वीरभद्र अपनी अजय सेना के साथ यज्ञ मण्डप में आ पहुंचा। श्रीहरि और वीरभद्र का युद्ध

वीरभद्र अपनी अजय सेना के साथ यज्ञ मण्डप में आ पहुंचा। श्रीहरि और वीरभद्र का युद्ध 

ब्रह्मा जी ने दक्ष को समझाते हुए विशेष रूप से कहा - "दक्ष, तुम्हें शिव भगवान के प्रति अदर्शन और उनके अपमान की दृष्टि से मुक्त होकर तत्वज्ञान का अध्ययन करना चाहिए। भगवान शिव सर्वशक्तिमान हैं और उनकी आज्ञा का उल्लंघन करना अत्यधिक घातक है।"श्रीहरि ने उसको यह भी समझाया कि कर्म को सफलता प्राप्त करने के लिए श्रद्धा और भक्ति की आवश्यकता होती है, और इसमें भगवान की पूजा का महत्व है। वह दक्ष को यह सिखाए गए कि शिव भगवान का सम्मान करना और उनकी पूजा-अर्चना करना किसी भी कर्म को सफल बना सकता है।

वीरभद्र अपनी अजय सेना के साथ यज्ञ मण्डप में आ पहुंचा।


दक्ष बोले- हे विष्णु ! कृपानिधान! में बहुत भयभीत हूँ। आपको ही मेरी और मेरे यज्ञ की रक्षा करनी है। प्रभु! आप ही इस यज्ञ के रक्षक हैं। आप साक्षात यज्ञस्वरूप हैं। आप हम सब पर अपनी कृपादृष्टि बनाइए हम सब आपकी शरण में आए हैं। प्रभु! हमारी रक्षा करें, ताकि यज्ञ का विनाश न हो। ब्रह्मा जी कहते है- हे मुनि नारद। इस प्रकार जब दक्ष ने भगवान विष्णु के चरणों में गिरकर उनसे प्रार्थना की, उस समय दक्ष का मन भय से बहुत अधिक व्याकुल था। तब श्रीहरि ने दक्ष को उठाकर अपने मन में करुणानिधान भगवान शिव का स्मरण किया और शिवतत्व के ज्ञाता श्रीहरि दक्ष को समझाते हुए बोले- दक्ष! तुम्हें तत्व का ज्ञान नहीं है, इसलिए तुमने सबके अधिपति भगवान शंकर की अवहेलना की है। भगवान की स्तुति के बिना कोई भी कार्य सफल नहीं हो सकता। उस कार्य में अनेक परेशानियां आती हैं। जहां पूजनीय व्यक्तियों की पूजा नहीं होती, वहां गरीबी, मृत्यु तथा भय का निवास होता है। इसलिए तुम्हें भगवान शिव का सम्मान करना चाहिए। परंतु तुमने महादेव का सम्मान और आदर-सत्कार नहीं किया, अपितु तुमने उनका घोर अपमान किया है। इसी के कारण तुम्हारे ऊपर घोर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। में तुम पर छाए इस संकट से तुम्हें उबारने में पूर्णतः असमर्थ हूँ। ब्रह्माजी कहते हैं - नारद! भगवान विष्णु का वचन सुनकर दक्ष सोच में डूब गया। उसके चेहरे का रंग उड़ गया और वे घोर चिंता में पड़ गए। तभी भगवान शिव द्वारा भेजे गए गण सहित वीरभद्र और महाकाली का उनकी सेनाओं सहित उस यज्ञशाला में प्रवेश हुआ। वे सभी महान पराक्रमी थे। उनकी गणना करना असंभव था। उनके सिंहनाद से सारी दिशाएं। गूंज रही थीं। पूरे आसमान में धूल और अंधकार के बादल छाए हुए थे। पूरी पृथ्वी पर्वतों, वनों और काननों सहित कांप रही थी। समुद्रों में ज्वार भाटा उठ रहा था। उस विशालकाय सेना को देखकर समस्त देवता आश्चर्यचकित थे। उन्हें देखकर दक्ष अपनी पत्नी के साथ भगवान विष्णु के चरणों में गिर पड़े और बोले—हे प्रजापालक विष्णु ! आपके बल से ही मैने इस विशाल यज्ञ का आयोजन किया था। प्रभु! आप कर्मों के साक्षी तथा यज्ञों के प्रतिपालक हैं। आप ही धर्म के रक्षक हैं। अतः प्रभु श्रीहरि आप ही यज्ञ को विनाश से बचा सकते हैं। इस प्रकार दक्ष की विनतीपूर्ण बातों को सुनकर श्रीहरि उन्हें समझाते हुए बोले- - दक्ष! निक्षय ही मुझे इस यज्ञ की रक्षा करनी चाहिए परंतु देवताओं के क्षेत्र नैमिषारण्य की उस घटना का स्मरण करो। इस यज्ञ के आयोजन में क्या तुम उस घटना को भूल गए हो? यहां इस यज्ञशाला की और तुम्हारी रक्षा करने में कोई भी देवता समर्थ नहीं है। इस समय जब महादेव जी के गण और उनके सेनापति वीरभद्र तुम्हें भगवान शिव का अपमान करने का दंड देने आए हैं, उस समय कोई मूर्ख ही तुम्हारी सहायता को आगे आ सकता है। दक्षा! केवल कर्म ही समर्थ नहीं होता, अपितु कर्म को करने में जिसके सहयोग की आवश्यकता होती है, उसका भी उतना ही महत्व है। भगवान शिव ही कर्मों के कल्याण की शक्ति देते हैं। जो शांत मन से भक्तिपूर्वक उनकी पूजा-अर्चना करता है, महादेव जी उसे तत्काल ही उस कर्म का फल देते हैं। जो मनुष्य ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानते, वे नरक के भागी होते हैं। दक्ष! यह वीरभद्र शंकर के गणों का ऐसा सेनापति है, जो शिवजी के शत्रु का तुरंत नाश कर देता है। निःसंदेह यह तुम्हारा तथा यहां पर उपस्थित सभी लोगों का नाश कर देगा। शिवजी की आज्ञा का उल्लंघन करके, में तुम्हारे यज्ञ में आया हूँ, जिसका दुष्परिणाम मुझे भी भोगना पड़ेगा। अब इस विनाश को रोकने की शक्ति मेरे पास नहीं है। यदि हम यहां से भागकर स्वर्ग, पाताल और पृथ्वी कहीं भी छिप जाएं, तो भी वीरभद्र के शस्त्र हमें ढूंढ़ लेंगे। शिवजी के सभी गण बहुत शक्तिशाली हैं। विष्णुजी यह कह ही रहे थे कि वीरभद्र अपनी अजय सेना के साथ यज्ञ मण्डप में आ पहुंचा।
कथा से हमें यह सिखने को मिलता है कि दिव्य शक्तियों के साथ युद्ध करने से पहले हमें उनकी पूजा और आदर करना चाहिए। भगवान की आज्ञा का पालन करने से ही किसी भी कर्म में सफलता प्राप्त हो सकती है।
श्रीरुद्र संकेत-लिपि द्वितीय खंड पैंतीसवां अध्याय समाप्त

श्रीहरि और वीरभद्र का युद्ध

यह एक पौराणिक कथा है जो हिन्दू धर्म के अनुसार ब्रह्मा जी, नारद, शिवजी, वीरभद्र, इंद्र, बृहस्पति, और भगवान विष्णु के बीच हुई एक घटना को वर्णित करती है। इस कथा में वीरभद्र को भगवान शिव के अवतार के रूप में देखा जाता है जो शिवजी की आज्ञा से यज्ञ के स्थल में पहुंचता है और वहां देवताओं के साथ युद्ध करता है।
ब्रह्माजी कहते हैं-नारदा जब शिवजी की आज्ञा पाकर वीरभद्र की विशाल सेना ने यज्ञशाला में प्रवेश किया तो वहां उपस्थित सभी देवता अपने प्राणों की रक्षा के लिए शिवगणों से युद्ध करने लगे परंतु शिवगणों की वीरता और पराक्रम के आगे उनकी एक न चली। सारे देवता पराजित होकर वहां से भागने लगे। तब इंद्र आदि लोकपाल युद्ध के लिए आगे आए। उन्होंने गुरुदेव बृहस्पति जी को नमस्कार कर उनसे विजय के विषय में पूछा। उन्होंने कहा- हे गुरुदेव बृहस्पति! हम यह जानना चाहते हैं कि हमारी विजय कैसे होगी? उनकी यह बात सुनकर बृहस्पति जी बोले- हे इंद्र! समस्त कर्मों का फल देने वाले तो ईश्वर हैं। सभी को अपनी करनी का फल अवश्य भुगतना पड़ता है। जो ईश्वर के अस्तित्व को जानकर और समझकर उनकी शरण में आकर अच्छे कर्म करता है उसी को उसके सत्कर्मों का फल मिलता है परंतु जो ईश्वर की आज्ञा के विरुद्ध कार्य करता है, वह ईश्वरद्रोही कहलाता है और उसे किसी भी अच्छे फल की प्राप्ति नहीं होती। उन परमपुण्य भगवान शिव के स्वरूप को जानना अत्यंत कठिन है। वे सिर्फ अपने भक्तों के ही अधीन हैं। इसलिए उन्हें भक्तवत्सल भी कहा जाता है। भक्ति और ईश्वर सत्ता में विश्वास न रखने वाले मनुष्य यदि वेदों का दस हजार बार भी अध्ययन कर लें तो भी भगवान शिव के स्वरूप को भली-भांति नहीं जान पाएंगे। भगवान शिव के शांत, निर्विकार एवं उत्तम दृष्टि से ध्यान करने एवं उनकी उपासना करने से ही शिवतत्व की प्राप्ति होती है। तुम उन करुणानिधान भगवान महेश्वर की अवहेलना करने वाले उस मूर्ख दक्ष के निमंत्रण पर यहां इस यज्ञ में भाग लेने आ गए हो। भगवान शिव की पत्नी देवी सती का भी इस यज्ञ में घोर अपमान हुआ है। उन्होंने इसी यज्ञ में अपने प्राणों की आहुति दे दी है। इसी कारण भगवान शंकर ने रुट होकर इस यज्ञ का विध्वंस करने के लिए वीरभद्र के नेतृत्व में अपने शिवगणों को भेजा है। अब इस यज्ञ के विनाश को रोक पाना किसी के भी वश में नहीं है। अब चाहकर भी तुम लोग कुछ नहीं कर सकते। बृहस्पति जी के ये वचन सुनकर इंद्र सहित अन्य देवता चिंता में पड़ गए। सभी वीरभद्र और अन्य शिवगण उनके निकट पहुंच गए। वहां वीरभद्र ने उन सभी को बहुत डांटा और फटकारा। गुस्से से वीरभद्र ने इंद्र सहित सभी देवताओं पर अपने तीखे बाणों से प्रहार करना शुरू कर दिया। बाणों से घायल हुए सभी देवताओं में हाहाकार मच गया और वे अपने प्राणों की रक्षा के लिए यज्ञमण्डप से भाग खड़े हुए। यह देखकर वहां उपस्थित सभी ऋषि-मुनि भयभीत होकर श्रीहरि के सम्मुख प्राण रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगे। तब में और विष्णुजी वीरभद्र से युद्ध करने के लिए उनके पास गए। हमें देखकर वीरभद्र जो पहले से ही क्रोधित थे, हम सबको डांटने लगे। उनके कठोर वचनों को सुनकर विष्णुजी मुस्कुराते हुए बोले- हे शिवभक्त वीरभद्र में भी भगवान शिव का ही भक्त हूं। उनमें मेरी अपार श्रद्धा है। में उन्हीं का सेवक हूं परंतु दक्ष अज्ञानी और मूर्ख है। यह सिर्फ कर्मकाण्डों में ही विश्वास रखता है। जिस प्रकार महेश्वर भगवान अपने भक्तों के ही अधीन है उसी प्रकार में भी अपने भक्तों के ही अधीन हूं। दक्ष मेरा अनन्य भक्त है। उसकी बारंबार प्रार्थना पर मुझे इस यज्ञ में उपस्थित होना पड़ा। हे वीरभद्र! तुम रुद्रदेव के रौद्र रूप अर्थात क्रोध से उत्पन्न हुए हो। तुम्हें भगवान शंकर ने इस यज्ञ का विनाश करने के लिए यहां भेजा है। उनकी आज्ञा तुम्हारे लिए शिरोधार्य है । में इस यज्ञ का रक्षक हूँ। अतः इसे बचाना मेरा पहला कर्तव्य है। इसलिए तुम भी अपना कर्तव्य निभाओ और में भी अपना कर्तव्य निभाता हूं। हम दोनों को ही अपने उत्तरदायित्व की रक्षा के लिए आपस में युद्ध करना पड़ेगा। भगवान विष्णु के ये वचन सुनकर, वीरभद्र हंसकर बोला कि आप मेरे परमेश्वर भगवान शिव के भक्त हैं, यह जानकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई। भगवन्, में आपको नमस्कार करता हूँ। आप मेरे लिए भगवान शिव के समान ही पूजनीय हैं। में आपका आदर करता हूं परंतु शिव आज्ञा के अनुसार मुझे इस यज्ञ का विनाश करना है। यह मेरा कर्तव्य है। यज्ञ का रक्षक होने के नाते इसे बचाना आपका उत्तरदायित्व है। अतः हम दोनों को ही अपना-अपना कार्य करना है। तब श्रीहरि और वीरभद्र दोनों ही युद्ध के लिए तैयार हो गए। तत्पश्चात दोनों में घोर युद्ध हुआ। अंत में वीरभद्र ने भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र को जड़ कर दिया। उनके धनुष के तीन टुकड़े कर दिए। वीरभद्र विष्णुजी पर भारी पड़ रहे थे। तब उन्होंने वहां से अंतर्धान होने का विचार किया। सभी देवता व ऋषिगण यह समझ चुके थे कि यह जो कुछ हो रहा है, वह देवी सती के प्रति अन्याय और शिवजी के अपमान का ही परिणाम है। इस संकट की घड़ी में कोई भी उनकी रक्षा नहीं कर सकता। तब वे देवता और ऋषिगण शिवजी का स्मरण करते हुए अपने-अपने लोक को चले गए। में भी दुखी मन से अपने सत्यलोक को चला आया। उस यज्ञस्थल पर बहुत उपद्रव हुआ। वीरभद्र और महाकाली ने अनेकों मुनियों एवं देवताओं की प्रताड़ित करके उनका वध कर दिया। भृगु, पूषा और भग नामक देवताओं को उनकी करनी का फल देते हुए उन्हें पृथ्वी पर फेंक दिया।
कथा से सिखने को मिलता है कि भगवान के भक्तों की रक्षा के लिए वे हर समय तैयार रहते हैं और अगर उनकी आज्ञा आती है तो वे उनके नाम पर उत्तरदायित्व निभाते हैं। इसके अलावा, भक्ति, श्रद्धा और ईश्वर के प्रति समर्पण के माध्यम से भक्त शिवतत्व की प्राप्ति कर सकता है।
श्रीरुद्र संकेत-लिपि द्वितीय खंड छत्तीसवां अध्याय समाप्त

टिप्पणियाँ