अनिरुद्ध को बाण द्वारा नागपाश में बांधना तथा दुर्गा की कृपा से उसका मुक्त होना

अनिरुद्ध को बाण द्वारा नागपाश में बांधना तथा दुर्गा की कृपा से उसका मुक्त होना

सनत्कुमार जी बोले- हे व्यास जी ! जब दैत्यराज बाणासुर के द्वारपालों ने उनके पास जाकर उनकी पुत्री उषा के कक्ष में किसी पुरुष के होने की सूचना दी तो वे आश्यर्यचकि हुए और स्वयं वहां गए। तब क्रोधित बाणासुर ने उषा के साथ अनिरुद्ध को देखा । अनिरुद्ध बहुत सुंदर और बलशाली नवयुवक था। क्रोधित बाणासुर ने अपने सैनिकों को अनिरुद्ध को मारने की आज्ञा दी। जैसे ही बाणासुर के उन सैनिकों ने अनिरुद्ध पर हमला किया, उसने देखते ही देखते उन सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। जब बाणासुर ने अपने सैनिकों को इस प्रकार मरते हुए देखा, तब उसे समझ आ गया कि यह पुरुष बड़ा वीर और पराक्रमी है, जिसने अकेले ही इतने बलशाली सैनिकों को पल भर में ध्वस्त कर दिया है। तब बाणासुर ने स्वयं उससे युद्ध करने का निश्चय किया और अपनी विशाल सेना को भी बुला भेजा। फिर क्या था, अनिरुद्ध और बाणासुर के बीच बड़ा भयानक युद्ध होने लगा। तब वीर अनिरुद्ध ने दैत्यराज बाणासुर को निशाना बनाकर एक दिव्य शक्ति छोड़ी, जिससे बाणासुर को भयानक चोट पहुंची। चोट खाकर उसे समझ आ गया कि इस महाबली और पराक्रमी मनुष्य को सीधे-सीधे युद्ध द्वारा हराना असंभव है। यह सोचकर बाणासुर ने अपनी राक्षसी माया का सहारा लिया और उसी क्षण वहां से अंतर्धान हो गया। एकदम अचानक से जब दैत्यराज सामने से गायब हो गया तो अनिरुद्ध को बहुत आश्चर्य हुआ। वह घूम-घूमकर इधर-उधर बाणासुर को तलाश कर ही रहा था कि बाणासुर ने छलपूर्वक अनिरुद्ध को नागपाश में बांध दिया और अपने सैनिकों को आदेश दिया कि इसे ले जाकर किसी अंधे कुएं में धकेल दो, ताकि यह जिंदा ही न बचे।अपने स्वामी दैत्यराज बाणासुर का आदेश सुनकर कुंभाण्ड बोला- हे दैत्येंद्र! युद्ध और पराक्रम में तो यह भगवान विष्णु के समान है और साहस में शशिमौलि के समान है। इस प्रकार से नागपाश में बंधकर भी यह डर नहीं रहा है और पुरुषार्थ की बातें कर रहा है। फिर वह अनिरुद्ध से बोला -ऐ मूर्ख बालक! तू महाबली दैत्यराज बाणासुर से अपनी समानता क्यों करता है? तू उनके सामने झुककर उनसे मांफी मांग और अपनी हार मान ले। वे निश्चय ही तुझे क्षमा कर नागपाश से मुक्त कर देंगे। 

दैत्यराज बाणासुर के उस सेवक के वचनों को सुनकर अनिरुद्ध क्रोधित होकर बोला- ओ दुराचारी निशाचर! शायद तुझे क्षत्रिय धर्म के बारे में कुछ पता नहीं है। शूरवीर के लिए युद्ध में पीठ दिखाना मरने से भी बढ़कर है। मैं इस अधर्मी से माफी मांगने से अच्छा युद्ध में लड़ते हुए प्राण त्यागना पसंद करूंगा परंतु इस अभिमानी के आगे बिलकुल नहीं झुकूंगा। यह सुनकर दैत्येंद्र बाणासुर का क्रोध सातवें आसमान पर जा चढ़ा। इससे पूर्व कि वह कुछ करता आकाशवाणी हुई- बाणासुर तुम भगवान शिव के परम भक्त और महाराज बलि के पुत्र हो। तुम्हें इस प्रकार क्रोध करना शोभा नहीं देता। तुम जानते हो कि भगवान शिव सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण का आश्रय लेकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश के रूप में सृष्टि, भरण-पोषण और संहार करते हैं। वे अंतर्यामी और सबके ईश्वर हैं। भगवन् अनेक लीलाओं के रचयिता हैं और गर्व को चूर कर देते हैं। वे तुम्हारे गर्व को भी चकनाचूर कर देंगे। आकाशवाणी सुनकर बाणासुर ने अनिरुद्ध का वध करने का विचार छोड़ दिया और अनिरुद्ध को जेल में छोड़कर चला गया। नागपाश में बंधे हुए अनिरुद्ध को बड़ा कष्ट हो रहा था। उसने दोनों हाथ जोड़कर कल्याण स्वरूपा मां जगदंबा देवी दुर्गा का स्मरण कर उनकी आराधना आरंभ कर दी। अनिरुद्ध बोला- हे माता! आप अपने शरणागतों की रक्षा करने वाली तथा उन्हें यश प्रदान करने वाली हैं। देवी! मैं नागपाश में बंधा हूं और नागों के जहर की ज्वाला मुझे जला रही है। हे माता! मेरी रक्षा कीजिए। अनिरुद्ध की इस प्रकार अनुरोध भरी विनम्र प्रार्थना सुनकर देवी कालिका वहां प्रकट हो गईं और उन्होंने अपने जोरदार मुक्कों के प्रहार से पल भर में ही उसे नागपाश से मुक्त कर दिया तथा अंतर्धान हो गईं। नागपाश से मुक्त होते ही अनिरुद्ध को अपनी प्रिया उषा की याद सताने लगी और वह पुनः देवी उषा के पास चला गया। उषा अनिरुद्ध को देखकर बहुत प्रसन्न हुई और उसके गले लग गई। तब वे दोनों सुखपूर्वक विहार करने लगे।
श्रीरुद्र संहिता ( पंचम खंड) तिरेपनवां अध्याय समाप्त

श्रीकृष्ण द्वारा राक्षस सेना का संहार

महर्षि व्यास बोले – हे मुनिश्रेष्ठ सनत्कुमार जी ! जब कुष्माण्ड नामक दैत्य की पुत्री और - उषा की सखी चित्रलेखा ने श्रीकृष्ण की नगरी द्वारका जाकर वहां से सोते हुए उनके पोते अनिरुद्ध का अपहरण कर लिया तब श्रीकृष्ण ने क्या किया? इससे आगे की कथा से मुझे अवगत कराइए। महर्षि व्यास के इस विनम्र आग्रह को सुनकर ब्रह्मापुत्र सनत्कुमार जी बोले- हे व्यास जी! जब चित्रलेखा रात्रि के समय सोते हुए कुमार अनिरुद्ध को उठाकर ले गई और वहां सुबह द्वारका में जब अनिरुद्ध अपने कक्ष में न दिखाई दिए तो उनकी तलाश आरंभ की गई परंतु वे जब द्वारका में थे ही नहीं तो मिलते कहां से? जब अनिरुद्ध की माता आदि अन्य स्त्रियों को यह पता चला कि कुमार अनिरुद्ध अपने महल से गायब हैं तो वहां रोना-पीटना मच गया। सब स्त्रियां रो-रोकर श्रीकृष्ण से अनिरुद्ध को ढूंढकर ले आने की प्रार्थना कर रही थीं। श्रीकृष्ण भी बड़े परेशान थे कि आखिर अनिरुद्ध महल से गायब कहां हो गया? तभी वहां भगवान श्रीकृष्ण के राजमहल में देवर्षि नारद का आगमन हुआ। नारद ने भगवान श्रीकृष्ण को चिंतित देखा तो अपनी आदत के अनुसार सारी बातें उन्हें बता दीं। सबकुछ जानकर भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी अक्षौहिणी सेना के साथ दैत्यराज बाणासुर की राजधानी शोणितपुर पर चढ़ाई कर दी। प्रद्युम्न, युयुधान, सांब, सारण, नंद, उपनंद, बलभद्र और कृष्ण के सभी अनुवर्ती इस युद्ध में उनके साथ थे। जब इस प्रकार भक्तवत्सल भगवान शिव ने अपने परम भक्त बाणासुर पर संकट को आते देखा तो वे स्वयं श्रीकृष्ण से युद्ध करने के लिए आगे आ गए, क्योंकि शिवजी सदा ही अपने भक्तों के अधीन रहते हैं। तब भगवान शिव और श्रीकृष्ण की सेना में बड़ा भयानक युद्ध आरंभ हो गया। दोनों सेनाएं एक दूसरे पर विविध दिव्यास्त्रों का प्रयोग कर रही थीं। दोनों में से कोई भी सेना हार मानने को तैयार नहीं थी। तब भगवान श्रीकृष्ण स्वयं देवाधिदेव भगवान शिव के पास गए और हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम कर उनकी स्तुति करने लगे। श्रीकृष्ण बोले- हे देवाधिदेव ! हे भक्तवत्सल! हे करुणानिधान! भगवान शिव ! आप सब प्रकार के गुणों से प्रकाशित हैं और अपने दुखों में डूबे हुए भक्तों को दुखों के सागर से उबारते हैं। भगवन्! आज आप क्यों इस संसार की माया मैं लिप्त हो रहे हैं। प्रभु! यह तो आपके आदेश के अनुसार ही हो रहा है। पूर्व में आपने ही गर्व से भरे दैत्यराज बाणासुर को शाप दिया था कि उसकी एक हजार भुजाओं का नाश शीघ्र ही होगा। इस समय मैं तो आपके उसी शाप को फलीभूत करने के लिए ही आया हूं। इसलिए आप अपनी आज्ञा प्रदान करें और शाप को पूरा होने दें। श्रीकृष्ण के इस प्रकार के वचन सुनकर देवाधिदेव भगवान शिव बोले-तात! आप सही कह रहे हैं परंतु आप तो जानते ही हैं कि मैं सदा अपने ही भक्तों के वश में रहता हूं। इसलिए अपने भक्त बाणासुर की रक्षा करने के लिए ही मैं आपसे युद्ध करने को उद्यत हुआ हूं। आपको भी अपना कार्य पूर्ण करना है और शाप को भी पूरा करना है इसलिए दैत्यराज बाणासुर से युद्ध करने से पहले आप मुझे जृंभणास्र नामक शस्त्र द्वारा जीम्भ्रण कर दीजिए फिर अपने कार्य को पूरा कीजिएगा। भगवान शिव की आज्ञा का पालन करते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने तुरंत जृम्भणास्त्र नामक अस्त्र छोड़ा, जिसके फलस्वरूप भगवान शिव जीम्भत हो गए और मोहित होकर युद्ध को भूल गए। तब भगवान श्रीकृष्ण खड्ग, गदा और ऋष्टि आदि अस्त्रों से दैत्यराज बाणासुर की विशाल सेना का संहार करने लगे।
श्रीरुद्र संहिता ( पंचम खंड) चौवनवां अध्याय समाप्त

टिप्पणियाँ