अपनी गलतियों से सीखो learn from your mistakes
ये दोहे कबीरदास जी के लिखे गए हैं, जो की जीवन के मार्गदर्शन के लिए हैं। यहाँ कबीरदास जी कह रहे हैं कि हमें दूसरों के दोषों को निकालने की बजाय अपनी गलतियों पर ध्यान देना चाहिए। जो लोग अच्छे और बुरे काम देखते हैं, उन्हें समान दृष्टिकोण से देखना चाहिए। इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि व्यक्ति को अपने अन्तर में विचार करना चाहिए, उसे अपनी गलतियों से सीखना चाहिए और अपनी बुरी आदतों को सुधारना चाहिए। यही एक सही मार्ग है जो हमें उन्नति और समृद्धि की ओर ले जाता है।तदपि एक मैं कहउँ उपाई। होइ करै जौं दैउ सहाई॥
जस बरु मैं बरनेउँ तुम्ह पाहीं। मिलहि उमहि तस संसय नाहीं॥413
तदपि - फिर भी
एक - एक
मैं - मैं
कहउँ - कहता हूँ
उपाई - उपाय
होइ - होता है
करै - करता है
जौं - जो
दैउ - देता
सहाई - सहायता
जस - जैसा
बरु - बहुत
मैं - मैं
बरनेउँ - वर्णन करता हूँ
तुम्ह - तुम्हें
पाहीं - पाता हूँ
मिलहि - मिलता है
उमहि - उसमें
तस - तब
संसय - संदेह
नाहीं - नहीं
इस दोहे में कहा गया है कि मैं एक उपाय बता रहा हूँ, जो कोई भी करे उसे प्रभु सहायता देते हैं। जैसा मैं तुम्हें बहुत अच्छे से बताता हूँ, वैसे ही उसमें कोई संदेह नहीं होता।
जे जे बर के दोष बखाने। ते सब सिव पहि मैं अनुमाने॥
जौं बिबाहु संकर सन होई। दोषउ गुन सम कह सबु कोई॥414
जे जे - जो-जो
बर - वारंवार
के - का
दोष - दोष
बखाने - बताते हैं
ते - वे
सब - सभी
सिव - शिव
पहि - पर
मैं - मैं
अनुमाने - धारणा करता हूँ
जौं - जब
बिबाहु - विवाह
संकर - अनार्य व्यक्ति
सन - से
होई - होता है
दोषउ - दोष
गुन - गुण
सम - समान
कह - कहते हैं
सबु - सभी
कोई - कोई
इस दोहे में कहा गया है कि जो-जो दोष व्यक्त करते हैं, उन्हें मैं शिव के प्रति अनुमान करता हूँ। जब अनार्य व्यक्ति से विवाह होता है, तो सब लोग दोष और गुण को समान रूप से कहते हैं।
जौं अहि सेज सयन हरि करहीं। बुध कछु तिन्ह कर दोषु न धरहीं॥
भानु कृसानु सर्ब रस खाहीं। तिन्ह कहँ मंद कहत कोउ नाहीं॥415
जौं - जब
अहि - इस
सेज - बिसराम
सयन - सोने का
हरि - होता है
करहीं - करते हैं
बुध - ज्ञान
कछु - कुछ
तिन्ह - उन्हें
कर - करने
दोषु - दोष
न - नहीं
धरहीं - धारण करते हैं
भानु - सूर्य
कृसानु - चांद्रमा
सर्ब - सभी
रस - रस (सूखा)
खाहीं - खाते हैं
तिन्ह - उन्हें
कहँ - कोई
मंद - गलत
कहत - कहता है
कोउ - कोई
नाहीं - नहीं
इस दोहे में कहा गया है कि जब हम सोते समय भगवान का नाम लेते हैं, तो हमारे द्वारा किए गए कुछ गलत कर्मों का दोष नहीं लगता। सूर्य और चांद्रमा सभी रसों को चूसते हैं, लेकिन कोई भी उन्हें गलत नहीं कहता।
सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई। सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई॥
समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाई। रबि पावक सुरसरि की नाईं॥ 416
सुभ - अच्छा
अरु - और
असुभ - बुरा
सलिल - जल
सब - सभी
बहई - बहता है
सुरसरि - समुद्र
कोउ - कोई
अपुनीत - अपनीत (समान)
न - नहीं
कहई - कहता है
समरथ - सब प्रभु
कहुँ - कहूँ
नहिं - नहीं
दोषु - दोष
गोसाई - भगवान
रबि - सूर्य
पावक - अग्नि
सुरसरि - समुद्र
की - की
नाईं - बोलती है
इस दोहे में कहा गया है कि जल में अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के तत्व बहते हैं, लेकिन समुद्र को कोई अपनीत (समान) नहीं कहता। वैसे ही, सभी प्राणियों के लिए सूर्य और अग्नि समान रूप से होते हैं, लेकिन कोई उन्हें गलत नहीं कहता।
जौं अस हिसिषा करहिं नर जड़ि बिबेक अभिमान।
परहिं कलप भरि नरक महुँ जीव कि ईस समान॥ 417
"नर जड़, बुद्धिहीन और अभिमानी अपने हृदय की अज्ञानता में प्रवृत्त होते हैं।
ऐसे लोग आत्मा के समर्पण के बिना, कल्प भर नरक में भटकते रहते हैं, जीवन और मृत्यु के चक्र में इस प्राणी के जीवन की स्थिति एक समान होती है।"
यह श्लोक मनुष्य को अपने आत्मज्ञान और समर्पण की महत्ता के प्रति जागरूक करता है और उसे बुद्धिमत्ता और विवेकी जीवन जीने के लिए प्रेरित करता है।
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