अज्ञान से मोहित नारद जी का शाप विष्णु भगवान ने स्वीकार कर लिया
नारद जी का शाप विष्णु भगवान को
ऋषि बोले- हे सूत जी ! रुद्रगणों के चले जाने पर नारद जी ने क्या किया और वे कहां गए? इस सबके बारे में भी हमें बताइए । सूत जी बोले- हे ऋषियो! माया से मोहित नारद जी उन दोनों शिवगणों को शाप देकर भी मोहवश कुछ जान न सके। तत्पश्चात क्रोधित होते हुए वे तालाब के पास पहुंचे और वहां जल में पुनः अपनी परछाई देखी तो उन्हें फिर वानर जैसी आकृति दिखाई दी। उसे देखकर नारद जी को और अधिक क्रोध चढ़ आया। वे सीधे विष्णुलोंक की ओर चल दिए। वहां पहुंचकर भगवान विष्णु से वे बोले - हे हरि ! तुम बड़े दुष्ट हो। अपने कपट से विश्व को मोहने वाले तुम दूसरों को सुखी होता नहीं देख सकते। तभी तो तुमने सागर मंथन के समय 'मोहिनी' का रूप धारण कर दैत्यों से अमृत का कलश छीन लिया था और उन्हें अमृत की जगह मदिरा पिलाकर पागल बना दिया था। यदि उस समय भगवान शंकर दया करके विष को न पीते तो तुम्हारा सारा कपट प्रकट हो जाता। तुम्हें कपटपूर्ण चालें अधिक प्रिय हैं। भगवान महादेव जी ने ब्राह्मणों को सर्वोपरि बताया है। आज तुम्हें मैं ऐसी सीख दूंगा, जिससे तुम फिर कभी कहीं भी ऐसा कार्य नहीं कर सकोगे। अब तक तुम्हारा किसी शक्तिशाली मनुष्य से पाला नहीं पड़ा है। इसलिए तुम निडर बने हुए हो परंतु अब तुम्हें तुम्हारी करनी का पूरा फल मिलेगा । माया मोहित नारद जी क्रोध से खिन्न थे। वे भगवान विष्णु को शाप देते हुए बोले- विष्णु ! तुमने स्त्री के लिए मुझे व्याकुल किया है। तुम सभी को मोह में डालते हो । तुमने राजा का रूप धारण करके मुझे छला था। इसलिए मैं तुम्हें शाप देता कि तुम्हारे जिस रूप ने कपटपूर्वक मुझे छला है, तुम्हें वही रूप मिले। तुम राजा होगे और इसी तरह स्त्री का वियोग भोगोर्गे, जिस तरह मैं भोग रहा हूं। तुमने जिन वानरों के समान मेरी आकृति बना दी हैं, वही वानर तुम्हारी सहायता करेंगे। तुम दूसरों को स्त्री वियोग का दुख देते हो, इसलिए तुम्हें भी यही दुख भोगना पड़ेगा। तुम्हारी स्थिति अज्ञान से मोहित मनुष्य जैसी हो जाएगी।
Lord Vishnu accepted the curse of Narada ji who was deceived by ignorance |
अज्ञान से मोहित नारद जी का शाप विष्णु भगवान
अज्ञान से मोहित नारद जी का शाप विष्णु भगवान ने स्वीकार कर लिया। तत्पश्चात उन्होंने महालीला करने वाली मोहिनी माया को समाप्त कर दिया। माया के जाते ही नारद जी का खोया हुआ ज्ञान लौट आया और उनकी बुद्धि पहले की तरह हो गई। उनकी सारी व्याकुलता चली गई तथा मन में आश्चर्य उत्पन्न हो गया। यह सब जानकर नारद जी बहुत पछताने लगे और अपने को धिक्कारते हुए भगवान विष्णु के चरणों में गिर पड़े और उनसे क्षमा मांगने लगे। नारद जी कहने लगे कि मैंने अज्ञानवश होकर और माया के कारण आपको जो शाप दे दिया है, वह झूठा हो जाए। भगवान मेरी बुद्धि खराब हो गई थी, जो मैंने आपके लिए बुरे वचन अपनी जबान से निकाले। मैंने बहुत बड़ा पाप किया है। हे प्रभु! मुझ पर कृपा कर मुझे ऐसा कोई उपाय बताइए जिससे मेरा सारा पाप नष्ट हो जाए। कृपया मुझे प्रायश्चित का तरीका बताइए। तब श्रीविष्णु ने उन्हें उठाकर मधुर वाणी में कहा- हे महर्षि ! आप दुखी न हों, आप मेरे श्रेष्ठ भक्त हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है। नारद जी आप चिंता मत कीजिए, आप परम धन्य हैं। आपने अहंकार के वशीभूत होकर भगवान शिव की आज्ञा का पालन नहीं किया था। इसलिए उन्होंने ही आपका गर्व नष्ट करने के लिए यह लीला रची थी। वे निर्गुण और निर्विकार हैं और सत, रज और तम आदि गुणों से परे हैं। उन्होंने अपनी माया से ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों रूपों को प्रकट किया है। निर्गुण अवस्था में उन्हीं का नाम शिव है, वे ही परमात्मा, महेश्वर, परब्रह्म, अविनाशी, अनंत और महादेव नामों से जाने जाते हैं। उन्हीं की आज्ञा से ब्रह्माजी जगत के स्रष्टा हुए हैं, मैं तीनों लोकों का पालन करता हूं और शिवजी रुद्ररूप में सबका संहार करते हैं। वे शिवस्वरूप सबके साक्षी हैं। वे माया से भिन्न और निर्गुण हैं। वे अपने भक्तों पर सदा दया करते हैं। मैं तुम्हें समस्त पापों का नाश करने वाला, भोग एवं मोक्ष प्रदान करने वाला उपाय बताता हूं। अपने सारे शकों एवं चिंताओं को त्यागकर भगवान शंकर की यश और कीर्ति का गुणगान करो और सदा अनन्य भाव से शिवजी के शतनाम स्तोत्र का पाठ करो। उनकी उपासना करो तथा प्रतिदिन उनकी पूजा-अर्चना करो। जो मनुष्य शरीर, मन और वाणी द्वारा भगवान शिव की उपासना करते हैं, उन्हें पण्डित या ज्ञानी कहा जाता है। जो मनुष्य शिवजी की भक्ति करते हैं, उन्हें संसाररूपी भवसागर से तत्काल मुक्ति मिल जाती है। जो लोग पाप रूपी दावानल से पीड़ित हैं, उन्हें शिव नाम रूपी अमृत का पान करना चाहिए। वेदों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात ही ज्ञानी मनुष्यों ने शिवजी की पूजा को जन्म-मरण रूपी बंधनों से मुक्त होने का सर्वश्रेष्ठ साधन बताया है। इसलिए आज से ही रोज भगवान शिव की कथा सुनो और कहा करो तथा उनका पूजन किया करो। अपने हृदय में भगवान शिव के चरणों की स्थापना करो तथा उनके तीर्थों में निवास करते हुए उनकी स्तुति कर उनका गुणगान करो। इसके बाद नारद जी तुम मेरी आज्ञा से अपने मनोरथ की सिद्धि के लिए ब्रह्मलोक जाना । वहां अपने पिता ब्रह्माजी की स्तुति करके उनसे शिव महिमा के बारे में पूछना । ब्रह्माजी शिवभक्तों में श्रेष्ठ हैं। वे तुम्हें भगवान शंकर का माहात्म्य और शतनाम स्तोत्र अवश्य सुनाएंगे। आज से तुम शिवभक्ति में लीन हो जाओ। वे अवश्य तुम्हारा कल्याण करेंगे। यह कहकर विष्णुजी अंतर्धान हो गए।
श्रीरुद्र संहिता चौथा अध्याय समाप्त
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