शिव-सती का पवित्र चरित्र

शिव-सती का पवित्र चरित्र

शिव-सती 

सती और शंकरजी (भगवान शिव) के परम पवित्र और दिव्य चरित्र को वेदों, पुराणों और हिंदू धर्म के शास्त्रों में विस्तार से वर्णित किया गया है। यह चरित्र अनेक पुराणों और ग्रंथों में समाहित है, जिसमें सती और शंकरजी के भक्तिभाव, लीलाएं, और उनके धार्मिक उपदेशों का वर्णन है।

शिव-सती का पवित्र चरित्र

सूत जी बोले हे ऋषियो ! ब्रह्माजी के ये वचन सुनकर नारद जी पुनः पूछने लगे। हे ब्रह्माजी ! मैं सती और शंकरजी के परम पवित्र व दिव्य चरित्र को पुनः सुनना चाहता हूं कि सती की उत्पत्ति कैसे हुई और महादेव जी का मन विवाह करने के लिए कैसे तैयार हुआ ? दक्ष से नाराज होकर देवी सती ने अपनी देह को कैसे त्याग दिया और फिर कैसे हिमाचल की पुत्री पार्वती के रूप में जन्म लिया? उनके तप, विवाह, काम-नाश आदि की सभी कथाएं मुझे सविस्तार सुनाने की कृपा करें।

ब्रह्माजी बोले हे नारद! पहले भगवान शिव निर्गुण, निर्विकल्प, निर्विकारी और दिव्य थे परंतु देवी उमा से विवाह करने के बाद वे सगुण और शक्तिमान हो गए। उनके बाएं अंग से ब्रह्माजी उत्पन्न हुए और दाएं अंग से विष्णु उत्पन्न हुए। तभी से भगवान सदाशिव के तीन रूप ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र - सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता और संहारकर्ता के रूप में विख्यात हुए। उनकी आराधना करते हुए मैं सुरासुर सहित मनुष्य आदि जीवों की रचना करने लगा। मैंने सभी जातियों का निर्माण किया। मैंने ही मरीच, अत्रि, पुलह, पुलस्त्य, अंगिरा, क्रतु, वशिष्ठ, नारद, दक्ष और भृगु की उत्पत्ति की और ये मेरे मानस पुत्र कहलाए । तत्पश्चात, मेरे मन में माया का मोह उत्पन्न होने लगा। तब मेरे हृदय से अत्यंत मनोहारी और सुंदर रूप वाली नारी प्रकट हुई। उसका नाम संध्या था। वह दिन में क्षीण होती, परंतु रात में उसका रूप-सौंदर्य और निखर जाता था। वह सायं संध्या ही थी। संध्या निरंतर मंत्र का जाप करती थी। उसके सौंदर्य से ऋषि-मुनियों का मन भी भ्रमित हो जाता था। इसी प्रकार मेरे मन से एक मनोहर रूप वाला पुरुष भी प्रकट हुआ। वह अत्यंत सुंदर और अद्भुत रूप वाला था। उसके शरीर का मध्य भाग पतला था। वह काले बालों से युक्त था। उसके दांत सफेद मोतियों से चमक रहे थे। उसके श्वास से सुगंधि निकल रही थी। उसकी चाल मदमस्त हाथी के समान थी। उसकी आंखें कमल के समान थीं। उसके अंगों में लगे केसर की सुगंध नासिका को तृप्त कर रही थी। तभी उस रूपवान पुरुष ने विनयपूर्वक अपने सिर को मुझ ब्रह्मा के सामने झुकाकर, मुझे प्रणाम किया और मेरी बहुत स्तुति की। 
वह पुरुष बोला - ब्रह्मान्! आप अत्यंत शक्तिशाली हैं। आपने ही मेरी उत्पत्ति की है। प्रभु मुझ पर कृपा करें और मेरे योग्य काम मुझे बताएं ताकि मैं आपकी आज्ञा से उस कार्य को पूरा कर सकूं। 
ब्रह्माजी ने कहा हे भद्रपुरुष ! तुम सनातनी सृष्टि उत्पन्न करो। तुम अपने इसी स्वरूप में फूल के पांच बाणों से स्त्रियों और पुरुषों को मोहित करो। इस चराचर जगत में कोई भी जीव तुम्हारा तिरस्कार नहीं कर पाएगा। तुम छिपकर प्राणियों के हृदय में प्रवेश करके सुख का हेतु बनकर सृष्टि का सनातन कार्य आगे बढ़ाओगे तुम्हारे पुष्पमय बाण समस्त प्राणियों को भेदकर उन्हें मदमस्त करेंगे। आज से तुम 'पुष्प बाण' नाम से जाने जाओगे। इसी प्रकार तुम सृष्टि के प्रवर्तक के रूप में जाने जाओगे।
श्रीरुद्र संकेत-लिपि द्वितीय खंड दूसरा अध्याय समाप्त

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