अयोध्या वापसी श्री राम जी का द्वितीय भरत जी से मिले जानिए चौपाई भावार्थ सहित

अयोध्या वापसी श्री राम जी का(Shri Ram Ji's return to Ayodhya)

आश्विन माह में शुक्ल पक्ष की दसवीं तिथि को लंकापति रावण का वध करने के बाद श्रीराम कार्तिक अमावस्या के दिन अपने राज्य कौशल वापिस लौट रहे थे। लंका से कौशल आने की अवधि में वे विभिन्न स्थानों पर रूकते हुए आते है।
तुलसीदास कृत रामचरितमानस के अनुसार, -रावण वध के पश्चात जब श्रीराम की अयोध्या वापसी की बेला आई तो धर्म-अधर्म के इस युद्ध मे उनके साथी रहे नील, जामवंत, हनुमान, सुग्रीव आदि दुःखी हो गए। अपने साथियों की मन:स्थिति को भांपते हुए श्रीराम ने उन्हें भी अपने साथ चलने के लिये कहा।

भरत जी से मिले चौपाई भावार्थ सहित

चौपाई
परे भूमि नहिं उठत उठाए। बर करि कृपासिंधु उर लाए।। 
स्यामल गात रोम भए ठाढ़े। नव राजीव नयन जल बाढ़े ॥४॥
भावार्थः-
भरतजी पृथ्वी पर पड़े हैं, उठाए उठते नहीं। तब कृपासिंधु श्री रामजी ने उन्हें जबर्दस्ती उठाकर हृदय से लगा लिया। (उनके) साँवले शरीर पर रोएँ खड़े हो गए। नवीन कमल के समान नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं के) जल की बाढ़ आ गई।
छंद
राजीव लोचन स्रवत जल तन ललित पुलकावलि बनी। 
अति प्रेम हृदयै लगाइ अनुजहि मिले प्रभु त्रिभुअन धनी ।। 
प्रभु मिलत अनुजहि सोह मो पहिं जाति नहिं उपमा कही। 
जनु प्रेम अरु सिंगार तनु धरि मिले यर सुषमा लही ॥१॥
भावार्थः-
कमल के समान नेत्रों से जल बह रहा है। सुंदर शरीर में पुलकावली (अत्यंत) शोभा दे रही है। त्रिलोकी के स्वामी प्रभु श्री रामजी छोटे भाई भरतजी को अत्यंत प्रेम से हृदय से लगाकर मिले। भाई से मिलते समय प्रभु जैसे शोभित हो रहे हैं, उसकी उपमा मुझसे कही नहीं जाती। मानो प्रेम और श्रृंगार शरीर धारण करके मिले और श्रेष्ठ शोभा को प्राप्त हुए।
बूझत कृपानिधि कुसल भरतहि बचन बेगि न आवई॥ 
सुनु सिवा सो सुख बचन मन ते भिन्न जान जो पावई ।। 
अब कुसल कौसलनाथ आरत जानि जन दरसन दियो। 
बूड़त बिरह बारीस कृपानिधान मोहि कर गहि लियो ॥२॥
भावार्थः-
कृपानिधान श्री रामजी भरतजी से कुशल पूछते हैं, परंतु आनंदवश भरतजी के मुख से वचन शीघ्र नहीं निकलते। (शिवजी ने कहा-) हे पार्वती! सुनो, वह सुख (जो उस समय भरतजी को मिल रहा था) वचन और मन से परे है, उसे वही जानता है जो उसे पाता है। (भरतजी ने कहा-) हे कोसलनाथ! आपने आर्त्त (दुःखी) जानकर दास को दर्शन दिए, इससे अब कुशल है। विरह समुद्र में डूबते हुए मुझको कृपानिधान ने हाथ पकड़कर बचा लिया!
दोहा
पुनि प्रभु हरषि सत्रुहन भेंटे हृदयँ लगाइ।
लछिमन भरत मिले तब परम प्रेम दोउ भाइ॥5॥
भावार्थः-
फिर प्रभु हर्षित होकर शत्रुघ्नजी को हृदय से लगाकर उनसे मिले। तब लक्ष्मणजी और भरतजी दोनों भाई परम प्रेम से मिले॥।5॥
चौपाई
भरतानुज लछिमन पुनि भेटे। दुसह बिरह संभव दुख मेटे ।॥
 सीता चरन भरत सिरु नावा। अनुज समेत परम सुख पावा ॥१॥
भावार्थः-
फिर लक्ष्मणजी शत्रुघ्नजी से गले लगकर मिले और इस प्रकार विरह से उत्पन्न दुःसह दुःख का नाश किया। फिर भाई शत्रुघ्नजी सहित भरतजी ने सीताजी के चरणों में सिर नवाया और परम सुख प्राप्त किया।

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