अंधक की अंधता 'युद्ध आरंभ, युद्ध की समाप्ति

अंधक की अंधता  'युद्ध आरंभ, युद्ध की समाप्ति

अंधक की अंधता

नत्कुमार जी बोले- हे व्यास जी !एक बार हिरण्याक्ष के पुत्र अंधक से उसके भाइयों ने मजाक उड़ाते हुए कहा - अंधक ! तुम तो अंधे और कुरूप हो! भला तुम राज्य का क्या करोगे? दैत्यराज हिरण्याक्ष तो मूर्ख थे, जो भगवान शिव की इतनी कठोर तपस्या कर उन्हें प्रसन्न करके भी तुम जैसा कुरूप, नेत्रहीन और बेडौल पुत्र वरदान में प्राप्त किया। कभी दूसरे से प्राप्त पुत्र का भी पिता की संपत्ति पर अधिकार होता है? इसलिए इस राज्य के स्वामी हम ही हैं, तुम तो हमारे सेवक हो । अपने भाइयों के इस प्रकार के कटु वचनों को सुनकर अंधक निराश और उदास हो गया। रात के समय जब सब सो रहे थे तो वह अपने राजमहल को छोड़कर निर्जन सुनसान और भयानक डरावने वन में चला गया। वहां उस सुनसान वन में जाकर उसने तपस्या आरंभ कर दी। वह दस हजार वर्षों तक घोर तपस्या करता रहा परंतु जब कोई परिणाम नहीं निकला तो उसने अपने शरीर को अग्नि में जलाकर होम करना चाहा। ठीक उसी समय स्वयं ब्रह्माजी वहां प्रकट हो गए। ब्रह्माजी बोले- पुत्र अंधक! मांगो क्या मांगना चाहते हो? मैं तुम्हारी तपस्या से बहुत प्रसन्न हूं। तुम अपना इच्छित वर मांग सकते हो। मैं तुम्हारी मनोकामना अवश्य ही पूरी करूंगा। यह सुनकर अंधक बहुत प्रसन्न हुआ। उसने हाथ जोड़कर ब्रह्माजी की स्तुति की और बोला- हे कृपानिधान ब्रह्माजी! यदि आप मुझ पर प्रसन्न होकर मुझे कोई वर देना चाहते हैं तो आप कुछ ऐसा करें कि मेरे निष्ठुर भाइयों ने जो मुझसे मेरा राज्य छीन लिया है, वे सब मेरे अधीन हो जाएं। मेरे नेत्र ठीक हो जाएं अर्थात मुझे दिव्य-दृष्टि की प्राप्ति हो तथा मुझे कोई भी न मार सके वह देवता, गंधर्व, यक्ष, किन्नर, मनुष्य, नारायण अथवा स्वयं भगवान शिव ही क्यों न हों। अंधक के इन वचनों को सुनकर ब्रह्माजी बोले- हे अंधक ! तुम्हारे द्वारा कही हुई दोनों बातों को मैं स्वीकार करता हूं परंतु इस संसार में कोई भी अजर- अमर नहीं है। सभी को एक न एक दिन काल का ग्रास बनना पड़ता हैं। मैं सिर्फ तुम्हारी इतनी मदद कर सकता हूं कि जिस प्रकार की और जिसके हाथ से तुम चाहो अपनी मृत्यु प्राप्त कर सकते हो। तब ब्रह्माजी के वचन सुनकर अंधक कुछ देर के लिए सोच में डूब गया। फिर बोला – हे - प्रभु! तीनों कालों की उत्तम, मध्यम और नीच नारियों में से जो भी नारी सबकी जननी हो, सबमें रत्न हो, जो सब मनुष्यों के लिए दुर्लभ तथा शरीर व मन के लिए अगम्य है, उसको अपने सामने पाकर जब मेरे अंदर काम भावना उत्पन्न हो, उसी समय मेरा नाश हो। इस प्रकार का वरदान सुनकर ब्रह्माजी ने 'तथास्तु' कहा और उससे बोले - दैत्येंद्र ! तेरे सभी वचन अवश्य ही पूरे होंगे। अब तू जाकर अपना राज्य संभाल। ब्रह्माजी के वचन सुनकर अंधक बोला- हे भगवन्! अब मेरा शरीर इस लायक नहीं रहा कि मैं युद्ध कर सकूं। अब तो मेरे शरीर में सिर्फ नसें और हड्डियां ही बची हैं। अब मैं कैसे युद्ध कर पाऊंगा और अपनी शत्रु सेना को परास्त कर पाऊंगा। इस प्रकार के वचनों को सुनकर ब्रह्माजी मुस्कुराए और उन्होंने अंधक के शरीर का स्पर्श किया। उनके स्पर्श करते ही अंधक का शरीर भरा-पूरा हो गया। अब वह परम शक्तिशाली योद्धा जान पड़ता था,


सामने अच्छे से अच्छा वीर भी न टिक पाए। जिसके इस प्रकार अंधक को मनोवांछित वर देकर ब्रह्माजी वहां से अंतर्धान हो गए। तत्पश्चात अंधक भी प्रसन्नतापूर्वक अपने घर की ओर चल दिया। जब अंधक ने अपने राज्य में प्रवेश किया तो यह जानकर कि अंधक को ब्रह्माजी से वरदान प्राप्त हुआ है, सारे दानव उसके वश में होकर उसके दास बनकर रहने लगे। तब अंधक ने विचार किया कि हमें दैत्य साम्राज्य का विस्तार करना चाहिए और अपने घोर शत्रु देवताओं को पराजित करके, उनके राज्य पर अपना अधिकार स्थापित कर लेना चाहिए। यह सोचकर दैत्यराज अंधक ने अपनी विशाल दैत्य सेना के साथ स्वर्गलोक पर आक्रमण कर दिया और स्वर्ग पर अपना आधिपत्य जमाकर देवराज इंद्र को अपना बंधक बना लिया। तत्पश्चात उसने नागों, सुपर्णी, श्रेष्ठ राक्षसों, गंधर्वों, यक्षों, मनुष्यों, ऊंचे-ऊंचे पर्वतों और भयानक वृक्षों और सिंहों को भी युद्ध में परास्त कर अपने अधीन कर लिया। अंधक मदांध होकर कुमार्गी हो गया। उसने स्वर्ग, भूतल और रसातल की सर्वश्रेष्ठ सुंदरियों को अपनाकर उनके साथ रमणीय विहार किया। दिन पर दिन वह बुराई के दलदल में धंसता जा रहा था। उसने वैदिक धर्म का पूर्णतया त्याग कर दिया था।  एक दिन उसके दुर्योधन, वैधस और हस्ती नामक तीनों मंत्री उसके पास आए और बोले - हे दैत्येंद्र ! हमने मंदराचल पर्वत की एक गुफा में एक मुनि को देखा है जो कि योग ध्यान में मग्न आंखें बंद करके बैठा है। उस रूपवान मुनि के मस्तक पर अर्द्धचंद्र, कमर में गजेंद्र की खाल बंधी है। सिर पर जटाजूट, गले में खोपड़ियों की माला तथा उसके शरीर पर बड़े भयानक सांप लिपटे हुए हैं। उस मुनि के एक हाथ में त्रिशूल तो दूसरे में डमरू है। अपने गौर अंगों पर उसने भस्म लपेट रखी है। उस तपस्वी का वेष बड़ा ही अद्भुत है। साथ ही एक विकराल वानर अनेक आयुधों को धारण किए उस तपस्वी की रक्षा कर रहा है। वहीं उनके पास में एक सफेद रंग का बैल बंधा हुआ है।उस तपस्वी के पास ही एक सुंदर रत्न स्वरूपा नारी बैठी है, जो संपूर्ण शुभ लक्षणों से युक्त है। उसका रूप बड़ा मनोहारी है, जो सभी के मन को मोह लेता है। उसने सुंदर मूंगे, मोती, मणियों और सोने के रत्नजड़ित आभूषणों को धारण किया हुआ है। वह इतनी रूपवती है कि जो उसे एक बार देख लेता है उसकी आंखों का होना सफल हो जाता है। उस परम सुंदरी को एक बार देख लेने के बाद संसार की अन्य किसी स्त्री को देखने की आवश्यकता ही न पड़ेगी। स्वामी! आप इस त्रिलोक के अधिपति हैं। आपके पास इस संसार की सभी बहुमूल्य और अमूल्य धरोहर हैं। ऐसी परम सुंदरी रूपवती नारी को भी आपके अनमोल राज्य की शोभा बढ़ानी चाहिए। अतः आप हमारे साथ चलें और उस सुंदरी को यहां ले आएं। अपने वीर मंत्रियों के इस प्रकार के वचन सुनकर दैत्येंद्र अंधक बहुत प्रसन्न हुआ और उसके मन में उस सुंदर नारी को देखने की इच्छा बलवती हो गई। उसने अपने मंत्रियों को आदेश दिया कि तुम शीघ्र वहां जाकर उस तपस्वी से उसकी सुंदर स्त्री को मांगकर मेरे पास ले आओ। अपने स्वामी दैत्यराज अंधक की आज्ञा पाकर वे तीनों मंत्री पुनः उसी स्थान पर गए और भगवान शिव से बोले—हे महातपस्वी ब्राह्मण ! हमारे स्वामी दैत्यराज अंधक आपकी भार्या की सुंदरता के विषय में जानकर उन पर मोहित हो गए हैं और उन्हें अपनी पटरानी बनाना चाहते हैं। आप सहर्ष उन्हें हमें सौंप दें। उनके ऐसे वचनों को सुनकर शिवजी को बहुत क्रोध आया परंतु वे फिर भी सिर्फ इतना ही बोले - दैत्यो! ये मेरी भार्या हैं। ये स्वयं शक्ति संपन्न और सिद्धिरूपा हैं। देवी स्वयं अपने भक्तों के कष्टों को दूर करती हैं। आप अपनी परेशानी इन्हें बताइए। ये अवश्य ही आपके दुखों को दूर करेंगी। भगवान शिव के ये वचन सुनकर क्रोधित और मदांध दैत्य और कुछ न बोले और वहां से वापस आ गए। तब दैत्यराज अंधक को उन्होंने वहां घटित हुई सारी बातें बढ़ा-चढ़ाकर बताईं, जिन्हें सुनकर दैत्येंद्र का क्रोध सातवें आसमान पर चढ़ गया। तब वह मूढ़ बुद्धि दैत्य सुंदरी को देखने के लिए आतुर हो उठा। उसने स्वयं वहां जाकर उस रत्नों में सर्वश्रेष्ठ रत्न को अपने साथ लाने का निश्चय किया।
श्रीरुद्र संहिता ( पंचम खंड) चवालीसवां अध्याय  समाप्त

युद्ध आरंभ

सनत्कुमार जी बोले- हे व्यास जी ! जब इस प्रकार अंधक के उन तीनों मंत्रियों ने वहां आकर अंधक को सब बताया तब क्रोधित होकर वह स्वयं वहां जाने को आतुर हो गया। तब मदिरापान करके वह अपनी विशाल सेना को साथ लेकर मंदराचल पर्वत की ओर चल दिया। वहां रास्ते में उसकी मुठभेड़ भगवान शिव के वीर गणों से हो गई। उनमें बड़ा भारी युद्ध हुआ। शिवगणों ने दैत्य सेना को मार-मारकर वहां से भगा दिया। वीर बलशाली दैत्य विरोचन, बलि, बाणासुर, सहस्रबाहु आदि बड़ी दृढ़ता से लड़े परंतु शिवगणों ने उन्हें वहां से खदेड़कर ही दम लिया। उस समय वहां की धरती रक्त से लाल हो गई। जब असुरों की सेना ने देखा कि वे किसी भी प्रकार से शिवजी के गणों को नहीं हरा पाएंगे, तब वे स्वतः ही वहां से लौट गए। उधर, जब वहां शांति हो गई, तब भगवान शिव अपनी प्रिया देवी पार्वती से बोले-हे प्रिये! मैं यहां पर अपने उत्तम पाशुपत व्रत का पालन करने के लिए आया था, परंतु यहां पर मेरे व्रत में विघ्न पड़ गया है। अतः अब मैं इस व्रत को यहां पर पूरा नहीं कर सकता। इस व्रत को पूरा करने के लिए मुझे पुनः किसी अन्य निर्जन स्थान पर जाना पड़ेगा। देवी तुम यहीं पर रहो और मैं किसी अन्यत्र स्थान पर जाकर अपने पाशुपत व्रत का अनुष्ठान पूरा करूंगा। यह कहकर भगवान शिव अपने व्रत को पूरा करने के लिए वहां से किसी दूसरे वन में चले गए और पार्वती देवी वहीं मंदराचल पर्वत पर एक गुफा में रहने लगीं। भगवान शिव निर्जन वन में जाकर अपने पाशुपत व्रत को पूरा करने के लिए घोर साधना करने लगे। उधर, दूसरी ओर देवी पार्वती वहां अकेली रहकर अपने पति भगवान शिव के लौटने की प्रतीक्षा करने लगीं। उनकी रक्षा के लिए भगवान शिव का गण वीरक सदा उनकी गुफा के बाहर पहरा देता रहता था। दूसरी ओर दैत्यराज अंधक को, जिसे एक बार शिवगणों ने परास्त करके वहां से खदेड़ दिया था, देवी को प्राप्त किए बिना चैन कहां आने वाला था। उसने पुनः मंदराचल पर्वत पर चढ़ाई कर दी। जैसे ही अंधक और उसकी दानव सेना पर्वत पर पहुंची, वीरक ने उनसे युद्ध करना आरंभ कर दिया। महाबली वीरक बड़ी वीरता से उन दैत्यों से युद्ध करता रहा और उन्हें हराता रहा। उनके बीच भयानक अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग होता रहा। जब किसी भी तरह वीरक को युद्ध में पराजित करना संभव न हुआ, तो दैत्यों ने वीरक को चारों ओर से मिलकर घेर लिया।  जब गुफा के अंदर बैठीं देवी पार्वती को यह ज्ञात हुआ कि उनका प्रिय रक्षक चारों ओर से दानवों से घिर चुका है तो उन्होंने अलौकिक रीति से ब्रह्मा, विष्णु और देवताओं का मन में स्मरण किया। यह ज्ञात होते ही कि जगत जननी जगदंबा मां पार्वती ने स्मरण किया है, पल भर में सब देवता वहां मंदराचल पर्वत पर उपस्थित हो गए और दैत्यों से युद्ध करने लगे। जब वीरक ने देखा कि अब वह अकेला नहीं है, उसके साथ पूरी देव सेना खड़ी है तो वह हर्षित मन से पुनः युद्ध में लग गया और तब उसका जोश देखते ही बनता था। देवताओं ने ब्राह्मी, नारायणी, ऐंद्री, वैश्वानरी, याम्या, नैर्ऋति, वारुणी, वायवी, कौबेरी, यक्षेश्वरी और गारुड़ी देवी का रूप धारण किया हुआ था। अनेकों आयुधों से सुसज्जित होकर वे युद्ध कर रहे थे। इस प्रकार इस भीषण युद्ध को चलते-चलते कई हजार वर्ष बीत गए। देव सेना जितने भी असुरों को मारती, दैत्य गुरु शुक्राचार्य अपनी मृत संजीवनी विद्या से पल भर में उन्हें पुनः जीवित कर देते। इस प्रकार दैत्य सेना न कम हो रही थी और न ही वह हार मान रही थी। युद्ध दिन-प्रतिदिन और भयानक होता जा रहा था। भगवान शिव भी अपना पाशुपत व्रत पूरा करके वहां मंदराचल पर्वत पर वापस आ गए।
श्रीरुद्र संहिता ( पंचम खंड) पैंतालीसवां अध्याय  समाप्त

युद्ध की समाप्ति

सनत्कुमार जी बोले- हे महामुनि! जब भगवान शिव पाशुपत - व्रत को पूरा करने के पश्चात मंदराचल पर्वत पर लौटे तो उन्होंने देखा कि दैत्येंद्र अंधक ने अपनी विशाल सेना के साथ पुनः आक्रमण कर दिया है। उनके वीर गण और अनेकों रूप धारण किए देवियां अंधक और उसकी सेना से युद्ध कर रही हैं। यह देखकर भगवान शिव को बहुत क्रोध आया कि मेरी अनुपस्थिति में इस दुष्ट दैत्य ने मेरी पत्नी को परेशान किया है। क्रोधित देवाधिदेव महादेव जी अंधक से युद्ध करने लगे परंतु दैत्येंद्र बहुत चालाक था। उसने गिल नामक दैत्य को आगे कर दिया। स्वयं उसने दैत्य सेना सहित गुफा के आस-पास के वृक्षों और लताओं को तोड़ दिया। तत्पश्चात उस दैत्य अंधक ने एक-एक करके सबको निगलना शुरू कर दिया। अंधक ने नंदीश्वर सहित ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र, सूर्य और चंद्रमा व समस्त देवताओं को निगल लिया। यह देखकर भगवान शिव को बहुत क्रोध आया। उन्होंने अंधक पर अपने तीक्ष्ण बाणों का प्रहार करना शुरू कर दिया, जिसके फलस्वरूप दैत्यराज ने विष्णु सहित ब्रह्मा, सूर्य, चंद्रमा और अन्य देवताओं को वापस उगल दिया। उधर, शिवगणों ने देखा कि दैत्यगुरु युद्ध में मारे गए राक्षसों को अपनी संजीवनी विद्या से पुनः जीवित कर रहे हैं। इसी कारण दैत्यों का मनोबल कम नहीं हो रहा है। तब शिवगणों ने चतुराई का परिचय देते हुए दैत्यगुरु शुक्राचार्य को बंधक बना लिया और उन्हें भगवान शिव के पास ले गए। जब शिवगणों ने यह बात भगवान शिव को बताई तो क्रोधित शिवजी ने शुक्राचार्य को निगल लिया। शुक्राचार्य के वहां से गायब हो जाने पर दैत्यों का मनोबल गिर गया और वे भयभीत हो गए। यह देखकर देवसेना ने उन दैत्यों को मार-मारकर व्याकुल कर दिया। इस प्रकार युद्ध और भीषण होता जा रहा था। दैत्यराज अंधक ने अब युद्ध को जीतने के लिए माया का सहारा लिया। भगवान शिव और अंधक के बीच सीधा युद्ध शुरू हो गया। भगवान शिव अपने प्रिय त्रिशूल से लड़ रहे थे। युद्ध करते-करते दैत्यराज के शरीर पर शिवजी जैसे ही त्रिशूल का प्रहार करते, उसके शरीर से निकले हुए रक्त से बहुत से दैत्य उत्पन्न हो जाते और युद्ध करने लगते। यह देखकर देवताओं ने देवी चण्डिका की स्तुति की, तब चण्डिका तुरंत युद्धभूमि में प्रकट हो गईं और उन्होंने भगवान शिव को प्रणाम किया। शिवजी का आदेश पाकर देवी चण्डिका उस अंधक नामक असुर के शरीर से निकलने वाले रक्त को पीने लगीं। इस प्रकार अंधक का रक्त जमीन पर गिरना बंद हो गया और उससे उत्पन्न होने वाले राक्षस भी उत्पन्न होने बंद हो गए। फिर भी अंधक अपनी पूरी शक्ति से युद्ध करता रहा। उसने भगवान शिव पर बाणों से प्रहार करना शुरू कर दिया। युद्ध करते-करते भगवान शिव ने अंधक का संहार करने के लिए त्रिशूल का जोरदार प्रहार उसके हृदय पर किया और उसे भेद दिया। उन्होंने उसे ऐसे ही ऊपर उठा लिया। सूर्य की तेज किरणों ने उसके शरीर को जला दिया। इससे उसका शरीर जर्जर हो गया। मेघों से तेज जल बरसा और वह गीला हो गया। फिर हिमखण्डों ने उसे विदीर्ण कर दिया। इस पर भी दैत्यराज अंधक के प्राण नहीं निकले। अपनी ऐसी अवस्था देखकर अंधक को बहुत दुख हुआ। वह हाथ जोड़कर देवाधिदेव भगवान शिव की स्तुति करने लगा। भगवान शिव तो भक्तवत्सल हैं और सदा ही अपने भक्तों के अधीन रहते हैं। तब भला वे अंधक पर कैसे प्रसन्न न होते? उन्होंने अंधक को क्षमा करके अपना गण बना लिया। युद्ध समाप्त हो गया। सब देवता हर्षित होकर भगवान शिव की स्तुति करने लगे। भगवान शिव देवी पार्वती को साथ लेकर अपने गणों सहित कैलाश पर्वत पर चले गए। सभी देवता अपने-अपने लोकों को वापस लौट गए।
श्रीरुद्र संहिता ( पंचम खंड) छियालीसवां अध्याय  समाप्त

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