दक्ष द्वारा महान यज्ञ का आयोजन देवी सती का दक्ष के यज्ञ में आना जानिये पुरी कथा
महर्षि नारद को ब्रह्माजी के वर्णन से पता चलता है कि दक्ष ने अपने यज्ञ में भगवान शिव को न बुलाया है और इसके कारण यज्ञ में आनंद नहीं हो रहा है। उन्होंने दक्ष को समझाया कि भगवान शिव के बिना कोई यज्ञ पूर्ण नहीं हो सकता, और उन्हें भी बुलाना चाहिए। वे शिव को यज्ञ में शामिल होने के लिए अनुनय करते हैं। दक्ष की अहंकारपूर्ण भावना के कारण, उन्होंने शिव और सती को यज्ञ में नहीं बुलाया था।
दक्ष द्वारा महान यज्ञ का आयोजन
ब्रह्माजी बोले- हे महर्षि नारद! इस प्रकार, क्रोधित व अपमानित दक्ष ने कनखल नामक तीर्थ में एक बहुत बड़े यज्ञ का आयोजन किया। उस यज्ञ में उन्होंने सभी देवर्षियों, महर्षियों तथा देवताओं को दीक्षा देने के लिए बुलाया। अगस्त्य, कश्यप, अत्रि, वामदेव, भृगु, दधीचि, भगवान व्यास, भारद्वाज, गौतम, पेल, पराशर, गर्ग, भार्गव, ककुष, सित, सुमंतु, त्रिक, कंक और वैशंपायन सहित अनेक ऋषि-मुनि अपनी पत्नियों व पुत्रों सहित प्रजापति दक्ष के यज्ञ में सम्मिलित हुए। समस्त देवता अपने देवगणों के साथ प्रसन्नतापूर्वक यज्ञ में गए। अपने पुत्र दक्ष की प्रार्थना स्वीकार करके में विश्वस्रष्टा ब्रह्मा और बैकुण्ठलोके से भगवान विष्णु भी उस यज्ञ में पहुंचे। वहां दक्ष ने सभी पधारे हुए अतिथियों का खूब आदर-सत्कार किया। उस यज्ञ के स्थान का निर्माण देवताओं के शिल्पी विश्वकर्मा द्वारा किया गया था। विश्वकर्मा ने बहुत से दिव्य भवनों का निर्माण किया। उन भवनों में दक्ष ने यज्ञ में पधारे अतिथियों को ठहराया। दक्ष ने भृगु ऋषि को ऋत्विज बनाया। भगवान विष्णु यज्ञ के अधिष्ठाता थे। इस विधि को मैंने ही बताया। दक्ष सुंदर रूप धारण कर यज्ञ मण्डल में उपस्थित था। उस महान यज्ञ में अट्ठासी हजार ऋषि एक साथ हवन कर सकते थे। चौंसठ हजार देवर्षि मंत्रों का उच्चारण कर रहे थे। सभी मग्न होकर वेद मंत्रों का गान कर रहे थे। दक्ष ने उस महायज्ञ में गंधवों, विद्याधरों, सिद्धों, बारह आदित्यों व उनके गण तथा नाग को भी आमंत्रित किया था। साथ ही देश-विदेश के अनेक राजा उसमें उपस्थित थे, जो अपनी सेना एवं दरबारियों सहित यज्ञ में पधारे थे। कौतुक और मंगलाचार कर दक्ष ने यज्ञ की दीक्षा ली परंतु उस दुरात्मा दक्ष ने त्रिलोकीनाथ करुणानिधान भगवान शिव को यज्ञ के लिए निमंत्रण नहीं भेजा था। न ही अपनी पुत्री सती को ही बुलाया था। दक्ष के अनुसार भगवान शिव कपालधारी हैं, इसलिए उन्हें यज्ञ में स्थान देना गलत है। सती भी शिवजी की पत्नी होने के कारण कपाली भार्या' हुई। अतः उन्हें भी बुलाना पूर्णतः अनुचित था। दक्ष का यज्ञ महोत्सव अत्यंत धूमधाम एवं हर्ष उल्लास से आरंभ हुआ। सभी ऋषि-मुनि अपने-अपने कार्य में संलग्न हो गए। तभी वहां महर्षि दधीचि पधारे। उस यज्ञ में भगवान शंकर को न पाकर दधीचि बोले—हे श्रेष्ठ देवताओं और महर्षियो में आप सभी को श्रद्धापूर्वक नमस्कार करता हूँ। हे श्रेष्ठजनो! आप सभी यहां इस महान यज्ञ में पधारे है। में आप सबसे यह पूछना चाहता हूं कि मुझे इस यज्ञ में त्रिलोकीनाथ भगवान शंकर कहीं भी दिखाई नहीं दे रहे हैं। उनके बिना यह यज्ञ मुझे सूना लग रहा है। उनकी अनुपस्थिति से यज्ञ की शोभा कम हो गई है। जैसा कि आप जानते ही हैं कि भगवान शिव की कृपा से सभी कार्य सिद्ध होते हैं। वे परम सिद्ध पुरुष, नीलकंठधारी प्रभु शंकर, यहां क्यों नहीं दिखाई दे रहे हैं? जिनकी कृपा से अमंगल भी मंगल हो जाता है, जो सर्वथा सबका मंगल करते हैं, उन भगवान शिव का यज्ञ में उपस्थित होना बहुत आवश्यक है। इसलिए आप सभी को यज्ञ के सकुशल पूर्ण होने के लिए परम कल्याणकारी भगवान शिव को अनुनय-विनय कर इस यज्ञ में लाना चाहिए। तभी इस यज्ञ की पूर्ति हो सकती है। इसलिए आप सभी श्रेष्ठजन तुरंत कैलाश पर्वत पर जाएं और भगवान शिव और देवी सती को यज्ञ में ले आएं। उनके आने से यह यज्ञ पवित्र हो जाएगा। वे परम पुण्यमयी हैं। उनके यहां आने से ही यह यज्ञ पूरा हो सकता है। महर्षि दधीचि की बातों को सुनकर दक्ष हंसते हुए बोला कि भगवान विष्णु देवताओं के मूल हैं। अतः मैंने उन्हें सादर यहां बुलाया है। जब वे यहां उपस्थित हैं तो भला यज्ञ में क्या कमी हो सकती है। भगवान विष्णु के साथ-साथ ब्रह्माजी भी वेदों, उपनिषदों और विविध आगमों के साथ यहां पधारे हैं। देवगणों सहित इंद्र भी यहां उपस्थित हैं। वेद और वेदतत्वों को जानने वाले तथा उनका पालन करने वाले सभी महर्षि यज्ञ में आ चुके हैं। जब सभी देवगण एवं श्रेष्ठजन यहां उपस्थित हैं तो रुद्रदेव की यहां क्या आवश्यकता है? मैंने सिर्फ ब्रह्माजी के कहने पर अपनी पुत्री सती का विवाह शिवजी से कर दिया था। में जानता हूं कि वे कुलहीन हैं। उनके माता-पिता का कुछ भी पता नहीं है। वे भूत, प्रेतों और पिशाचों के स्वामी हैं। वे स्वयं ही अपनी प्रशंसा करते हैं। वे मूढ, जड़, मौनी और ईर्ष्यालु होने के कारण यज्ञ में बुलाए जाने के योग्य नहीं हैं। अतः दधीचि जी, आप उन्हें यज्ञ में बुलाने के लिए न कहें। आप सब ऋषि-मुनि मिलकर अपने सहयोग से मेरे इस यज्ञ को सफल बनाएं। दक्ष की बात सुनकर दधीचि मुनि बोले- हे दक्ष परम कल्याणकारी भगवान शिव को यज्ञ में न बुलाकर तुमने इस यज्ञ को पहले ही भंग कर दिया है। यह यज्ञ कहलाने लायक ही नहीं है। तुमने भगवान शिव को निमंत्रण न देकर उनकी अवहेलना की है। इसलिए तुम्हारा विनाश निश्चित है, यह कहकर दधीचि वहां से अपने आश्रम चले गए। उनके पीछे-पीछे भगवान शिव का अनुसरण करने वाले सभी ऋषि-मुनि भी वहां से चले गए। दक्ष के समर्थकों ने यज्ञ छोड़कर गए ऋषियों-मुनियों के प्रति व्यंग्य भरे वचनों का प्रयोग किया। इस प्रकार प्रसन्न होकर दक्ष बोलने लगे कि यह बहुत अच्छी बात है कि मंदबुद्धि और मिथ्यावाद में लगे दुराचारी मनुष्य सभी इस यज्ञ का त्याग करके स्वयं ही चले गए हैं। भगवान विष्णु और ब्रह्माजी, जो कि सभी वेदों के ज्ञाता है और वेद तत्वों से परिपूर्ण हैं, इस यज्ञ में उपस्थित हैं। ये ही मेरे यज्ञ को सफल बनाएंगे। ब्रह्माजी बोले कि दक्ष की ये बातें सुनकर वे सभी शिव माया से मोहित हो गए। सभी देवर्षि आदि देवताओं का पूजन करने लगे। इस प्रकार यज्ञ पुनः आरंभ हो गया। मुनिश्रेष्ठ! इस प्रकार वहां यज्ञस्थल पर रुके अनेक देवर्षि और मुनि वहाँ पुनः यज्ञ को पूर्ण करने हेतु पूजन करने लगे।
इस कथा से हमें यह सिखने को मिलता है कि भगवान की कृपा और आशीर्वाद से ही हमारे कार्य सिद्ध होते हैं और हम सुख-शांति से जी सकते हैं। भगवान शिव की भक्ति, निरंतर प्रार्थना, और उनकी कृपा में ही हमारा कल्याण है।
श्रीरुद्र संकेत-लिपि द्वितीय खंड सत्ताईसवां अध्याय समाप्त
देवी सती का दक्ष के यज्ञ में आना
ब्रह्माजी कहते हैं - नारद! जिस समय देवता और ऋषिगण दक्ष के यज्ञ में भाग लेने के लिए उत्सव करते हुए जा रहे थे, उस समय दक्ष की पुत्री सती अपनी सखियों के साथ गंधमादन पर्वत पर धारागृह में अनेक क्रीड़ाएं कर रही थीं। सती ने देखा कि रोहिणी के साथ चंद्रमा कहीं जा रहे थे। तब सती ने अपनी प्रिय सखी विजया से कहा कि विजये। जल्दी जाकर पूछो कि देवी रोहिणी और चंद्र कहां जा रहे हैं? तब विजया दौड़कर चंद्रदेव के पास गई और उन्हें नमस्कार करके उनसे पूछा कि हे चंद्रदेव! आप कहां जा रहे हैं? चंद्रदेव ने उत्तर दिया कि वे दक्ष द्वारा आयोजित यज्ञ में निमंत्रित हैं, अतः वहीं जा रहे हैं। यज्ञोत्सव के बारे में सुनकर देवी विजया तुरंत देवी सती के पास आई और सारी बातों से सती को अवगत कराया। तब देवी सती को बड़ा आश्चर्य हुआ कि ऐसी क्या बात है, जो पिताजी ने यज्ञोत्सव के लिए अपनी बेटी-दामाद को निमंत्रण तो दूर, सूचना भी नहीं दी। बहुत सोचने पर भी उनकी समझ में कुछ नहीं आ सका। असमंजस की स्थिति में वे अपने पति महादेव जी के पास गई और उनसे कहने लगीं। सती बोलीं- हे महादेव जी! मुझे ज्ञात हुआ है कि मेरे पिताश्री दक्ष जी ने एक बहुत बड़े यज्ञोत्सव का आयोजन किया है। जिसमें उन्होंने सभी देवर्षियों, महर्षियों एवं देवताओं को आमंत्रित किया है। सभी देवता और ऋषिगण वहां एकत्रित हो चुके हैं। हे प्रभु! मुझे बताइए कि आप वहां क्यों नहीं जा रहे हैं? आप सभी सुहृदयों से मिलने को हमेशा आतुर रहते हैं। आप भक्तवत्सल हैं। प्रभो! उस महायज्ञ में सभी आपके भक्त पधारे हैं। आप मेरी प्रार्थना मानकर आज ही मेरे साथ मेरे पिता के उस महान यज्ञ में चलिए। सती इस प्रकार भगवान शंकर से यज्ञशाला में चलने की प्रार्थना करने लगीं। सती की प्रार्थना सुनकर भगवान महेश्वर बोले- हे देवी! तुम्हारे पिता दक्ष मेरे विशेष द्रोही हो गए हैं। वे मुझसे बैर की भावना रखते हैं। इसी कारण उन्होंने मुझे निमंत्रण नहीं दिया और जो बिना बुलाए दूसरों के घर जाते हैं, वे मरण से भी अधिक अपमान पाते हैं। हे देवी! उस यज्ञ में सभी अभिमानी, मूढ़ और ज्ञानशून्य देवता और ऋषि ही हैं। उत्तम व्रत का पालन करने वाले और मेरा पूजन करने वाले सभी ऋषि-मुनियों और देवताओं ने उस महायज्ञ का त्याग कर दिया है तथा अपने-अपने धाम को वापस चले गए हैं। अतः प्रिये, हमारा उस यज्ञ में जाना अनुचित है। वैसे भी बिना बुलाए जाना अपना अपमान कराना है। शिवजी के इन वचनों को सुनकर देवी सती क्रुद्ध हो गई और शिवजी से बोलीं- हे प्रभु! आप तो सबके परमेश्वर हैं। आपके उपस्थित होने से यज्ञ सफल हो जाते हैं। आपको मेरे दुष्ट पिता ने आमंत्रित नहीं करके आपका अपमान किया है। भगवन्! में ऐसा करने का प्रयोजन जानना चाहती हूं कि क्यों मेरे पिता ने आपका अनादर किया है? इसलिए में अपने पिता के यज्ञ में जाना चाहती हूं, ताकि इस बात का पता लगा सकूं। अतः प्रभु! आप मुझे आज्ञा प्रदान करें। देवी सती के क्रोधित शब्दों को सुनकर भगवान शंकर बोले- हे देवी! यदि तुम्हारी इच्छा वहां जाने की है तो मैं तुम्हें आज्ञा देता हूं कि अपने पिता के यज्ञ में जाओ। नंदीश्वर को सजाकर उस पर चढ़कर अपने संपूर्ण वैभव के साथ अपने पिता के यहां जाओ शिवजी की आज्ञा मानकर देवी सती ने उत्तम शृंगार किया और अनेक प्रकार के आभूषण धारण करके देवी सती अपने पिता के घर की ओर चल दीं। उनके साथ शिवजी ने साठ हजार रौद्रगणों को भी भेजा। वे सभी गण उत्सव रचाकर देवी का गुणगान करते हुए दक्ष के घर की ओर जाने लगे। शिवगणों ने पूरे रास्ते शिव-शिवा के यश का गान किया। उस यात्रा काल में जगदंबा बहुत शोभा पा रही थीं। उनकी जय-जयकार से सारी दिशाएं गूंज रही थीं।
इस कथा से हमें यह सिखने को मिलता है कि भगवान की भक्ति और समर्पण में ही सच्चा आनंद और सफलता है, और अगर कोई अहंकार और अनदेखा रखता है तो उसका परिणाम अधर्म और असफलता ही होता है। भगवान शिव की भक्ति में वह उच्चता और महिमा है, जो हमें सत्य और धर्म की प्राप्ति में मार्गदर्शन करती है।श्रीरुद्र संकेत-लिपि द्वितीय खंड अट्ठाईसवां अध्याय समाप्त
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