अरण्यकाण्ड के सोरठा सम्पूर्ण अर्थ सहित Soratha of Aranyakaand with complete meaning
सोरठा
उमा राम गुन गूढ़ पंडित मुनि पावहिं बिरति।
पावहिं मोह बिमूढ़ जे हरि बिमुख न धर्म रति॥
अर्थ"जो व्यक्ति उमा (पार्वती) और राम की गुणों को गूढ़ता से नहीं पाता है, वह गधा पंडित की तरह है। जैसे मोहित होकर बुद्धिहीन मनुष्य जो हरि (भगवान) के प्रति रुचि नहीं रखता।"
इस दोहे में तुलसीदास जी ने बताया है कि जीवन में धर्म की रक्षा करने के लिए हमें भगवान की प्रेम और भक्ति की आवश्यकता होती है, जो कि समझने के लिए गहराई से उनकी गुणों को समझना आवश्यक है।
सोरठा :
कीन्ह मोह बस द्रोह जद्यपि तेहि कर बध उचित।
प्रभु छाड़ेउ करि छोह को कृपाल रघुबीर सम॥2॥
अर्थ "जब तक उसे मोह और द्रोह ने बाँध लिया होता है, तब तक उसको वही करना उचित समझता है, लेकिन जब भगवान श्रीराम की कृपा आ जाती है, तब वह छोड़ देता है और उसे भगवान की अनुग्रह मिलती है।"
इस दोहे में तुलसीदास जी ने बताया है कि मोह और द्रोह की बाधा से व्यक्ति जब तक बाँधा होता है, तब तक वह उनका अनुसरण करता है, परंतु भगवान की कृपा से उसे उन बुराइयों से मुक्ति मिलती है।
सोरठा :
प्रभु आसन आसीन भरि लोचन सोभा निरखि।
मुनिबर परम प्रबीन जोरि पानि अस्तुति करत॥3॥
अर्थ "जब मुनियों ने परम प्रबीनता से प्रभु को आसन पर आसीन होते हुए और उनकी सुंदरता को देखकर नेत्रों से निरीक्षण किया, तो वे शक्तिशाली होकर जल की स्तुति करने लगे।"
इस दोहे में तुलसीदास जी ने भगवान की उपासना के लिए मुनियों की भक्ति और अनुग्रह को उदाहरण दिया है, जो भगवान की सोभा को देखकर भक्तिभाव से स्तुति करते हैं।
सोरठा :
सहज अपावनि नारि पति सेवत सुभ गति लहइ।
जसु गावत श्रुति चारि अजहुँ तुलसिका हरिहि प्रिय॥5 क॥
अर्थ"सहज रूप से अपने पति की सेवा करने वाली नारी, उसकी सेवा करते हुए श्रेष्ठ गति को प्राप्त करती है। जैसे जो तुलसीदास ने गाते हुए चारों धरती और श्रुति में हरिभक्ति की महिमा गाई है।"
इस दोहे में तुलसीदास जी ने स्त्री के पति की सेवा को महत्त्वपूर्ण मानकर उसकी महिमा को वर्णित किया है, और यह सेवा भक्ति के समान महत्त्वपूर्ण है। वह नारी जो सहजता से अपने पति की सेवा करती है, उसे उच्च गति की प्राप्ति होती है।
सुनु सीता तव नाम सुमिरि नारि पतिब्रत करहिं।
तोहि प्रानप्रिय राम कहिउँ कथा संसार हित॥5 ख॥
अर्थ"हे सीता, तुम्हें आपके नाम की ध्यान करती हुई नारी, अपने पति की सेवा करनी चाहिए। तुम्हें ही कहना चाहिए कि श्रीराम, जो मेरे प्राणप्रिय हैं, की कथा को सुनाने के लिए संसार के हित में।"
इस दोहे में तुलसीदास जी ने सीता को यह सिखाया है कि वह अपने पति भगवान श्रीराम के नाम का स्मरण करती हुई और उनकी कथा सुनाकर संसार के हित में योगदान करे। इससे न केवल वह अपने पति की सेवा करेगी, बल्कि समाज को भी उनकी कथा के माध्यम से उपदेश मिलेगा।
सोरठा :
कठिन काल मल कोस धर्म न ग्यान न जोग जप।
परिहरि सकल भरोस रामहि भजहिं ते चतुर नर॥6 ख॥
अर्थ"कठिन काल में, जब धर्म, ज्ञान और योग जप भी मानसिक दुर्बलता में नहीं बचा सकते, तब सम्पूर्ण आशा और भरोसा भगवान श्रीराम में होना चाहिए। ऐसे चतुर नर ही भगवान की भक्ति करते हैं।"
इस दोहे में तुलसीदास जी ने बताया है कि कठिनाईयों और अवस्थाओं में, जब धर्म, ज्ञान और योग के अभ्यास भी सम्पूर्णता नहीं प्राप्त कर पा रहे होते हैं, तो उस समय भगवान श्रीराम में ही आशा और भरोसा रखना चाहिए। वह व्यक्ति ही सच्चे चतुर नर कहलाता है जो भगवान की भक्ति में लगा रहता है।
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