अरति उचाटु ||२९५ ||
इस दोहे में कबीरदास जी कह रहे हैं कि स्वर्गीय (सुर) भी अपने स्वार्थ के लिए मन को मैला बना लेते हैं और कुत्सित मंत्रों का प्रयोग करते हैं। वे मायामयी संसार की रचना करते हैं, जो भय और भ्रम से भरी होती है।
चौपाई 
करि कुचालि सोचत सुरराजू, भरत हाथ सबु काजु अकाजू ||
गए जनकु रघुनाथ समीपा, सनमाने सब रबिकुल दीपा ||
समय समाज धरम अबिरोधा, बोले तब रघुबंस पुरोधा ||
जनक भरत संबादु सुनाई, भरत कहाउति कही सुहाई ||
तात राम जस आयसु देहू, सो सबु करै मोर मत एहू ||
सुनि रघुनाथ जोरि जुग पानी, बोले सत्य सरल मृदु बानी ||
बिद्यमान आपुनि मिथिलेसू, मोर कहब सब भाँति भदेसू ||
राउर राय रजायसु होई, राउरि सपथ सही सिर सोई ||
ये चौपाई भी श्रीरामचरितमानस से हैं। इनका अर्थ इस प्रकार है:
सुरों के राजा जानकर यह सोचे कि भरत ने सभी कार्य ठीक-ठाक किए या नहीं। वे जानकर जनक के पास चले गए, सब रबिन्द्र के पास सम्मान के साथ गए। वहाँ समय, समाज, और धर्म के अनुकूल न होने पर राघव के पुरोहित ने बोला। जनक ने भरत को सुनाया जो संदेश लाया, और भरत ने सुखावाही कही। "ताता, राम के जैसा आदमी आपके पास आया है, वह सब कुछ मेरे मत के अनुसार करेगा नहीं।" रामनाथ ने सुनकर जोर लगाकर पानी में बोला, सत्य, सरल और मृदु ध्वनि में। "जो मिथिला में विद्यमान है, उसे मैंने सभी प्रकार से अच्छा पाया है।" "राजा बनने के लिए, जो सपथ लेता है, वही सही राजा होता है, उसी की सिर्फ यही पहचान होती है।"
दोहा
राम सपथ सुनि मुनि जनकु सकुचे सभा समेत,
सकल बिलोकत भरत मुखु बनइ न उतरु देत ||२९६ ||
इस दोहे में कहा गया है कि जब मुनि और जनक जैसे सब मिलकर भगवान श्रीराम की सपथ सुनते हैं, तो भरत का मुख उस समय भी मुस्कुराने से नहीं बाज आता। यहाँ पर भरत की निराशा और दुःख दिखाया गया है क्योंकि उनकी इच्छा थी कि उन्हें राजधानी में नहीं, बल्कि वनवास में होना चाहिए ताकि भगवान श्रीराम वापिस आ सकें।

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