अयोध्याकाण्ड भावार्थ सहित Ayodhya incident with meaning
मासपारायण, चौदहवाँ विश्राम 49-60
चौपाई–
एक बिधातहिं दूषनु देंहीं। सुधा देखाइ दीन्ह बिषु जेहीं।।
खरभरु नगर सोचु सब काहू। दुसह दाहु उर मिटा उछाहू।।
बिप्रबधू कुलमान्य जठेरी। जे प्रिय परम कैकेई केरी।।
लगीं देन सिख सीलु सराही। बचन बानसम लागहिं ताही।।
भरतु न मोहि प्रिय राम समाना। सदा कहहु यहु सबु जगु जाना।।
करहु राम पर सहज सनेहू। केहिं अपराध आजु बनु देहू।।
कबहुँ न कियहु सवति आरेसू। प्रीति प्रतीति जान सबु देसू।।
कौसल्याँ अब काह बिगारा। तुम्ह जेहि लागि बज्र पुर पारा।।
इस चौपाई का अर्थ है:"एक ब्रह्मा द्वारा निर्मित सुधा देखकर भी वह दुनिया में बिना दोष दिखाई देता है, जैसा कि दीननाथ भगवान बिषु प्रति होता है। सभी लोग खराब-खराब बातें सोचते हैं, लेकिन जलते हुए दाहिनी उर को छुपाते हैं। ब्राह्मणी जठरा (कुंडलिनी) को मान्य करने वाली बहन, जो श्रीराम के प्रिय परम पतिव्रता हैं, उनकी ओर से लगाई गई शिक्षा और गुणों की सराहना करती हूँ। वह बचन अपने मन में बाण के समान लगा रहती हैं। भरत, मेरे लिए राम से प्रिय नहीं है, उनके बराबर में कोई नहीं है, यह मैं सदा कहती हूँ, जगह-जगह घोषणा करती हूँ। तुम राम के प्रति सहज भावना करो, उससे कोई अपराध नहीं होता। कभी नहीं किया गया कोई अधर्म, सभी जगह प्रीति और प्रतीति से होता है। कौसल्या को अब कोई दोषी नहीं बना सकता, तुम वहाँ स्थायी स्थान पा लो।"
दोहा-
सीय कि पिय सँगु परिहरिहि लखनु कि रहिहहिं धाम।
राजु कि भूँजब भरत पुर नृपु कि जिइहि बिनु राम।।49।।
इस दोहे का अर्थ है:"सीता के सहित श्रीराम को त्यागकर लक्ष्मण को सहगमन करना चाहिए, राजा के रूप में भरत को भूषणित करना चाहिए, और नृप के रूप में सुग्रीव को बिना श्रीराम के जाने हुए राज्य पर कब्जा करना चाहिए।"
चौपाई–
अस बिचारि उर छाड़हु कोहू। सोक कलंक कोठि जनि होहू।।
भरतहि अवसि देहु जुबराजू। कानन काह राम कर काजू।।
नाहिन रामु राज के भूखे। धरम धुरीन बिषय रस रूखे।।
गुर गृह बसहुँ रामु तजि गेहू। नृप सन अस बरु दूसर लेहू।।
जौं नहिं लगिहहु कहें हमारे। नहिं लागिहि कछु हाथ तुम्हारे।।
जौं परिहास कीन्हि कछु होई। तौ कहि प्रगट जनावहु सोई।।
राम सरिस सुत कानन जोगू। काह कहिहि सुनि तुम्ह कहुँ लोगू।।
उठहु बेगि सोइ करहु उपाई। जेहि बिधि सोकु कलंकु नसाई।।
इस चौपाई का अर्थ है:"इस प्रकार विचार कर, किसी को भी अपने हृदय से निकालो, यह कहकर कि सुख और दुःख एक ही स्वरूप में हैं। भरत, तुम्हे राजा बनने का अवसर मिला है, तुम्हें राम के लिए वनवास में जाना चाहिए। राम को राजा बनने की भूख नहीं है, उनका धर्म है भोगों को त्यागना और भूषणों की भूख को भी नहीं चाहिए। गुरु के घर में बसो, राम को छोड़कर, तुम्हें राजा बनने का अधिकार नहीं है, यह किसी और को नहीं मिला है। अगर तुम्हारे लिए हमारी सुनी नहीं जा रही है, तो हम तुम्हारे लिए कुछ भी नहीं कर सकते हैं। अगर तुम हंसी में कुछ कहते हो, तो ऐसा कहो कि वह प्रकट हो जाए। राम सरीसृप बने हुए हैं और वनवासी हैं, इस बात को लोगों को बताओ। तुम तुरंत उठो और ऐसा कार्य करो, जिससे सुख का कलंक नष्ट हो।"
छंद
जेहि भाँति सोकु कलंकु जाइ उपाय करि कुल पालही।
हठि फेरु रामहि जात बन जनि बात दूसरि चालही।।
जिमि भानु बिनु दिनु प्रान बिनु तनु चंद बिनु जिमि जामिनी।
तिमि अवध तुलसीदास प्रभु बिनु समुझि धौं जियँ भामिनी।।
इन छंदों का अर्थ है:"जैसे किसी भी प्रकार से सुख का कलंक नष्ट किया जा सकता है, उसी प्रकार से कुल की रक्षा करके सुख मिलता है। विवेकपूर्ण रूप से राम की ओर मुड़ना चाहिए, ऐसा नहीं होना चाहिए कि दूसरी ओर बदला लिया जाए। जैसे सूर्य के बिना दिन नहीं होता, प्राण के बिना शरीर नहीं रहता, चंद्रमा के बिना रात नहीं होती, ठिक उसी रूप में अवध के तुलसीदास ने श्रीराम को प्रभु समझकर दूसरी दिशा में मुड़कर जीवन बिताना नहीं चाहिए।"
यह छंद तुलसीदास जी के विचारों को सुंदरता से व्यक्त करने के लिए उपयुक्त हैं।
सोरठा-
-सखिन्ह सिखावनु दीन्ह सुनत मधुर परिनाम हित।
तेइँ कछु कान न कीन्ह कुटिल प्रबोधी कूबरी।।50।।
सोरठा (Soratha) का अर्थ है 'सुखदाता' या 'खुशियों वाला'. इसे रामचरितमानस के एक अंश में इसी नाम से जाना जाता है। यहां दिए गए दोहे का अर्थ है:"साथीयों ने धर्म की शिक्षा दी है और मेरे कानों में मिठा परिणाम हो गया है, लेकिन मैंने किसी के कुटिल प्रबोधन का कोई समर्थन नहीं किया है, जैसे कुबेर ने किया था।"
इस दोहे में भक्त यह कह रहा है कि उसने धर्म की शिक्षा सुनी है और उसे साथियों ने मधुर परिणाम हासिल हुआ है, लेकिन उसने किसी के कुटिल प्रबोधन को समर्थन नहीं किया है, जैसा कि कुबेर ने श्रीराम के सामने किया था। यहां भक्त ने धर्म और नीति के मूल्यों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का ज्ञात कराया जा रहा है।
चौपाई
उतरु न देइ दुसह रिस रूखी। मृगिन्ह चितव जनु बाघिनि भूखी।।
ब्याधि असाधि जानि तिन्ह त्यागी। चलीं कहत मतिमंद अभागी।।
राजु करत यह दैअँ बिगोई। कीन्हेसि अस जस करइ न कोई।।
एहि बिधि बिलपहिं पुर नर नारीं। देहिं कुचालिहि कोटिक गारीं।।
जरहिं बिषम जर लेहिं उसासा। कवनि राम बिनु जीवन आसा।।
बिपुल बियोग प्रजा अकुलानी। जनु जलचर गन सूखत पानी।।
अति बिषाद बस लोग लोगाई। गए मातु पहिं रामु गोसाई।।
मुख प्रसन्न चित चौगुन चाऊ। मिटा सोचु जनि राखै राऊ।।
इस चौपाई में, भक्त श्रीराम के बिना जीवन की कठिनाइयों का वर्णन कर रहा है:"वह राक्षसी भूखी होकर देवताओं की ओर बढ़ी, लेकिन वह मृगिनी शाक में उतरने को नहीं देता है। ब्याधि ने असाध्य स्थिति को जानकर उनको छोड़ दिया, कहता है कि मतिमान् अभागी हैं, इसलिए जाओ और अपनी नियति में चलो। राजा ने भी इस प्रकार दैत्यिनी को बिगाड़ा है, जैसा कि उसने किया जो कोई और नहीं करता। इस तरह से राजा ने नागरिकों और नागरिकाओं को बहुत तकलीफों में डाला है, उनकी धन-भरी नारियों को कुचलता है। उसने बहुत बुरी बुरी बातें कही हैं, जिससे जनता बहुत ही दुखी है, जलचर और स्थलचर सभी प्राणी त्रस्त हो गए हैं। सभी लोग अत्यंत शोकमग्न हैं, लोगों ने माता सीता की ओर प्रार्थना की है कि श्रीराम गोसाई हों। मुख प्रसन्न है, मन चारगुण सुखी है, सोचने से भी उसने सोच मिटाई है और यही रूप में राजा रहने वाले का चरित्र होना चाहिए।"
दोहा-
नव गयंदु रघुबीर मनु राजु अलान समान।
छूट जानि बन गवनु सुनि उर अनंदु अधिकान।।51।।
इस दोहे का अर्थ है:"रघुकुल श्रीराम, जिनकी नव गुण गान्धर्व गाएं हैं, वे मनुवंश के राजा और सभी लोगों के लिए अलग हैं। उन्होंने वनवास का त्याग करके गोवन की प्राप्ति की, इसे सुनकर सभी लोग अत्यंत आनंदित हो गए हैं।"
इस दोहे में भक्त श्रीराम की महिमा का गान कर रहा है और उनके वीरता और धर्म के प्रति अपनी आदर्श अनुयायीता को बयान कर रहा है। भक्त यह कह रहा है कि श्रीराम ने नवगुणों का समाहार किया है और उनके व्यक्तिगत गुण और लीलाओं का अनुभव करने से सभी लोग बहुत आनंदित हो गए हैं।
चौपाई
रघुकुलतिलक जोरि दोउ हाथा। मुदित मातु पद नायउ माथा।।
दीन्हि असीस लाइ उर लीन्हे। भूषन बसन निछावरि कीन्हे।।
बार बार मुख चुंबति माता। नयन नेह जलु पुलकित गाता।।
गोद राखि पुनि हृदयँ लगाए। स्त्रवत प्रेनरस पयद सुहाए।।
प्रेमु प्रमोदु न कछु कहि जाई। रंक धनद पदबी जनु पाई।।
सादर सुंदर बदनु निहारी। बोली मधुर बचन महतारी।।
कहहु तात जननी बलिहारी। कबहिं लगन मुद मंगलकारी।।
सुकृत सील सुख सीवँ सुहाई। जनम लाभ कइ अवधि अघाई।।
इस चौपाई में, भक्त श्रीराम की माता कौसल्या की स्तुति कर रहा है:"रघुकुल के तिलक, जिसने अपने दो हाथों से जोड़े हैं, माता कौसल्या के पदों को मैंने अपने माथे पर रखा है। मैंने उनसे आशीर्वाद प्राप्त किए हैं और उनकी कृपा से मैंने अपने शरीर को भूषण से सजाया है। माता ने मुझे बार-बार चुम्बन दिया है, उनके नयन भक्ति से उत्तेजित होकर गाने लगे हैं। उन्होंने मुझे अपने गोद में रखा है और पुनः मेरा हृदय उनसे लगा लिया है, जिससे मैं उनके प्रेम रस को पिता हूँ। मैं प्रेम और प्रमोद को कुछ भी कहकर व्यक्त नहीं कर सकता हूँ, जो सुंदर रूपी धनद पदबी श्रीराम की सेवा में पूर्ण हो गई है। मैंने उनके सुंदर शरीर को सदैव निहारा है और उनके महतारी बचनों को मधुर भाषा में सुना है। कहिए, तात और जननी, मैं हैं बलिहारी, जो कभी-कभी मुझे अपने प्रेम में रमाने का आनंद मिलता है। सुख, सुविधा, और धर्म का सेवन करने से जन्म हुआ है, और इस अवधि में मैंने बहुत लाभ प्राप्त किया है।"
दोहा-
जेहि चाहत नर नारि सब अति आरत एहि भाँति।
जिमि चातक चातकि तृषित बृष्टि सरद रितु स्वाति।।52।।
इस दोहे का अर्थ है:"जैसे चातक पक्षी वर्षा के समय अत्यधिक प्यासा होता है, उसी प्रकार जो पुरुष और स्त्री भगवान के प्रति अत्यंत आराध्य हैं, उनका आराधना करते हैं।"
चौपाई
तात जाउँ बलि बेगि नहाहू। जो मन भाव मधुर कछु खाहू।।
पितु समीप तब जाएहु भैआ। भइ बड़ि बार जाइ बलि मैआ।।
मातु बचन सुनि अति अनुकूला। जनु सनेह सुरतरु के फूला।।
सुख मकरंद भरे श्रियमूला। निरखि राम मनु भवरुँ न भूला।।
धरम धुरीन धरम गति जानी। कहेउ मातु सन अति मृदु बानी।।
पिताँ दीन्ह मोहि कानन राजू। जहँ सब भाँति मोर बड़ काजू।।
आयसु देहि मुदित मन माता। जेहिं मुद मंगल कानन जाता।।
जनि सनेह बस डरपसि भोरें। आनँदु अंब अनुग्रह तोरें।।
इस चौपाई में, भक्त श्रीराम के माता-पिता के प्रति अपने श्रद्धाभाव को व्यक्त कर रहा है:"तात, मैं तुम्हें बलि नहीं दे सकता हूँ, परंतु मैं तुम्हारे प्रति जो मन से भावना रखता हूँ, वह मधुर होती है। पिताजी के समीप तुम जाओ, भैया, और वहां तुम्हारे लिए बड़ी सी बातें हैं, तुम मैया के वचन को सुनकर बहुत अनुकूलित होगे। तुम्हारी माता के वचन को सुनकर मेरा मन अत्यंत प्रेम भरा है, जैसे कि सुने गए सूर्यतरु के फूल बूंदों से भरे होते हैं। राम चंद्र जी को देखकर मेरा मन सुख-मकरंद से भरा हुआ है और मैंने उन्हें निरन्तर देखने में भूला नहीं हूँ। मैं ने धर्म और धृति का पालन करके उन्हें अपने परम मित्र माना है, माता जी, तुम्हारे बारे में बहुत ही मृदु भाषा में कहता हूँ। पिताजी ने मुझे एक अच्छे राजा के रूप में आशीर्वाद दिया है, जहां सभी प्रकार के काज होते हैं। तुम्हारी कृपा से माता, मैं खुशी में मूड़ित मन से आयुस की मांग करता हूँ। उस सुखमय कानन में जाकर मैंने आनंद प्राप्त किया है, जिसे देखकर रात्रि के अंत में भी डरने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि मैया की कृपा हमेशा मेरे साथ है।"
दोहा-
बरष चारिदस बिपिन बसि करि पितु बचन प्रमान।
आइ पाय पुनि देखिहउँ मनु जनि करसि मलान।।53।।
इस दोहे का अर्थ है:"बरसात के चार महीने बिताकर पिताजी के वचन का पालन करता हूँ। फिर भी, मैं फिर से उनसे मिलने जाता हूँ और उन्हें देखकर आत्म-संरक्षण का साधन करता हूँ।"
चौपाई
बचन बिनीत मधुर रघुबर के। सर सम लगे मातु उर करके।।
सहमि सूखि सुनि सीतलि बानी। जिमि जवास परें पावस पानी।।
कहि न जाइ कछु हृदय बिषादू। मनहुँ मृगी सुनि केहरि नादू।।
नयन सजल तन थर थर काँपी। माजहि खाइ मीन जनु मापी।।
धरि धीरजु सुत बदनु निहारी। गदगद बचन कहति महतारी।।
तात पितहि तुम्ह प्रानपिआरे। देखि मुदित नित चरित तुम्हारे।।
राजु देन कहुँ सुभ दिन साधा। कहेउ जान बन केहिं अपराधा।।
तात सुनावहु मोहि निदानू। को दिनकर कुल भयउ कृसानू।।
इस चौपाई में, भक्त श्रीराम की माता कौसल्या द्वारा श्रीराम चंद्रजी से निवेदन किया जा रहा है:"तुम्हारे बिना बचन मेरे लिए मधुर हैं, मैंने तुम्हें अपने सिर पर रखा है। सीता माता ने भी तुम्हारे बिना बचन सुनकर बहुत आनंदित होकर कहा है, जैसे कि वृष्टि के समय जल से नहाकर शीतल होता है। मैं कभी भी तुम्हारे बिना हृदय में दुःखी नहीं होता, जैसे कि मृगी नाद को सुनकर विचलित नहीं होती। मेरे नयन सजल हो जाते हैं और मेरे तन कांप उठता है, जैसे कि माता जी की ममता से ताजगी मिलती है। धीरज धारण करके मैंने अपने पुत्र को देखा है, जिसने अपने बचनों के साथ महाराजा के रूप में रजती है। वह बातें जो तुमने दी हैं, मेरे लिए सुखद हैं। तुम मेरे प्राणप्रिय हो, जो नित्य तुम्हारे चरित्र को प्रसन्नता से सुनता हूँ। महाराजा श्रीराम, मैं तुम्हें शुभ दिन कहता हूँ, मैं तुम्हारे द्वारा किए गए किसी भी अपराध को माफ करने का इच्छुक हूँ। मेरे पुत्र, मुझे सुनाओ, तुम्हारी निवृत्ति का कारण।"
दोहा-
निरखि राम रुख सचिवसुत कारनु कहेउ बुझाइ।
सुनि प्रसंगु रहि मूक जिमि दसा बरनि नहिं जाइ।।54।।
इस दोहे का अर्थ है:
"रामचंद्रजी को देखते हुए सीता माता ने अपने सचिव के सुत के साथ किए जाने वाले कारण को समझाते हुए कहा, लेकिन उस प्रसंग को सुनकर सचिव की संबंधित दशा जैसी थी, वैसी बयान करने में वह मौन रही, जिस प्रकार की दशा को देखकर कोई भी शब्द नहीं कहता।"चौपाई
राखि न सकइ न कहि सक जाहू। दुहूँ भाँति उर दारुन दाहू।।
लिखत सुधाकर गा लिखि राहू। बिधि गति बाम सदा सब काहू।।
धरम सनेह उभयँ मति घेरी। भइ गति साँप छुछुंदरि केरी।।
राखउँ सुतहि करउँ अनुरोधू। धरमु जाइ अरु बंधु बिरोधू।।
कहउँ जान बन तौ बड़ि हानी। संकट सोच बिबस भइ रानी।।
बहुरि समुझि तिय धरमु सयानी। रामु भरतु दोउ सुत सम जानी।।
सरल सुभाउ राम महतारी। बोली बचन धीर धरि भारी।।
तात जाउँ बलि कीन्हेहु नीका। पितु आयसु सब धरमक टीका।।
इस चौपाई में, माता कौसल्या रानी श्रीराम चंद्र जी से विवाद और दुख भरे संदेश को लेकर उनसे बातचीत कर रही हैं:"मैं तुम्हें संरक्षण करने में सक्षम नहीं हूँ और न तुम्हें दुःख देने में सक्षम हूँ। मैं तुम्हारे साथ दुःख भागी हूँ, जैसे सुधा कविता को सुनकर भागती है, या गायक गाना गाता है। मैं तुम्हें पत्र लिखकर या गाना गाकर धरती पर छोड़ने का प्रयास करती हूँ, परन्तु तुम्हारे बिना यह कुछ भी सम्भव नहीं है। मैंने धर्म और सन्मान का सहारा लेकर तुम्हें पुकारा है, लेकिन मेरी कोशिशें साँप और छुचुंदर की तरह विफल रह गई हैं। मेरा बेटा, मैं तुमसे विनती करती हूँ कि तुम मुझसे संपर्क बनाए रखो, और तुम्हारा बंधुभाव बरकरार रहे। मैं तुम्हें अपना दुःख बता रही हूँ, इसे सोचकर तुम्हें अपना दुख भी बताना चाहिए। कृपया मेरी बातों को समझो और धर्म से परिपूर्ण होकर तुम्हें बुराई से बचाने का सारा समर्थन करो।"
दोहा-
राजु देन कहि दीन्ह बनु मोहि न सो दुख लेसु।
तुम्ह बिनु भरतहि भूपतिहि प्रजहि प्रचंड कलेसु।।55।।
इस दोहे में, माता कौसल्या रानी श्रीराम चंद्र जी से कह रही हैं:"राजा दशरथ ने भी दुख के साथ मुझे सद्गति देने का प्रयास किया, लेकिन तुम्हारे बिना राजा भरत भूपति द्वारा प्रजा के बीच में अधिक कठिनाईयों का सामना कर रहा है।"
चौपाई
जौं केवल पितु आयसु ताता। तौ जनि जाहु जानि बड़ि माता।।
जौं पितु मातु कहेउ बन जाना। तौं कानन सत अवध समाना।।
पितु बनदेव मातु बनदेवी। खग मृग चरन सरोरुह सेवी।।
अंतहुँ उचित नृपहि बनबासू। बय बिलोकि हियँ होइ हराँसू।।
बड़भागी बनु अवध अभागी। जो रघुबंसतिलक तुम्ह त्यागी।।
जौं सुत कहौ संग मोहि लेहू। तुम्हरे हृदयँ होइ संदेहू।।
पूत परम प्रिय तुम्ह सबही के। प्रान प्रान के जीवन जी के।।
ते तुम्ह कहहु मातु बन जाऊँ। मैं सुनि बचन बैठि पछिताऊँ।।
इस चौपाई में, माता कौसल्या रानी श्रीराम चंद्र जी से अपने पति दशरथ जी को संबोधित करती हैं:"जब तुम केवल पिता की साधना करते हो, तो मैं जानती हूं कि तुम मेरे पति के बारे में भी बड़े महत्वपूर्ण हो। जब तुम पिता और माता को बनते हो, तो तुम्हारी उपस्थिति अयोध्या के समान है। तुम्हारे पिता देवता हैं और तुम मेरी देवी हो। तुम उनके साथ वनवास का समर्थन करना उचित है, और तुम्हें उन्हें देखना चाहिए, ताकि उनका हृदय हर्षित हो। तुम अवध की भूषण हो, जिसने श्रीराम चंद्र जी को त्याग दिया है। तुम बहुत भाग्यशाली हो, जो अवध की रानी हो, जबकि मैं भाग्यहीन हूं क्योंकि मैंने रघुकुलतिलक श्रीराम चंद्र जी को त्यागा है। अगर तुम मुझसे कहती हो कि मैं तुम्हारी सहायिका बनूं, तो मैं तुम्हारे बचनों को सुनकर पछताती हूं।"
दोहा-
यह बिचारि नहिं करउँ हठ झूठ सनेहु बढ़ाइ।
मानि मातु कर नात बलि सुरति बिसरि जनि जाइ।।56।।
इस दोहे में, माता कौसल्या रानी श्रीराम चंद्र जी से कह रही हैं:"इस बारे में विचार करके मैं जिद और झूठे सन्देह को बढ़ाने का नहीं करती हूं। मैं आपके माता होने पर गर्व करती हूं और अपने पुत्रों की सुरति में रत हूं, इसलिए मैं नहीं चाहती कि मैं आपके पति की साधना करूँ और उन्हें भूल जाऊँ।"
चौपाई
देव पितर सब तुन्हहि गोसाई। राखहुँ पलक नयन की नाई।।
अवधि अंबु प्रिय परिजन मीना। तुम्ह करुनाकर धरम धुरीना।।
अस बिचारि सोइ करहु उपाई। सबहि जिअत जेहिं भेंटेहु आई।।
जाहु सुखेन बनहि बलि जाऊँ। करि अनाथ जन परिजन गाऊँ।।
सब कर आजु सुकृत फल बीता। भयउ कराल कालु बिपरीता।।
बहुबिधि बिलपि चरन लपटानी। परम अभागिनि आपुहि जानी।।
दारुन दुसह दाहु उर ब्यापा। बरनि न जाहिं बिलाप कलापा।।
राम उठाइ मातु उर लाई। कहि मृदु बचन बहुरि समुझाई।।
इस चौपाई में, माता कौसल्या रानी श्रीराम चंद्र जी से कह रही हैं: "ओ देवपुत्र श्रीराम, तुम्हें सभी देवताओं और पितृगणों की पूजा का हक है। मेरी आँखों की पलकें नीली हो गई हैं तुम्हें देखकर। अवधीपति, मेरी प्रिय, बच्चों के सम्मुख तुम्हारी सूरत मुस्कान बनी रहे, यही मेरी कामना है। अवधि के अम्बर में जन्में हुए अपने परिजनों के साथ तुम करुणा करने वाले हो, इसलिए मैं तुमसे धर्म राजा की प्राप्ति की प्रार्थना करती हूं। इस बिचार से सही उपाय चुनो, जिससे सभी जीवन्त प्राणियों का भला हो। जिस भेंट से सुख हो, उसे करो, और सभी पर अनुकूल रहो। जहाँ सुख से बढ़कर बलि देने की आवश्यकता हो, वहाँ चलो और बलि दो। मैं सभी अनाथ जनों के साथ सुख से जीवन बिताऊंगी और उन्हें नाचने के लिए बुलाऊंगी। सभी कर्मों को सुकृति के फल से ही बीताओ, जिससे भयंकर काल का सामना करना पड़े। विभिन्न रूपों में दुःखपूर्ण शिकार होती है, इसलिए सभी दुःखों को सहने की क्षमता दो। यह दुसहा दाह बड़ा हो रहा है, इसलिए कहो और राजा राम चंद्र जी को उठाओ और मेरे दुख को दूर करो। आपका धर्म यही है कि आप उनसे अपनी प्राणों की बलि दो, इससे कुछ नुकसान नहीं होगा।"दोहा-
समाचार तेहि समय सुनि सीय उठी अकुलाइ।
जाइ सासु पद कमल जुग बंदि बैठि सिरु नाइ।।57।।
इस दोहे में कौसल्या रानी श्रीराम चंद्र जी से कह रही हैं:"समाचार सुनकर सीता जी ने अचंभित होकर अपने बेटे को उठते हुए देखा, उनकी उपस्थिति में सीता ने अपने पादों को उठाकर अपनी बाहों में बंध लिया और सिर को नम्रता से झुका लिया।"
चौपाई
दीन्हि असीस सासु मृदु बानी। अति सुकुमारि देखि अकुलानी।।
बैठि नमितमुख सोचति सीता। रूप रासि पति प्रेम पुनीता।।
चलन चहत बन जीवननाथू। केहि सुकृती सन होइहि साथू।।
की तनु प्रान कि केवल प्राना। बिधि करतबु कछु जाइ न जाना।।
चारु चरन नख लेखति धरनी। नूपुर मुखर मधुर कबि बरनी।।
मनहुँ प्रेम बस बिनती करहीं। हमहि सीय पद जनि परिहरहीं।।
मंजु बिलोचन मोचति बारी। बोली देखि राम महतारी।।
तात सुनहु सिय अति सुकुमारी। सासु ससुर परिजनहि पिआरी।।
इस चौपाई में, कौसल्या रानी श्रीराम चंद्र जी से कह रही हैं:"अपनी अशीर्वाद से सासु (कैकेयी) ने बहुत ही मृदु भाषा में कहा, सुकुमारी सीता को देखकर उनका हृदय बहुत अकुलित हो गया। सीता जी ने नम्रता भरे स्वर में बैठी हुई हैं और रूप, पति का प्रेम, और पवित्रता से सजीवन नाथ श्रीराम का ध्यान कर रही हैं। सीता जी चाहती हैं कि वे अपने पति के साथ चलें, और वह कुछ सुकृतियाँ अपनी ओर से कर सकें। उन्हें चारु चरण और नख देखकर धरती को भी सुखद महसूस हो रहा है, और उनके मुखर कविता में सुनहरे शब्द हैं। सीता जी अपने प्रेम और भक्ति के साथ प्रेम भरी बिनती कर रही हैं और कह रही हैं कि उनकी आँखों के सम्मुख राम चंद्र जी का पद केवल जीवन हैं, और उनकी सीया हृदय की जीवनधारा हैं।"
दोहा-
पिता जनक भूपाल मनि ससुर भानुकुल भानु।
पति रबिकुल कैरव बिपिन बिधु गुन रूप निधानु।।58।।
इस दोहे में, सीता जी पिता जनक, भूपाल, माता सुनैहु भानुकुल, और पतिव्रता रूप में श्रीराम चंद्र जी का वर्णन कर रही हैं। इसमें सीता जी अपने पति, ससुर, और पिता को सर्वोत्तम और गुणवान मानती हैं। उन्हें अपने पति का रूप, जो सूर्य जैसा तेज है, और ससुर जनक को भी चार ओर से भानु समान गुणवत्ता के साथ वर्णित कर रही हैं। इस से प्रकट होता है कि सीता जी ने अपने परिवार के सभी सदस्यों का सम्मान करते हुए उन्हें अपने मन में सर्वोच्च स्थान दिया है।चौपाई
मैं पुनि पुत्रबधू प्रिय पाई। रूप रासि गुन सील सुहाई।।
नयन पुतरि करि प्रीति बढ़ाई। राखेउँ प्रान जानिकिहिं लाई।।
कलपबेलि जिमि बहुबिधि लाली। सींचि सनेह सलिल प्रतिपाली।।
फूलत फलत भयउ बिधि बामा। जानि न जाइ काह परिनामा।।
पलँग पीठ तजि गोद हिंड़ोरा। सियँ न दीन्ह पगु अवनि कठोरा।।
जिअनमूरि जिमि जोगवत रहऊँ। दीप बाति नहिं टारन कहऊँ।।
सोइ सिय चलन चहति बन साथा। आयसु काह होइ रघुनाथा।
चंद किरन रस रसिक चकोरी। रबि रुख नयन सकइ किमि जोरी।।
इस चौपाई में, सीता जी अपनी पुनर्मिलन से पुत्रबधू बनने का सुख व्यक्त कर रही हैं। वह अपने सौंदर्य, गुण, सील, और प्रेम से भरी हुई हैं और उनके नयनों में अपने पुत्र के प्रति प्रीति बढ़ती जा रही है। सीता जी यहाँ प्रतिबद्ध हो गई हैं कि वह अपने पुत्र को अपने प्राण से प्रिय रखेंगी और उसकी पालना-पोषण करेंगी। इसके साथ ही, उन्होंने अपने पुत्र को कोई आसन नहीं दिया और उसे कठोर ब्रज की भूमि पर पैदल चलने के लिए तैयार किया है। सीता जी का आदर्श और प्रेमपूर्ण भाव इस चौपाई में प्रकट होता है।दोहा-
-करि केहरि निसिचर चरहिं दुष्ट जंतु बन भूरि।
बिष बाटिकाँ कि सोह सुत सुभग सजीवनि मूरि।।59।।
यह दोहा कहता है कि बुरे लोग जैसे जंगल में दुष्ट जानवर चरते हैं, उसी तरह वे भी इस संसार में घूमते रहते हैं। वे जैसे सर्प के काटने से विष निकलता है, उसी तरह वे लोग हमारे जीवन से सुख और सजीवन की शक्ति छीन लेते हैं।चौपाई
बन हित कोल किरात किसोरी। रचीं बिरंचि बिषय सुख भोरी।।
पाइन कृमि जिमि कठिन सुभाऊ। तिन्हहि कलेसु न कानन काऊ।।
कै तापस तिय कानन जोगू। जिन्ह तप हेतु तजा सब भोगू।।
सिय बन बसिहि तात केहि भाँती। चित्रलिखित कपि देखि डेराती।।
सुरसर सुभग बनज बन चारी। डाबर जोगु कि हंसकुमारी।।
अस बिचारि जस आयसु होई। मैं सिख देउँ जानकिहि सोई।।
जौं सिय भवन रहै कह अंबा। मोहि कहँ होइ बहुत अवलंबा।।
सुनि रघुबीर मातु प्रिय बानी। सील सनेह सुधाँ जनु सानी।।
यह चौपाई तुलसीदास जी के रामचरितमानस से है। इसमें सीता माता के बारे में कहा गया है।सीताजी, जो वन में बाग की तरह सुंदर थीं, वे ब्रह्माजी ने सृष्टि के सुखों को उनके लिए बगाई थीं। जैसे कीड़े और जंगल की चट्टानों को पाकर भी वे सभी कठिनाइयों को सह सकती थीं, वैसे ही हर प्रकार के कष्टों को भी सह सकती थीं। जैसे तपस्वियों ने जंगल में अपने तप के लिए सभी भोगों को त्याग दिया, वैसे ही सीताजी भी राम के लिए हर प्रकार की आसक्तियों को छोड़ दिया करती थीं। जैसे हंस कुमारी नदी के बांध में रहती है, वैसे ही सीताजी भी राम के निकट अपनी भावना में रहती थीं। जैसे जो होता है, वैसे ही सीताजी भी अपनी भावना में रहतीं थीं, यह तो मैं आपको समझा सकता हूँ। कहती हैं, "अंबा, अब मुझे बहुत अवलंबना हो गया है।" रघुवीर (राम) ने माता को सुना, वो जानते थे कि माता की यह बात बहुत प्रिय है। वो सील, स्नेह, और प्रेम के संदेशों को अच्छी तरह समझते थे।
दोहा-
कहि प्रिय बचन बिबेकमय कीन्हि मातु परितोष।
लगे प्रबोधन जानकिहि प्रगटि बिपिन गुन दोष।।60।।
इस दोहे में कहा गया है कि विवेकपूर्ण बातों को समझकर प्रियजन को खुश किया जा सकता है, परन्तु अगर कोई गलती दोष को समझने की बजाय सिर्फ गुणों में ही ध्यान दे, तो संज्ञान में आने वाली ज्ञान की प्रकटि होती है।
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