देवी उमा भगवान शिव की भक्ति में ही लीन, दक्ष की साठ कन्याओं का विवाह
यह कथा देवी उमा के जन्म का वर्णन है और इसमें ब्रह्मा, दक्ष, और उमा के परिवार के बीच की घटनाएं समाहित हैं। इस कथा में दिखाया गया है कि दक्ष ने अपनी पत्नी सहित भगवती जगदंबिका का ध्यान करते हुए उनसे जन्म लेने का आशीर्वाद प्राप्त किया है।
ब्रह्माजी बोले- हे मुनिराज ! दक्ष के इस रूप को जानकर मैं उसके पास गया। मैंने उसे शांत करने का बहुत प्रयत्न किया और सांत्वना दी। मैंने उसे तुम्हारा परिचय दिया। दक्ष को मैंने यह जानकारी भी दी कि तुम भी मेरे पुत्र हो। तुम मुनियों में श्रेष्ठ एवं देवताओं के प्रिय हो । तत्पश्चात प्रजापति दक्ष ने अपनी पत्नी से साठ सुंदर कन्याएं प्राप्त कीं। तब उनका धर्म आदि के साथ विवाह कर दिया। दक्ष ने अपनी दस कन्याओं का विवाह धर्म से तेरह कन्याओं का ब्याह कश्यप मुनि से और सत्ताईस कन्याओं का विवाह चंद्रमा से कर दिया। दो- दो भूतागिरस और कृशाश्व को और शेष चार कन्याओं का विवाह तार्क्ष्य के साथ कर दिया। इन सबकी संतानों से तीनों लोक भर गए । पुत्र-पुत्रियों की उत्पत्ति के पश्चात प्रजापति दक्ष ने अपनी पत्नी सहित देवी जगदंबिका का ध्यान किया। देवी की बहुत स्तुति की। प्रजापति दक्ष की सपत्नीक स्तुति से देवी जगदंबिका ने प्रसन्न होकर दक्ष की पत्नी के गर्भ से जन्म लेने का निश्चय किया। उत्तम मुहूर्त देखकर दक्ष पत्नी ने गर्भ धारण किया। उस समय उनकी शोभा बढ़ गई। भगवती के निवास के प्रभाव से दक्ष पत्नी महामंगल रूपिणी हो गई। देवी को गर्भ में जानकर सभी देवी-देवताओं ने जगदंबा की स्तुति की। नौ महीने बीत जाने पर शुभ मुहूर्त में देवी भगवती का जन्म हुआ। उनका मुख दिव्य आभा से सुशोभित था। उनके जन्म के समय आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी और मेघ जल बरसाने लगे। देवता आकाश में खड़े मांगलिक ध्वनि करने लगे। यज्ञ की बुझी हुई अग्नि पुनः जलने लगी। साक्षात जगदंबा को प्रकट हुए देखकर दक्ष ने भक्ति भाव से उनकी स्तुति की।
Goddess Uma, absorbed in the devotion of Lord Shiva, married Daksh's sixty daughters |
देवी उमा भगवान शिव की भक्ति में ही लीन
स्तुति सुनकर देवी प्रसन्न होकर बोली- हे प्रजापते! तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न होकर मैंने तुम्हारे घर में पुत्री के रूप में जन्म लेने का जो वर दिया था, वह आज पूर्ण हो गया है। यह कहकर उन्होंने पुनः शिशु रूप धारण कर लिया तथा रोने लगीं। उनका रोना सुनकर दासियां उन्हें चुप कराने हेतु वहां एकत्र हो गईं। जन्मोत्सव में गीत और अनेक वाद्य यंत्र बजने लगे। दक्ष ने वैदिक रीति से अनुष्ठान किया और ब्राह्मणों को दान दिया। उन्होंने अपनी पुत्री का नाम 'उमा' रखा। देवी उमा का पालन बहुत अच्छे तरीके से किया जा रहा था। वह बालकपन में बहुत सी लीलाएं करती थीं। देवी उमा इस प्रकार बढ़ने लगीं जैसे शुक्ल पक्ष में चंद्रमा की कला बढ़ती है। जब भी वे अपनी सखियों के साथ बैठतीं, वे भगवान शिव की मूर्ति को ही चित्रित करती थीं। वे सदा प्रभु शिव के भजन गाती थीं। उन्हीं का स्मरण करतीं और भगवान शिव की भक्ति में ही लीन रहतीं।
इस कथा के माध्यम से दिखाया गया है कि भगवान शिव और देवी उमा के बीच का अद्वितीय प्रेम और भक्ति का संबंध है। यह कथा हिन्दू धर्म में भक्ति, त्याग, और आत्मा के अद्वितीयता की महत्वपूर्ण सिखें दर्शाती है।
श्रीरुद्र संकेत-लिपि द्वितीय खंड चौदहवां अध्याय समाप्त
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