अर्थ सहित श्री रामचरितमानस अयोध्या काण्ड

अर्थ सहित श्री रामचरितमानस अयोध्या काण्ड Shri Ramcharitmanas Ayodhya incident with meaning

मासपारायण, सत्रहँवा विश्राम

चौपाई 
कोटि मनोज लजावनिहारे, सुमुखि कहहु को आहिं तुम्हारे ||
सुनि सनेहमय मंजुल बानी, सकुची सिय मन महुँ मुसुकानी ||
तिन्हहि बिलोकि बिलोकति धरनी, दुहुँ सकोच सकुचित बरबरनी ||
सकुचि सप्रेम बाल मृग नयनी, बोली मधुर बचन पिकबयनी ||
सहज सुभाय सुभग तन गोरे, नामु लखनु लघु देवर मोरे ||
बहुरि बदनु बिधु अंचल ढाँकी, पिय तन चितइ भौंह करि बाँकी ||
खंजन मंजु तिरीछे नयननि, निज पति कहेउ तिन्हहि सियँ सयननि ||
भइ मुदित सब ग्रामबधूटीं, रंकन्ह राय रासि जनु लूटीं ||
यह चौपाई संगीत, प्रेम और श्रृंगार के विषय में है। इसमें भगवान राम की कृपा और सुंदरता का वर्णन किया गया है। इसका अर्थ इस प्रकार है:
"जो लाखों मनों को लजाने वाले हैं, उनको सीधे सामने क्यों न कहो तुम्हारा स्वरूप। जो मिठी बातें सुनकर प्रेम से भरी मन्दासी को भी मुस्कुराते हैं। धरती भी उनको देखकर अपनी ओर बढ़ती है, दोनों एक-दूसरे को सराहती हैं, संगीत बजाती है। प्रेम से भरी हुई उनकी आंखें बच्चों के मन्द जानवर की तरह हैं, उनकी बातें मधुर हैं जैसे पक्षियों की गायन। वे स्वभाव से सुंदर और चमकीले हैं, मेरे छोटे देवता राम के नाम को लेकर लखने वाले। उन्होंने फिर से अपने शरीर को ढककर मेरे प्रियतम की तरफ देखा, उनके मन में ख्याल आया और वे बांकी हो गए। उनकी तीरचाली नेत्रों के अलावा कोई भी और कह नहीं सकता, वही उनका सच्चा पति है, वही सीता का सहवासी हैं। सभी ग्रामवासिनियाँ हर्षित हो गईं, रंकन्ह को राजा मानकर लूट ली।"
दोहा-
अति सप्रेम सिय पायँ परि बहुबिधि देहिं असीस,
सदा सोहागिनि होहु तुम्ह जब लगि महि अहि सीस ||११७ ||
इस दोहे में भगवान राम की पत्नी सीता के प्रति प्रेम और शुभकामनाएं व्यक्त की गई हैं। इसका अर्थ है: "अत्यंत प्रेम से, सीता, तुम्हारे पास बहुत सारे विभिन्न आशीर्वाद हैं। हमेशा सुहागनी रहो, जब तक कि पृथ्वी और आकाश में हूँ।"
चौपाई 
पारबती सम पतिप्रिय होहू, देबि न हम पर छाड़ब छोहू ||
पुनि पुनि बिनय करिअ कर जोरी, जौं एहि मारग फिरिअ बहोरी ||
दरसनु देब जानि निज दासी, लखीं सीयँ सब प्रेम पिआसी ||
मधुर बचन कहि कहि परितोषीं, जनु कुमुदिनीं कौमुदीं पोषीं ||
तबहिं लखन रघुबर रुख जानी, पूँछेउ मगु लोगन्हि मृदु बानी ||
सुनत नारि नर भए दुखारी, पुलकित गात बिलोचन बारी ||
मिटा मोदु मन भए मलीने, बिधि निधि दीन्ह लेत जनु छीने ||
समुझि करम गति धीरजु कीन्हा, सोधि सुगम मगु तिन्ह कहि दीन्हा ||
यह चौपाई भगवान शिव-पार्वती के प्रति दीनता और प्रेम का वर्णन करती है। इसका अर्थ है:
"पार्वती, मैं तुम्हारा प्रिय पति होता हूं, मैं कभी भी तुम्हें छोड़ नहीं सकता। बार-बार तुम्हारी भक्ति करता हूं, मैं जब भी इसी मार्ग पर फिरता हूं। तुम्हें देवी जानकर मैं अपनी सेविका को दर्शन देता हूं, मैं सीता को सब प्रेम से देखता हूं। मैं मधुर वाणी से उन्हें प्रसन्न करता हूं, जैसे कुमुदिनी और कौमुदीं को बढ़ाती है। तब भगवान रघुवर (श्रीराम) ने उन्हें पहचान लिया, वे लोग उनसे मिलने के लिए मृदु ध्वनि से पूछते हैं। नारी और नर उन्हें सुनते हुए दुखी हो जाते हैं, उनकी आँखों में पुलकें आती हैं और वे गाते हुए बिलोकते हैं। उनके मन में आनंद उत्पन्न हो जाता है, लेकिन वह अपना मन मायावी भगवान की ओर ले जाती है। मैंने कर्म की गति को समझा और धीरज से काम किया, उन्हें सोधने में सहायता प्रदान की।"
दोहा-
लखन जानकी सहित तब गवनु कीन्ह रघुनाथ,
फेरे सब प्रिय बचन कहि लिए लाइ मन साथ ||११८ ||
यह दोहा भगवान श्रीराम की श्रीसीता के साथ उनकी वनवास की याद दिलाता है। इसका अर्थ है:  "रघुनाथ श्रीराम ने जब वाणवास किया, तब उन्होंने सभी प्रिय वाणी कही और मन को साथ लिया।"
चौपाई 
फिरत नारि नर अति पछिताहीं, देअहि दोषु देहिं मन माहीं ||
सहित बिषाद परसपर कहहीं, बिधि करतब उलटे सब अहहीं ||
निपट निरंकुस निठुर निसंकू, जेहिं ससि कीन्ह सरुज सकलंकू ||
रूख कलपतरु सागरु खारा, तेहिं पठए बन राजकुमारा ||
जौं पे इन्हहि दीन्ह बनबासू, कीन्ह बादि बिधि भोग बिलासू ||
ए बिचरहिं मग बिनु पदत्राना, रचे बादि बिधि बाहन नाना ||
ए महि परहिं डासि कुस पाता, सुभग सेज कत सृजत बिधाता ||
तरुबर बास इन्हहि बिधि दीन्हा, धवल धाम रचि रचि श्रमु कीन्हा ||
यह चौपाई भगवान राम और सीता के वनवास के समय में हुए घटनाओं का वर्णन करती है। इसमें उनके दुख, विपत्ति और उनके संघर्षों का वर्णन किया गया है। इसका अर्थ है:
"महिला और पुरुष दोनों बहुत ही अत्यंत पछताहते हैं, वे अपने दोषों को देह में और मन में ढूंढ़ते हैं। वे एक दूसरे के साथ विरोधी भाषण करते हैं, सभी कुछ उलट जाता है और सब दु:ख पाते हैं। वे निरंकुश, निठुर और निषंकोच हो जाते हैं, जहाँ जिसने बाँसुरी की तरह सींचा है, वहाँ उन्हें वन के राजकुमार के रूप में भेजा गया है। जब वे वन में इन्हें बनवास दिया गया, तब वहाँ उन्होंने विलासिता की विधि से जीना शुरू किया। उनके बिना वहाँ यात्रा के लिए कोई साधन नहीं था, तब वे विभिन्न प्रकार के यानों को बनाने लगे। वहाँ में सबसे अधिक विचलित होती है, कौन सुंदर रचनाएँ कैसे बनाता है, जो परमात्मा ने सृष्टि की है। तरुबर (वृक्षों की छाया) के रहने के लिए उन्होंने उन वनों को बनाया, जिससे कि उन्होंने सफेद आश्रम (पंचवटी) को स्थापित किया और बड़ी मेहनत की।"
दोहा-
जौं ए मुनि पट धर जटिल सुंदर सुठि सुकुमार,
बिबिध भाँति भूषन बसन बादि किए करतार ||११९ ||
इस दोहे में भगवान राम की सुंदरता, उनके व्यक्तित्व की महिमा और उनके धार्मिक ध्यान का वर्णन किया गया है। इसका अर्थ है:
"जैसे मुनियों ने पट पहने हैं और जटायु जैसे सुंदर सुकुमार हैं, उसी प्रकार भगवान राम ने विभिन्न प्रकार की भूषणों को पहनकर यहाँ की सृष्टि को सजाया है।"
चौपाई 
जौं ए कंद मूल फल खाहीं, बादि सुधादि असन जग माहीं ||
एक कहहिं ए सहज सुहाए, आपु प्रगट भए बिधि न बनाए ||
जहँ लगि बेद कही बिधि करनी, श्रवन नयन मन गोचर बरनी ||
देखहु खोजि भुअन दस चारी, कहँ अस पुरुष कहाँ असि नारी ||
इन्हहि देखि बिधि मनु अनुरागा, पटतर जोग बनावै लागा ||
कीन्ह बहुत श्रम ऐक न आए, तेहिं इरिषा बन आनि दुराए ||
एक कहहिं हम बहुत न जानहिं, आपुहि परम धन्य करि मानहिं ||
ते पुनि पुन्यपुंज हम लेखे, जे देखहिं देखिहहिं जिन्ह देखे ||
यह चौपाई जीवन के सारे पहलुओं और उसके साथी संघर्षों का वर्णन करती है। इसमें सत्य, ध्यान, और साधना के महत्व का उल्लेख किया गया है। इसका अर्थ है:
"जैसे कोई मनुष्य कच्चे फल और मूलों को खाता है, जो जगत में सुधार और विकास में आधार बनते हैं। उसी तरह, कुछ चीजें सहज होती हैं, स्वयं से प्रकट होती हैं और किसी के द्वारा बनाई नहीं जातीं। वे बातें जो वेदों में कही जाती हैं, वे श्रवण, दृष्टि, और मन से गोचर होने वाली हैं। जहाँ बहुत से लोग ढूंढ़ते हैं, कि कहाँ है पुरुष और कहाँ है औरत। जब वे व्यक्ति को देखते हैं, उनमें मन में प्रेम उत्पन्न होता है और वे ज्ञान और योग की ओर प्रवृत्त होते हैं। लेकिन जब बहुत श्रम के बावजूद वे कुछ नहीं पा सकते, तो उनमें ईर्ष्या (अभिमान) आती है और वे निराश हो जाते हैं। कुछ लोग कहते हैं, 'हम बहुत कुछ नहीं जानते, हम स्वयं को बहुत धन्य मानते हैं।' उन लोगों को पुन्य पुंज मिलता है, जो देखते हैं और उन व्यक्तियों को देखते हैं, जो देखने में ही बहुत कुछ देख लेते हैं।"
दोहा-
एहि बिधि कहि कहि बचन प्रिय लेहिं नयन भरि नीर,
किमि चलिहहि मारग अगम सुठि सुकुमार सरीर ||१२० ||
इस दोहे में भगवान राम के लिए प्रेम और आकर्षण का वर्णन किया गया है। इसका अर्थ है:
"इसी प्रकार से वह बार-बार प्रिय बातें कहते हैं, नेत्रों में आंसू भरकर, क्या वह अगम्य मार्ग को चलते हैं, जो उनके सुंदर शरीर के साथ चलता है?"
चौपाई 
नारि सनेह बिकल बस होहीं, चकई साँझ समय जनु सोहीं ||
मृदु पद कमल कठिन मगु जानी, गहबरि हृदयँ कहहिं बर बानी ||
परसत मृदुल चरन अरुनारे, सकुचति महि जिमि हृदय हमारे ||
जौं जगदीस इन्हहि बनु दीन्हा, कस न सुमनमय मारगु कीन्हा ||
जौं मागा पाइअ बिधि पाहीं, ए रखिअहिं सखि आँखिन्ह माहीं ||
जे नर नारि न अवसर आए, तिन्ह सिय रामु न देखन पाए ||
सुनि सुरुप बूझहिं अकुलाई, अब लगि गए कहाँ लगि भाई ||
समरथ धाइ बिलोकहिं जाई, प्रमुदित फिरहिं जनमफलु पाई ||
यह चौपाई एक प्रेम प्रकट करती है, जो समय के साथ बढ़ता है और महसूस होता है। इसमें प्रेम की दृढ़ता, परिश्रम, और विचारों की महत्ता को बताया गया है।
"स्त्री का स्नेह बिकल होता है, जैसे सूर्यास्त के समय धीरे-धीरे सूख जाता है। मृदु पादुका को कठिन मार्ग समझो, जो हमारे हृदय को गहरा बोलती है। उनके नरम चरण बिना, हमारे हृदय में सुखानुभव कैसे होता? जब जगदीश ने उन्हें यहाँ बनाया, तो वे हमारे हृदय में सुमनों की तरह घुल गई। जब हमने कैसा भी दावा किया, उसे हमने अपनी आँखों में ही रखा। जो नारी और पुरुष कभी मौका नहीं पाते, वे श्रीराम और सीता को नहीं देख सकते हैं। सुनकर उनकी सुंदरता, उनका आकर्षण समझते हुए, अब हम कहाँ चले हैं? समर्थ धाइ़ की तरफ जाकर बहुत प्रसन्न हुए और फिर जन्म का फल प्राप्त किया।"
दोहा-
अबला बालक बृद्ध जन कर मीजहिं पछिताहिं ||
होहिं प्रेमबस लोग इमि रामु जहाँ जहँ जाहिं ||१२१ ||
यह दोहा प्रेम की महत्ता और उसका अनमोल असर बताता है। इसका अर्थ है:                        "कितनी ही अशक्त, बालक, वृद्ध व्यक्ति भी पश्चाताप करते हैं, जब वे प्रेम में भरे लोगों को देखते हैं, वहाँ जहाँ भी जाते हैं और वहाँ जाते हैं।"
चौपाई 
गाँव गाँव अस होइ अनंदू, देखि भानुकुल कैरव चंदू ||
जे कछु समाचार सुनि पावहिं, ते नृप रानिहि दोसु लगावहिं ||
कहहिं एक अति भल नरनाहू, दीन्ह हमहि जोइ लोचन लाहू ||
कहहिं परस्पर लोग लोगाईं, बातें सरल सनेह सुहाईं ||
ते पितु मातु धन्य जिन्ह जाए, धन्य सो नगरु जहाँ तें आए ||
धन्य सो देसु सैलु बन गाऊँ, जहँ जहँ जाहिं धन्य सोइ ठाऊँ ||
सुख पायउ बिरंचि रचि तेही, ए जेहि के सब भाँति सनेही ||
राम लखन पथि कथा सुहाई, रही सकल मग कानन छाई ||
इसका अनुवाद है:
"गाँव-गाँव में अनंद की बात होती है, जैसे भानुकुल के परिसर में चंदू बातें करता है। जो-जो समाचार सुनकर मिलता है, वे लोग नृपों को भी अपना साथी बनाते हैं। एक नेक व्यक्ति कहता है, 'जो भी हमारी मदद करे, उसे मैं देखकर आँखों में आंसू आते हैं।' लोग एक-दूसरे से सरलता और स्नेहपूर्ण बातें करते हैं। वे माता-पिता धन्य हैं, जिन्होंने हमें इस दुनिया में आने का अवसर दिया। धन्य है वह नगर जहाँ से हम आए हैं। धन्य है वह देश जहाँ बसे हमारा गाँव, जहाँ हम जहां-जहां जाते हैं, वहां सुखी महसूस करते हैं। ब्रह्मा ने जैसे ही वही सब कुछ रचा, वैसे ही सबका स्नेही बन गया। राम और लखन की कथा सुनकर ही सबकुछ सुहावना लगता है, सभी रास्ते में राम और लखन की छाया होती है।"
दोहा-
एहि बिधि रघुकुल कमल रबि मग लोगन्ह सुख देत,
जाहिं चले देखत बिपिन सिय सौमित्रि समेत ||१२२ ||
यह दोहा भी तुलसीदासजी के 'रामचरितमानस' से है। इसमें रामजी, सीताजी, और लक्ष्मणजी की महानता का वर्णन है, जिनकी प्रत्यक्षता से ही रघुकुल (राम के वंशजों का वंश) में सुख प्राप्त होता है। इसका अनुवाद है:
"इस प्रकार जहाँ राघव के कुल में सूर्य होते हैं, वहाँ लोग सुख प्राप्त करते हैं। जहाँ सीता और लक्ष्मण सहित बिपिन (वन) में चले, वहाँ वे देखते हैं।"
चौपाई 
आगे रामु लखनु बने पाछें, तापस बेष बिराजत काछें ||
उभय बीच सिय सोहति कैसे, ब्रह्म जीव बिच माया जैसे ||
बहुरि कहउँ छबि जसि मन बसई, जनु मधु मदन मध्य रति लसई ||
उपमा बहुरि कहउँ जियँ जोही, जनु बुध बिधु बिच रोहिनि सोही ||
प्रभु पद रेख बीच बिच सीता, धरति चरन मग चलति सभीता ||
सीय राम पद अंक बराएँ, लखन चलहिं मगु दाहिन लाएँ ||
राम लखन सिय प्रीति सुहाई, बचन अगोचर किमि कहि जाई ||
खग मृग मगन देखि छबि होहीं, लिए चोरि चित राम बटोहीं ||
यह चौपाई भी 'रामचरितमानस' से है, जिसमें भगवान राम, लक्ष्मण, और सीता का वर्णन किया गया है। इसका अर्थ है:
"राम और लक्ष्मण आगे चले, तपस्वी के रूप में ध्यान में लगे हुए हैं। सीता उन दोनों के बीच कैसे बैठी है, वैसे ही जैसे ब्रह्म और जीव के बीच माया होती है। मैं बहुत कुछ कहता हूँ, लेकिन उसी तरह जैसे मधुर रति में मन बसता है। जैसे बुद्धिमान बिधुर राणी रोहिणी के बीच होते हैं, वैसे ही प्रभु राम और माता सीता के पादरेखा के बीच हैं। सीता राम के पादरेखा को अंकित करती हैं, और लक्ष्मण उनके दाहिने ओर चलते हैं। राम, लक्ष्मण और सीता की प्रीति बहुत मधुर है, और उनके वचन अगोचर हैं, क्या कहा जा सकता है। पक्षी और मृगों को देखकर भी उनकी छवि मिलती है, वे राम की चित्त में लीन हो जाते हैं।"
दोहा-
जिन्ह जिन्ह देखे पथिक प्रिय सिय समेत दोउ भाइ,
भव मगु अगमु अनंदु तेइ बिनु श्रम रहे सिराइ ||१२३ ||
यह दोहा भी तुलसीदासजी के 'रामचरितमानस' से है। इसमें वह महान आनंद का वर्णन है जो व्यक्ति को श्रीराम और सीताजी के साथ दोनों भाइयों के रूप में मिलता है। इसका अर्थ है:
"जो जिन्हें देखते हैं प्रिय पथिक सीता समेत दोनों भाइयों के साथ, उनके शिर पर श्रम के बिना अगम आनंद का मार्ग बना रहता है।"
चौपाई 
अजहुँ जासु उर सपनेहुँ काऊ, बसहुँ लखनु सिय रामु बटाऊ ||
राम धाम पथ पाइहि सोई, जो पथ पाव कबहुँ मुनि कोई ||
तब रघुबीर श्रमित सिय जानी, देखि निकट बटु सीतल पानी ||
तहँ बसि कंद मूल फल खाई, प्रात नहाइ चले रघुराई ||
देखत बन सर सैल सुहाए, बालमीकि आश्रम प्रभु आए ||
राम दीख मुनि बासु सुहावन, सुंदर गिरि काननु जलु पावन ||
सरनि सरोज बिटप बन फूले, गुंजत मंजु मधुप रस भूले ||
खग मृग बिपुल कोलाहल करहीं, बिरहित बैर मुदित मन चरहीं ||
यह चौपाई तुलसीदासजी के 'रामचरितमानस' से हैं। इसमें भगवान राम के आश्रम में उनकी लीलाएं और उनके दर्शन का वर्णन है। इसका अर्थ है:
"जिस चित्त में सीता और राम का वास हो, उस उर में तुम नित्य रहो। वही पथ वाला राम का धाम है, जिस पथ को कभी किसी मुनि ने नहीं पाया है। तब श्रीराम ने माना कि सीता उस स्थान को जानती है जहां सूखद पानी है। वहाँ वे लकड़ी के नीचे बैठे और फल खाये, और फिर सुबह नहाने के लिए निकले। उन्होंने बागों को देखा जो बहुत ही सुंदर थे, और बालमीकि के आश्रम में पहुँचे। मुनियों ने राम को देखकर अपना आश्रय बहुत सुहावना पाया, सुंदर पहाड़ी जंगल और नदियों का जल पवित्र था। पुष्प और फूल लगे हुए थे सरों में, और मधुर वातावरण में मधुप फूल भटक रहे थे। पक्षियों और जंगली जानवरों की बहुत शोरगुल मच रही थी, लेकिन मन विरहित होकर भी राम का मन खुश था।"
दोहा-
सुचि सुंदर आश्रमु निरखि हरषे राजिवनेन,
सुनि रघुबर आगमनु मुनि आगें आयउ लेन ||१२४ ||
यह दोहा भी 'रामचरितमानस' से हैं। इसमें राम के आश्रम की सुंदरता का वर्णन है जिसे मुनियों ने देखकर हर्षित होते हैं, और राम के आगमन की खबर सुनकर मुनियों को बड़ा आनंद आता है। इसका अर्थ है:
"सुंदर और शुद्ध आश्रम को देखकर मुनियों के मन में आनंद होता है, वे खुशियों से भर जाते हैं, रामचंद्रजी के आगमन की खबर सुनकर मुनियों के समक्ष विशेष रूप से आगे आने का इच्छा होता है।"
चौपाई 
मुनि कहुँ राम दंडवत कीन्हा, आसिरबादु बिप्रबर दीन्हा ||
देखि राम छबि नयन जुड़ाने, करि सनमानु आश्रमहिं आने ||
मुनिबर अतिथि प्रानप्रिय पाए, कंद मूल फल मधुर मगाए ||
सिय सौमित्रि राम फल खाए, तब मुनि आश्रम दिए सुहाए ||
बालमीकि मन आनँदु भारी, मंगल मूरति नयन निहारी ||
तब कर कमल जोरि रघुराई, बोले बचन श्रवन सुखदाई ||
तुम्ह त्रिकाल दरसी मुनिनाथा, बिस्व बदर जिमि तुम्हरें हाथा ||
अस कहि प्रभु सब कथा बखानी, जेहि जेहि भाँति दीन्ह बनु रानी ||
यह चौपाई भी तुलसीदासजी के 'रामचरितमानस' से हैं। इसमें मुनियों का आश्रम में भगवान राम के आगमन का वर्णन किया गया है। इसका अर्थ है:
"मुनियों ने भगवान राम को धन्यवाद देकर दंडवत किया और उन्हें आशीर्वाद दिया, रामचंद्रजी की छवि को देखकर मुनियों ने उन्हें स्वागत के सन्मान से आश्रम में बुलाया। मुनियों ने बड़ा ही प्राणप्रिय अतिथि पाया, जिन्होंने लकड़ी के नीचे बैठकर फल मिठाई स्वादिष्ट खाया। सीता, लक्ष्मण और राम ने भी फल खाया, जिससे मुनियों का आश्रम सुखदायी हो गया। बालमीकि का मन भारी हुआ आनंद से, वे मंगलमयी मूर्ति को देखकर अपनी नजर नहीं हटा सके। तब श्रीराम ने अपने कर के बल से कहा, जिन्होंने त्रिकाल में मुनियों की पूजा की, उन्हीं से तुम्हें बदर जैसी प्राप्ति हुई है। ऐसा कहकर प्रभु ने सभी कथाएं सुनाई, जिस तरह से देवी सीता को और भगवान राम को उनकी चाहने वाली रानियों को दीनहीन बनाया।"
दोहा-
तात बचन पुनि मातु हित भाइ भरत अस राउ,
मो कहुँ दरस तुम्हार प्रभु सबु मम पुन्य प्रभाउ ||१२५ ||
यह दोहा भी तुलसीदासजी के 'रामचरितमानस' से हैं। इसमें भरत और श्रीराम के बीच हुए संवाद का वर्णन है। इसका अर्थ है:
"भरत बोले, 'हे भाई राम, माता के वचन फिर से सुनो, मैं तुम्हारे दर्शन का विनती करता हूँ, हे प्रभु, जो मेरे पापों का नाश करेगा।'"
चौपाई 
देखि पाय मुनिराय तुम्हारे, भए सुकृत सब सुफल हमारे ||
अब जहँ राउर आयसु होई, मुनि उदबेगु न पावै कोई ||
मुनि तापस जिन्ह तें दुखु लहहीं, ते नरेस बिनु पावक दहहीं ||
मंगल मूल बिप्र परितोषू, दहइ कोटि कुल भूसुर रोषू ||
अस जियँ जानि कहिअ सोइ ठाऊँ, सिय सौमित्रि सहित जहँ जाऊँ ||
तहँ रचि रुचिर परन तृन साला, बासु करौ कछु काल कृपाला ||
सहज सरल सुनि रघुबर बानी, साधु साधु बोले मुनि ग्यानी ||
कस न कहहु अस रघुकुलकेतू, तुम्ह पालक संतत श्रुति सेतू ||
यह चौपाई भी 'रामचरितमानस' से है। इसमें भरत के वचनों में श्रीराम की प्रशंसा है। इसका अर्थ है:
"मुनिराज! जो तुम्हारे चरणों को देखते हैं, उनके सभी सुख कामनाएँ सफल हो जाती हैं। अब, जहाँ भी भरत आते हैं, मुनियों का उद्बेग नहीं होता। मुनियों का दुःख जिस तपस्या से लहलहाता है, वह नरेश्वर बिना पावक के उसे जलाने समर्थ नहीं होता। वे महान ब्राह्मण, परितोषित होते हैं, जिन्हें देखकर कोई भी लाखों कुलों का रोष नहीं कर सकता। ऐसी जगह बताओ, जहाँ जाकर मैं सीता और लक्ष्मण के साथ जा सकूँ। वहाँ एक रुचिर पर्वत हो, मैं कुछ समय के लिए वहाँ विचरण करूँ। मुनिराज की सरल और सहज वाणी सुनकर, राघव ने साधु-साधु कहकर मुनिगण की प्रशंसा की। रामचंद्रज! राघुकुल के तुम जैसे पालक संतान को क्या कहें, तुम संस्कृति के समुंदर हो।"
छंद 
श्रुति सेतु पालक राम तुम्ह जगदीस माया जानकी,
जो सृजति जगु पालति हरति रूख पाइ कृपानिधान की ||
जो सहससीसु अहीसु महिधरु लखनु सचराचर धनी,
सुर काज धरि नरराज तनु चले दलन खल निसिचर अनी ||
यह छंद तुलसीदासजी के 'रामचरितमानस' से हैं। इसमें भगवान राम की महिमा का वर्णन किया गया है। इसका अर्थ है:
"हे जगदीश राम, तुम संसार के श्रुति सेतु हो, तुम जानकी माया वाले हो। जो सृष्टि को सृजते हो, पालते हो, हरते हो, उन रूपों को पाने के लिए कृपानिधान हो। जो अहींसा और सहसा से सम्पूर्ण जगत को पालते हैं, वह लक्ष्मीपति हैं, सब चराचर के धनी हैं। सुरों के कार्य को धारण करने वाले और मानवराज के रूप में उत्तरण करने वाले, वह तन में नारायण धारण करते हैं, और दुष्टों, निशाचरों को ध्वस्त करने के लिए चलते हैं।"
सोरठा
राम सरुप तुम्हार बचन अगोचर बुद्धिपर,
अबिगत अकथ अपार नेति नित निगम कह ||१२६ ||
इसका अर्थ है:

"तुम्हारे रूप में राम, तुम्हारे वचन बुद्धिमानों के लिए अगोचर हैं, जो अकथित, अबिगत, और अपार है, वे नित निगमों में कहे जाते हैं।"

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