ऋषि-मुनियों की तपस्या का नाश करने वाले कामदेव को भस्म
नारद जी की काम वासना
सूत जी बोले- हे ऋषियो! एक समय की बात है। ब्रह्मा पुत्र नारद जी हिमालय पर्वत की एक गुफा में बहुत दिनों से तपस्या कर रहे थे। उन्होंने दृढ़तापूर्वक समाधि लगाई थी और तप करने लगे थे। उनके उग्र तप का समाचार पाकर देवराज इंद्र कांप उठे। उन्होंने सोचा कि नारद मुनि मेरे स्वर्गलोक के राज्य को छीनना चाहते हैं। यह खयाल आते ही इंद्र ने उनकी तपस्या में विघ्न डालने की कोशिश की। उन्होंने कामदेव को बुलाया और कहने लगे हे कामदेव ! तुम मेरे परम मित्र एवं हितैषी हो। नारद हिमाचल पर्वत की गुफा में बैठकर तपस्या कर रहा है। कहीं ऐसा न हो कि वह वरदान में ब्रह्माजी से मेरा स्वर्ग का राज्य ही मांग बैठे। अतः तुम वहां जाकर उसका तप भंग कर दो। यह आज्ञा पाकर कामदेव वसंत को साथ ले बड़े गर्व से उस स्थान पर गए और अपनी सारी कलाएं रच डालीं। कामदेव और वसंत के बहुत प्रयत्न करने पर भी नारद मुनि के मन में कोई विकार उत्पन्न नहीं हुआ। महादेव जी के अनुग्रह से उन दोनों का गर्व चूर्ण हो गया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि महादेव जी की कृपा से नारद मुनि पर कामदेव का कोई प्रभाव नहीं पड़ा था।
Kamadeva, who destroyed the penance of sagesand munis, was ashed, Narada's lust |
ऋषि-मुनियों की तपस्या का नाश करने वाले कामदेव को भस्म
पहले उस आश्रम में भगवान शिव ने भी तपस्या की थी। उसी स्थान पर उन्होंने ऋषि-मुनियों की तपस्या का नाश करने वाले कामदेव को भस्म कर डाला था । कामदेव को भस्म देखकर उनकी पत्नी रति ने बिलखते हुए भगवान शंकर से उन्हें जीवित करने की प्रार्थना की तथा सभी देवता भी शिवजी से प्रार्थना करने लगे तो भगवान महादेव जी ने कहा था कि कुछ समय पश्चात कामदेव स्वयं जीवित हो जाएंगे। किंतु इस स्थान पर और इसके आस-पास जहां तक भस्म दिखाई देती है, वहां तक की पृथ्वी पर कामदेव की माया और काम बाण का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। इस प्रकार उस स्थान से कामदेव लज्जित होकर वापस लौट आया। देवराज इंद्र ने जब यह सुना कि नारद जी पर कामदेव का कोई प्रभाव नहीं पड़ा तो उन्होंने नारद जी की खूब प्रशंसा की। भगवान शिव की माया के कारण वे भूल गए थे कि शिवजी के शाप के कारण उस स्थान पर कामदेव की माया नहीं चल सकती। नारद जी भगवान शिव की कृपा से बहुत समय तक तपस्या करते रहे। अपने तप को पूर्ण हुआ समझकर नारद जी उठे तो उन्हें कामदेव पर विजय प्राप्त करने का ध्यान आया । तब उन्हें मन ही मन इस बात का घमंड हुआ कि उन्होंने कामदेव पर विजय प्राप्त कर ली है। इस प्रकार अभिमान से उनका ज्ञान नष्ट हो गया। वे यह समझ नहीं सके कि कामदेव के पराजित होने में भगवान शंकर की ही माया थी। तब वे अपनी काम विजय की कथा सुनाने के लिए शीघ्र ही कैलाश पर्वत पर जा पहुंचे और भगवान शिव को नमस्कार करके अपनी तपस्या की सफलता का समाचार तथा कामदेव पर विजय प्राप्त करने का समाचार कह सुनाया। यह सब सुनकर महादेव जी ने नारद की प्रशंसा करते हुए कहा - हे नारद जी ! आप परम धन्य हैं परंतु मेरी एक बात याद रखना कि यह समाचार किसी अन्य देवता को मत सुनाना, विशेषकर भगवान विष्णु से तो इस बात को कदापि न कहना। यह वृत्तांत सबसे छिपाकर रखने योग्य है। तुम मेरे प्रिय हो, इसलिए मैं तुम्हें यह आज्ञा देता हूं कि यह बात किसी के सामने प्रकट मत करना। परंतु वे तो शिव की माया से मोहित हो चुके थे। इसलिए उनकी दी शिक्षा को ध्यान में न रखते हुए वे ब्रह्मलोक चले गए। वहां ब्रह्माजी को नमस्कार कर बोले- मैंने अपने तपोबल से कामदेव को जीत लिया है। यह सुनकर ब्रह्माजी ने भगवान शिव के चरणों का चिंतन करके सारा कारण जान लिया तथा अपने पुत्र नारद को यह सब किसी और से कहने के लिए मना कर दिया। नारद के मन में अभिमान के अंकुर उत्पन्न हो गए थे जिसके फलस्वरूप उनकी बुद्धि नष्ट हो गई थी। वे तो तुरंत विष्णुलोक पहुंचकर भगवान विष्णु को यह सारा किस्सा सुनाना चाहते थे। अतः शीघ्र ही वे ब्रह्मलोक से चल दिए। नारद मुनि को आते देखकर भगवान विष्णु सिंहासन से उठ खड़े हुए। उन्होंने नारद को गले लगा लिया और आदर सहित आसन पर बैठाया। भगवान शिव के चरणों का स्मरण करके भगवान विष्णु ने नारद जी से पूछा, नारद जी! आप कहां से आ रहे हैं और इस लोक में आपका शुभागमन किसलिए हुआ है? यह सुनकर नारद जी ने अहंकार सहित अपने तप के पूर्ण होने एवं कामदेव पर विजय प्राप्त करने का समस्त हाल उन्हें कह सुनाया। भगवान विष्णु काम के विजय के असली कारण को समझ चुके थे। वे नारद जी से बोले - हे नारद जी ! आपकी कीर्ति एवं निर्मल बुद्धि धन्य है । काम-क्रोध एवं लोभ-मोह उन मनुष्यों को पीड़ित करते हैं, जो भक्तिहीन हैं। आप तो ज्ञान, वैराग्य से युक्त एवं ब्रह्मचारी हैं, फिर भला यह काम आपका क्या बिगाड़ सकता था? देवर्षि नारद बोले- हे भगवन्! यह सब आपकी कृपा का ही फल है। आपकी कृपा के आगे कामदेव की क्या सामर्थ्य है जो मेरा कुछ बिगाड़ सके। मैं तो सदा ही निर्भय हूं। इतना कहकर नारद जी विष्णु भगवान को नमस्कार कर वहां से चल दिए।
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