अयोध्या काण्ड अर्थ सहित

अयोध्या काण्ड अर्थ सहित Ayodhya incident with meaning

मासपारायण, सोलहवाँ विश्राम

चौपाई
सखा समुझि अस परिहरि मोहु। सिय रघुबीर चरन रत होहू।।
कहत राम गुन भा भिनुसारा। जागे जग मंगल सुखदारा।।
सकल सोच करि राम नहावा। सुचि सुजान बट छीर मगावा।।
अनुज सहित सिर जटा बनाए। देखि सुमंत्र नयन जल छाए।।
हृदयँ दाहु अति बदन मलीना। कह कर जोरि बचन अति दीना।।
नाथ कहेउ अस कोसलनाथा। लै रथु जाहु राम कें साथा।।
बनु देखाइ सुरसरि अन्हवाई। आनेहु फेरि बेगि दोउ भाई।।
लखनु रामु सिय आनेहु फेरी। संसय सकल सँकोच निबेरी।।
यहाँ दिए गए चौपाई तुलसीदासजी के रचित 'रामचरितमानस' से लिए गए हैं। इन चौपाइयों का अर्थ है:
सखा समझकर इस मोह को त्याग दो, हे रघुवीर (राम)! आपके चरणों में रत रहने की इच्छा हो। रामजी के गुणों का वर्णन करके सब जगह मंगल और सुखदायक होता है। समस्त विचारों को छोड़कर रामचंद्रजी के नाम का ध्यान करो, शुद्ध बुद्धि से उनके चरणों को धोयो और चाटो। अपने छोटे भाई लक्ष्मण के साथ मुखुट और जटा बाँधकर रामचंद्रजी के दर्शन के लिए जाना। सुमंत्र जी ने देखा, उनकी आँखों में आंसू थे। दिल बहुत जल रहा था, शरीर गंदा था। बहुत दीन भाव से बोलते हुए बोले। "हे कोसलनाथ! आप सिर पर जटा बाँध कर रथ पर बैठकर रामजी के साथ चलिए।" वन में सुनसान दिखाई दे रहा था, बहन और भाई जल्दी आने की आशंका करते हुए दोनों चले गए। लक्ष्मण और सीता रामचंद्रजी को देखकर फिर वापस आए। सभी संदेह और संकोच दूर हो गए

दोहा-
नृप अस कहेउ गोसाईँ जस कहइ करौं बलि सोइ।
करि बिनती पायन्ह परेउ दीन्ह बाल जिमि रोइ।।94।।
यह दोहा तुलसीदासजी के 'रामचरितमानस' से है। इसका अर्थ है:
"जैसे गोसाईं (भगवान) कहते हैं, वैसे ही राजा को कहना चाहिए। वह दीन बच्चा जैसे रोता है, मैं उस प्रकार बलि चढ़ाना चाहूँगा, बिनती करके पैर पकड़कर मुझे उसके बलिदान की अनुमति देना।"
चौपाई
तात कृपा करि कीजिअ सोई। जातें अवध अनाथ न होई।।
मंत्रहि राम उठाइ प्रबोधा। तात धरम मतु तुम्ह सबु सोधा।।
सिबि दधीचि हरिचंद नरेसा। सहे धरम हित कोटि कलेसा।।
रंतिदेव बलि भूप सुजाना। धरमु धरेउ सहि संकट नाना।।
धरमु न दूसर सत्य समाना। आगम निगम पुरान बखाना।।
मैं सोइ धरमु सुलभ करि पावा। तजें तिहूँ पुर अपजसु छावा।।
संभावित कहुँ अपजस लाहू। मरन कोटि सम दारुन दाहू।।
तुम्ह सन तात बहुत का कहऊँ। दिएँ उतरु फिरि पातकु लहऊँ।।
यह चौपाई तुलसीदासजी के श्रीरामचरितमानस से ली गई है। इसका अर्थ है:
"हे पिता (भगवान विश्वामित्र से बोलते हुए श्रीराम)! कृपा करके वही कार्य कीजिए, जिससे अयोध्या अविनाशी और अनाथ न हो। मंत्रों से आपने राम को जगाया, हे पिताजी! धर्म की वस्तु आप ही हो, आप ही सबको समझाते हैं। हरिचंद और दधीचि नरेश (सर्वधर्मनाथ), वे सही धर्म में सहित हजारों कष्टों को सह सके। रंतिदेव, बलि और राजा सुजाना, धर्म की प्राप्ति के लिए उन्होंने अनेक प्रकार के संकट भी सहा। कोई भी धर्म और सत्य के समान नहीं होता, वे सब आगम, निगम और पुराणों में बताए गए हैं। मैं सो धर्म ही हूँ, जिससे सुलभता से पाया जा सकता है, और तीनों पुरुषार्थों (धर्म, अर्थ, काम) की आपस में विरोधी छाया छोड़ दी जा सकती है। अपजस का लहू समझा जाता है, मरने का दुख लाखों बार दुखदायी होता है। हे पिताजी! आपके समक्ष बहुत कुछ कहूँ, पापों को छोड़ फिर से उतरें और पातकों को हर लें।"
दोहा-
पितु पद गहि कहि कोटि नति बिनय करब कर जोरि।
चिंता कवनिहु बात कै तात करिअ जनि मोरि।।95।।
यह दोहा तुलसीदासजी के 'रामचरितमानस' से है। इसका अर्थ है:
"हे पिताजी, पादुका को पकड़कर कोटि-कोटि बार नमस्कार करता हूँ, बिना विनती करते हुए मैं आपसे जोर नहीं लगा सकता। कैसी बात है जिससे आपकी चिंता हो, हे पिताजी! मुझे बताइए और जानने दीजिए।"
चौपाई
तुम्ह पुनि पितु सम अति हित मोरें। बिनती करउँ तात कर जोरें।।
सब बिधि सोइ करतब्य तुम्हारें। दुख न पाव पितु सोच हमारें।।
सुनि रघुनाथ सचिव संबादू। भयउ सपरिजन बिकल निषादू।।
पुनि कछु लखन कही कटु बानी। प्रभु बरजे बड़ अनुचित जानी।।
सकुचि राम निज सपथ देवाई। लखन सँदेसु कहिअ जनि जाई।।
कह सुमंत्रु पुनि भूप सँदेसू। सहि न सकिहि सिय बिपिन कलेसू।।
जेहि बिधि अवध आव फिरि सीया। सोइ रघुबरहि तुम्हहि करनीया।।
नतरु निपट अवलंब बिहीना। मैं न जिअब जिमि जल बिनु मीना।।
यह चौपाई तुलसीदासजी के 'रामचरितमानस' से ली गई है। इसका अर्थ है:
"हे प्रभु राम! आप मुझे पुनः पिता जैसे अत्यंत हितकर हों। मैं बिनती करता हूँ, कृपा करके अपना बल दिखाइए। सभी विधियों को आपकी ही प्रेरणा से ही करना चाहिए। हे पिताजी! मैं अपने दुःख को सोचकर आपका चिंतन नहीं करूँगा। रामजी ने सुना, सचिव के सन्देश को सुनकर सभी परिजनों को भय हुआ। फिर लक्ष्मण ने कुछ कठोर बातें कहीं। प्रभु ने उनको ठुकरा दिया, क्योंकि उनकी बात अनुचित थी। रामजी ने सुचि से अपनी प्रतिज्ञा को दिखाई। लक्ष्मण को संदेश देने को कहा। सुमंत्र ने फिर भूप को संदेश भेजा, लेकिन सीता के बिना वन में रहने की कठिनाई से समझाया। जैसे मीना बिना पानी के रह नहीं सकती, वैसे ही मैं बिना आपके सहारे अवलंब रहूँगा नहीं।"
दोहा-
मइकें ससरें सकल सुख जबहिं जहाँ मनु मान।।
तँह तब रहिहि सुखेन सिय जब लगि बिपति बिहान।।96।।
यह दोहा तुलसीदासजी के 'रामचरितमानस' से है। इसका अर्थ है:
"जहां मनुष्य अपनी पत्नी, संगिनी और सब सुखों के साथ खुश रहता है, उस समय वह सुखी रहता है। लेकिन वह सुख तभी असली सुखी होता है जब सीता के बिना विपत्ति का सामना करता है।"
चौपाई
बिनती भूप कीन्ह जेहि भाँती। आरति प्रीति न सो कहि जाती।।
पितु सँदेसु सुनि कृपानिधाना। सियहि दीन्ह सिख कोटि बिधाना।।
सासु ससुर गुर प्रिय परिवारू। फिरतु त सब कर मिटै खभारू।।
सुनि पति बचन कहति बैदेही। सुनहु प्रानपति परम सनेही।।
प्रभु करुनामय परम बिबेकी। तनु तजि रहति छाँह किमि छेंकी।।
प्रभा जाइ कहँ भानु बिहाई। कहँ चंद्रिका चंदु तजि जाई।।
पतिहि प्रेममय बिनय सुनाई। कहति सचिव सन गिरा सुहाई।।
तुम्ह पितु ससुर सरिस हितकारी। उतरु देउँ फिरि अनुचित भारी।।
यह चौपाई तुलसीदासजी के 'रामचरितमानस' से है। इसका अर्थ है:
"जिस तरह से राजा ने विनती की, उसी तरह से भक्ति और प्रेम दिखाने की आरती भी नहीं कही जा सकती। पिताजी ने सुनकर श्रीरामचंद्रजी ने सीताजी को दीन शिष्य को अनेक प्रकार के बोधन किए। सास, ससुर, गुरु और परिवार के प्रियजनों के साथ फिर भी सबको त्यागकर उन्होंने सब कुछ छोड़ दिया। सुनकर पति के वचन, सीता ने बैदेही से कहा, 'हे प्राणपति, परम सनेही! सुनिए।' प्रभु रामचंद्रजी, करुणामय और परम बुद्धिमान, अपने शरीर को छोड़कर छाया में बने रहते हैं। सूर्य कहाँ जाता है जब उसकी प्रभा छाई जाती है? चंद्रमा कहाँ जाता है जब उसका चंदनी छोड़ दिया जाता है? पति को भक्ति और प्रेम से विनती करती हुई, बैदेही ने सचिव से कहा, जिससे वह भगवान के वचन सुनाने में सुख पा सकती थी। हे पिताजी! जो सबका हित करने वाले हैं, आप भारी और अनुचित भार उतार दीजिए।"
दोहा-
आरति बस सनमुख भइउँ बिलगु न मानब तात।
आरजसुत पद कमल बिनु बादि जहाँ लगि नात।।97।।
ह दोहा तुलसीदासजी के 'रामचरितमानस' से है। इसका अर्थ है:
"हे पिताजी! जैसे स्वामी के सम्मुख अरति बैठ गई है, वैसे ही मेरा मानना नहीं हो रहा। मेरे प्राणनाथ श्रीरामचंद्रजी के पादकमल के बिना किसी संबंध में आर्ति कोई मान्यता नहीं होती।"
चौपाई
पितु बैभव बिलास मैं डीठा। नृप मनि मुकुट मिलित पद पीठा।।
सुखनिधान अस पितु गृह मोरें। पिय बिहीन मन भाव न भोरें।।
ससुर चक्कवइ कोसलराऊ। भुवन चारिदस प्रगट प्रभाऊ।।
आगें होइ जेहि सुरपति लेई। अरध सिंघासन आसनु देई।।
ससुरु एतादृस अवध निवासू। प्रिय परिवारु मातु सम सासू।।
बिनु रघुपति पद पदुम परागा। मोहि केउ सपनेहुँ सुखद न लागा।।
अगम पंथ बनभूमि पहारा। करि केहरि सर सरित अपारा।।
कोल किरात कुरंग बिहंगा। मोहि सब सुखद प्रानपति संगा।।
यह चौपाई तुलसीदासजी के 'रामचरितमानस' से है। इसका अर्थ है:
"मैंने अपने पिताजी के वैभव और भोगों को देखा है, राजा के माणिक और मुकुट से भरी हुई पीठ। सुख की खजानी मेरे पिताजी के घर में है, लेकिन बिना पत्नी के मन में कोई भावना नहीं होती। मेरे ससुर ने कोसलराज को चक्रवर्ती बनाया, और वे सभी चारों धरती पर प्रगट हो गए। जहाँ से सूर्यपति स्वर्गलोक को जाते हैं, वहाँ उन्होंने अर्घ्य और आसन दिये। मेरे ससुर ऐसे ही अवध में निवास करते हैं, मेरा प्रिय परिवार माता के समान है। राघवपति के पादपद्म के बिना, मुझे कोई सुखद सपना भी नहीं लगता। वहाँ है अगम राजपथ और बन्धुगीतिका यहाँ है, जहाँ हैं सागर और सरिता अपारा। वहाँ हैं कोल और किरात, कुरंग और बिहंग, सभी सुख मुझे प्राणपति के संग में हैं।"
दोहा-
सासु ससुर सन मोरि हुँति बिनय करबि परि पायँ।।
मोर सोचु जनि करिअ कछु मैं बन सुखी सुभायँ।।98।।
सास-ससुर से मैं हमेशा विनयपूर्वक बात करता हूँ और उनकी सेवा करता हूँ। मैं उनके सोचने पर ध्यान देता हूँ और कुछ कार्य करता हूँ, जिससे मैं खुश और सुखी हो सकूँ।
चौपाई
प्राननाथ प्रिय देवर साथा। बीर धुरीन धरें धनु भाथा।।
नहिं मग श्रमु भ्रमु दुख मन मोरें। मोहि लगि सोचु करिअ जनि भोरें।।
सुनि सुमंत्रु सिय सीतलि बानी। भयउ बिकल जनु फनि मनि हानी।।
नयन सूझ नहिं सुनइ न काना। कहि न सकइ कछु अति अकुलाना।।
राम प्रबोधु कीन्ह बहु भाँति। तदपि होति नहिं सीतलि छाती।।
जतन अनेक साथ हित कीन्हे। उचित उतर रघुनंदन दीन्हे।।
मेटि जाइ नहिं राम रजाई। कठिन करम गति कछु न बसाई।।
राम लखन सिय पद सिरु नाई। फिरेउ बनिक जिमि मूर गवाँई।।
इस चौपाई में कहा गया है कि:

"प्राणनाथ राम, प्रिय भाई लक्ष्मण के साथ धनुष और बाण ढोते हैं। मुझे अपने मन के दुःखों, श्रम, और भ्रम से निवृत्त करने के लिए सोचना चाहिए। सुनकर सुमंत्र जी ने सीता के बात सुनी, जिससे भयभीत लोगों को हानि हुई। मेरे नयन समझ नहीं रहे, कान नहीं सुन रहे हैं। मैं कुछ भी अधिक नहीं कह सकता। राम ने अनेक तरीकों से सीता को प्रबोधित करने का प्रयास किया, लेकिन उसका मन नहीं भरा। उन्होंने अनेक प्रयत्न किए जो सबके हित में थे, लेकिन उन्हें सही समाधान नहीं मिला। राम, लक्ष्मण, और सीता ने सर पर पादुका रखी, और वे जंगल में चले गए, जैसे मूर्ख गवां बनिक चले जाते हैं।"
दोहा-
रथ हाँकेउ हय राम तन हेरि हेरि हिहिनाहिं।
देखि निषाद बिषादबस धुनहिं सीस पछिताहिं।।99।।
यह दोहा तुलसीदासजी के 'रामचरितमानस' से है। इसका अर्थ है:
"रथ को खींचते हुए हे राम! तुम्हें बार-बार देखता हूँ, लेकिन तुम्हारी दृष्टि नहीं पड़ती। निषादराज को देखकर बिषाद में रहकर वे सीसे पीछे मुड़ते हैं।"
चौपाई
जासु बियोग बिकल पसु ऐसे। प्रजा मातु पितु जिइहहिं कैसें।।
बरबस राम सुमंत्रु पठाए। सुरसरि तीर आपु तब आए।।
मागी नाव न केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना।।
चरन कमल रज कहुँ सबु कहई। मानुष करनि मूरि कछु अहई।।
छुअत सिला भइ नारि सुहाई। पाहन तें न काठ कठिनाई।।
तरनिउ मुनि घरिनि होइ जाई। बाट परइ मोरि नाव उड़ाई।।
एहिं प्रतिपालउँ सबु परिवारू। नहिं जानउँ कछु अउर कबारू।।
जौ प्रभु पार अवसि गा चहहू। मोहि पद पदुम पखारन कहहू।।
इस चौपाई में कहा गया है:
"जिस प्रकार वियोग में पशु ऐसे दुःखी होते हैं, वैसे ही जन्म-मरण के बीच प्रजा माता और पिता कैसे रह सकते हैं? राम ने सुमंत्र को बार-बार पठाया, और उन्होंने तब समुद्र तीर आप आए। मैंने नाव केवट को मंगी, लेकिन उन्होंने मुझसे कहा, 'मैं तुम्हारे मन की बात जानता हूँ।' मैंने उनके पाद कमलों का रज कहा, जो कि सब कुछ कह रहे थे, लेकिन मानव रूप में कुछ अलग था। जब मैंने पत्थर को छुआ, वह नारी बन गई, और उसने वाहन को कठिनाई नहीं दी। मैंने उससे निवास को मांगा, मुनि के घर में घुस गया, लेकिन नाव बार-बार उड़ जाती थी। मैं उनको और परिवार को संरक्षण करता रहता हूँ, अन्य किसी चीज का ज्ञान नहीं होता। अगर प्रभु जहाँ हैं, वहाँ सब सुखी होते हैं, मैं उनके पादों को छूने की कोशिश करता रहता हूँ।"
छंद- 
पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं।
मोहि राम राउरि आन दसरथ सपथ सब साची कहौं।।
बरु तीर मारहुँ लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं।
तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारु उतारिहौं।।
यह छंद तुलसीदासजी के द्वारा रचित है। इसमें उन्होंने कहा है कि:
"पद्मराग को धोकर, नाथ को नाव पर चढ़ाने और उतारने में कोई सहायता नहीं मिली। मुझे लगता है कि रामचंद्रजी की शपथ सब सच्ची हैं, और जब तक उन्होंने स्वीकार नहीं किया, मैं तीर नहीं चला सकता। जब तक लक्ष्मण जी तीर मार नहीं सकते, मैं नदी को नहीं पार कर सकता, इसलिए मैं तुलसीदास नाथ की कृपा से पार हो सकता हूँ।"
सोरठा-
सुनि केबट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे।
बिहसे करुनाऐन चितइ जानकी लखन तन।।100।।
यह सोरठा तुलसीदासजी के 'रामचरितमानस' से है। इसका अर्थ है:
"केवट की बातें सुनकर वह प्रेम से उत्तेजित और आश्चर्यमय हो रहे थे। लक्ष्मण ने सीता की करुणामयी वाणी सुनकर उसकी ओर मुस्कान के साथ देखा।"
चौपाई -
कृपासिंधु बोले मुसुकाई, सोइ करु जेंहि तव नाव न जाई ||
वेगि आनु जल पाय पखारू, होत बिलंबु उतारहि पारू ||१||
जासु नाम सुमरत एक बारा, उतरहिं नर भवसिंधु अपारा ||
सोइ कृपालु केवटहि निहोरा, जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा ||२||
पद नख निरखि देवसरि हरषी, सुनि प्रभु बचन मोहँ मति करषी ||
केवट राम रजायसु पावा, पानि कठवता भरि लेइ आवा ||३||
अति आनंद उमगि अनुरागा, चरन सरोज पखारन लागा ||
बरषि सुमन सुर सकल सिहाहीं, एहि सम पुन्यपुंज कोउ नाहीं ||४||
ये चौपाई तुलसीदासजी के 'रामचरितमानस' से हैं। इसका अर्थ है:

"कृपासिंधु ने मुस्काते हुए कहा, 'मैं वह काम करूँगा, जिससे तेरी नाव पार न जाए। तुम जल में अग्रसर हो जाओ, मैं तुरंत ही आकर तुम्हें पार कर दूंगा। जिसका नाम सिर्फ एक बार स्मरण करते ही मनुष्य असीम संसार सागर से उतर जाता है। वह कृपालु राम ही है, जिन्होंने जिस प्रकार के कार्य किए, उनके पाद भी सोने से कम नहीं हैं। उसने अपने पादों और नाखूनों को देखकर देवताओं ने हर्षित होकर उनके शब्द सुने। केवट ने रामचंद्रजी की भक्ति की और पानी के भरे जगह से आकर रामचंद्रजी को पाया। उसके मन में अत्यंत आनंद और भावना उमड़ आई, और उसने उनके पादों को प्रक्षालित करना शुरू कर दिया। जिसके द्वारा देवताओं की वाहिनी सजी हुई, वह पुण्यों का समुदाय कोई भी नहीं है।"
दोहा-
पद पखारि जलु पान करि आपु सहित परिवार,
पितर पारु करि प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार ||101 ||
यह दोहा श्री तुलसीदासजी के 'रामचरितमानस' से है। इसका अर्थ है:
"पदों को प्रक्षालित करके जल से पान करके, स्वयं सहित अपने परिवार को सहित पार करके, पितृलोक में जाकर पुनः प्रभु राम को प्रसन्न करने के बाद, उन्होंने पुनर्जन्म लेते हुए पुण्य स्थान को प्राप्त किया।"
चौपाई -
उतरि ठाड़ भए सुरसरि रेता, सीयराम गुह लखन समेता ||
केवट उतरि दंडवत कीन्हा, प्रभुहि सकुच एहि नहिं कछु दीन्हा ||१||
पिय हिय की सिय जाननिहारी, मनि मुदरी मन मुदित उतारी ||
कहेउ कृपाल लेहि उतराई, केवट चरन गहे अकुलाई ||२||
नाथ आजु मैं काह न पावा, मिटे दोष दुख दारिद दावा ||
बहुत काल मैं कीन्हि मजूरी, आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी ||३||
अब कछु नाथ न चाहिअ मोरें, दीनदयाल अनुग्रह तोरें ||
फिरती बार मोहि जे देबा, सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा ||४||
ये चौपाई श्री तुलसीदासजी के 'रामचरितमानस' से हैं। इसका अर्थ है:
"समुद्र के रेत में उतरकर सीता, राम, गुह और लक्ष्मण वहाँ थे। केवट ने उतरकर दंडवत की, परन्तु प्रभु राम ने उससे थोड़ा भी दया नहीं की। सीता ने प्रिय ह्रदय से राम को पहचाना, और उनकी उत्सुकता से मन को संतुष्ट किया। केवट ने कहा, 'हे प्रभु, मेरा उत्तरदायित्व लें, मैंने आपके पादों को पकड़ा है।' मैं अपने आप को क्यों नहीं पा सकता, जो दुःख, दारिद्र्य, और दोष मिट जाएं। बहुत समय से मैंने कठिन मेहनत की है, आज उसका फल मिल रहा है, और यही बड़ी धनी है। अब मैं कुछ भी नहीं चाहता हूँ, हे दीनदयालु, आपकी कृपा तो मेरे ऊपर हो। जब जब मैं आपको चाहा है, तब-तब आपका प्रसाद मुझे मिला है, मैंने उसे सिर पर धारण किया है।"
दोहा-
बहुत कीन्ह प्रभु लखन सियँ नहिं कछु केवटु लेइ ||
बिदा कीन्ह करुनायतन भगति बिमल बरु देइ ||102 ||
इस दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं:
"प्रभु राम ने बहुत कुछ किया लेकिन लक्ष्मण और सीता को केवट ने कुछ नहीं दिया। लेकिन उन्होंने भक्ति और प्रेम में सच्चे ह्रदय से बिना किसी व्यक्ति के अद्भुत वरदान दिया।"
चौपाई -
तब मज्जनु करि रघुकुलनाथा, पूजि पारथिव नायउ माथा ||
सियँ सुरसरिहि कहेउ कर जोरी, मातु मनोरथ पुरउबि मोरी ||१||
पति देवर संग कुसल बहोरी, आइ करौं जेहिं पूजा तोरी ||
सुनि सिय बिनय प्रेम रस सानी, भइ तब बिमल बारि बर बानी ||२||
सुनु रघुबीर प्रिया बैदेही, तव प्रभाउ जग बिदित न केही ||
लोकप होहिं बिलोकत तोरें, तोहि सेवहिं सब सिधि कर जोरें ||३||
तुम्ह जो हमहि बड़ि बिनय सुनाई, कृपा कीन्हि मोहि दीन्हि बड़ाई ||
तदपि देबि मैं देबि असीसा, सफल होपन हित निज बागीसा ||४||
तुलसीदासजी के इस चौपाई में यह कहा गया है:
"उस समय श्रीराम ने रघुकुल के नाथ को भक्तिभाव से नमस्कार किया। सीता ने सुरसरिता के संग में बड़ी भक्ति से प्रार्थना की, जो मेरी मनोरथों को पूरा करे। पतिदेवता और देवराज से मिलकर उसने जो पूजा की, वह तेरी पूजा बनी। सुनकर सीता की विनयपूर्ण प्रेमभावना को, उस समय वाणी से शुद्ध बातें निकली। रघुवीर! बैदेही सीता के वचन सुनो, तेरी महिमा दुनिया में किसी को नहीं पता। लोग तो तेरी दर्शनीयता को देखने के लिए आते हैं, लेकिन तुम्हें सेवा करने से सभी सिद्धियाँ मिलती हैं। तुमने जो हमारी विनती को बड़े ही भक्तिपूर्वक सुना, उसकी कृपा से मुझे बड़ा उत्साह मिला। फिर भी मैंने आपको देवताओं की अशीर्वाद के रूप में माना, ताकि मेरे हित के कारण सफलता हो।"
दोहा-
प्राननाथ देवर सहित कुसल कोसला आइ,
पूजहि सब मनकामना सुजसु रहिहि जग छाइ ||१०३ ||
इस दोहे में तुलसीदासजी कहते हैं:
"प्राणनाथ रामजी सहित सब खुशी के साथ कोसला आए, उन्हें पूजते हुए सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं, जगत् में उनकी छाया में रहती हैं।"

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