201-208 उन्नीसवाँ विश्राम अयोध्याकाण्ड

201-208 उन्नीसवाँ विश्राम अयोध्याकाण्ड 201-208 Nineteenth Rest Ayodhya Incident

चौपाई
राम सुना दुखु कान न काऊ। जीवनतरु जिमि जोगवइ राऊ।।
पलक नयन फनि मनि जेहि भाँती। जोगवहिं जननि सकल दिन राती।।
ते अब फिरत बिपिन पदचारी। कंद मूल फल फूल अहारी।।
धिग कैकेई अमंगल मूला। भइसि प्रान प्रियतम प्रतिकूला।।
मैं धिग धिग अघ उदधि अभागी। सबु उतपातु भयउ जेहि लागी।।
कुल कलंकु करि सृजेउ बिधाताँ। साइँदोह मोहि कीन्ह कुमाताँ।।
सुनि सप्रेम समुझाव निषादू। नाथ करिअ कत बादि बिषादू।।
राम तुम्हहि प्रिय तुम्ह प्रिय रामहि। यह निरजोसु दोसु बिधि बामहि।।
चौपाई का अर्थ: "राम! मैं सुनूं दुःख बिना बात नहीं कहता। जैसे जीवनतरु को जूड़कर ले जाता हूं। जैसे पलक, नेत्र, और मन जैसे हैं, वैसे ही मैं प्रात:काल से रात्रि तक जोगी हूँ। अब मैं वन में चला जाता हूँ, जहां पेड़-पौधे, फल और फूल मेरा भोजन होता है। हे धिग, अनिष्ट की जड़, जो मेरे प्रियतम के प्रति विपरीत हो गई है। मैं धिग-धिग कहता हूँ, शोक से अत्यंत दुखी होता हूँ, जैसे जल में आग लग जाए। मैंने कुल की कलंकित प्रवृत्ति को बनाया है, जो स्वाभाविक नहीं है। नाथ, मैंने तुम्हें प्रेम से समझाया है, फिर भी तुमने मेरी पीड़ा को नहीं समझा। राम, तुम मेरे प्रिय हो और मैं तुम्हारा प्रिय हूँ, इसमें कोई संदेह नहीं है।"
यह चौपाई तुलसीदास जी की रचना में से है, जो उनकी महाकाव्य "रामचरितमानस" से ली गई है। इसमें मानवीय भावनाएं, भक्ति और प्रेम का वर्णन है।
छं0-बिधि बाम की करनी कठिन जेंहिं मातु कीन्ही बावरी।
तेहि राति पुनि पुनि करहिं प्रभु सादर सरहना रावरी।।
तुलसी न तुम्ह सो राम प्रीतमु कहतु हौं सौहें किएँ।
परिनाम मंगल जानि अपने आनिए धीरजु हिएँ।।
इस छंद का अर्थ नीचे दिया गया है:
"बाम की विधि मातृभूमि में कठिन है, जैसा कि माता जानकी ने अपने पति के लिए किया था। उसी भावना के साथ, मैं पुनः और पुनः प्रभु की सरहना करता हूँ रात-रात भर। तुलसी, मैं तुम्हें स्वयं राम प्रीतम कहता हूं, सौहार्दपूर्ण किया है। इसे जानकर अपने आने वाले परिणाम को मंगलमय मानता हूँ, और इसके लिए धैर्य रखता हूँ।"
यह छंद प्रस्तुत करता है कि मातृभूमि की सेवा और भगवान की भक्ति कठिन हो सकती है, लेकिन उसे ईश्वर की प्रसन्नता के लिए निरंतर प्रयास करना चाहिए। यह धैर्य और प्रेम का संदेश देता है, जिससे पुरुषार्थ में सफलता हो सकती है।
दोहा-
अंतरजामी रामु सकुच सप्रेम कृपायतन।
चलिअ करिअ बिश्रामु यह बिचारि दृढ़ आनि मन।।201।।
इस दोहे का अर्थ नीचे दिया गया है:
"अंतर्यामी राम, जो हमारे हृदय में निवास करने वाले हैं, सब प्रेम सहित, उनकी कृपा की प्राप्ति के लिए यह विचार करके स्थिर मन और सच्चा भावना के साथ चलिए, कार्य कीजिए और फिर विश्राम कीजिए।"
इस दोहे में, कबीर जी भक्ति और मन की स्थिति की महत्ता पर चर्चा कर रहे हैं। वे कह रहे हैं कि हमें अपने मन को सच्चे भावना और प्रेम के साथ अंतर्यामी राम की ओर बढ़ना चाहिए। इसके बाद, हमें धीरे-धीरे आत्मा की शान्ति का अनुभव होगा और हम विश्राम की स्थिति में पहुँचेंगे।
चौपाई
सखा बचन सुनि उर धरि धीरा। बास चले सुमिरत रघुबीरा।।
यह सुधि पाइ नगर नर नारी। चले बिलोकन आरत भारी।।
परदखिना करि करहिं प्रनामा। देहिं कैकइहि खोरि निकामा।।
भरी भरि बारि बिलोचन लेंहीं। बाम बिधाताहि दूषन देहीं।।
एक सराहहिं भरत सनेहू। कोउ कह नृपति निबाहेउ नेहू।।
निंदहिं आपु सराहि निषादहि। को कहि सकइ बिमोह बिषादहि।।
एहि बिधि राति लोगु सबु जागा। भा भिनुसार गुदारा लागा।।
गुरहि सुनावँ चढ़ाइ सुहाईं। नईं नाव सब मातु चढ़ाईं।।
दंड चारि महँ भा सबु पारा। उतरि भरत तब सबहि सँभारा।।
चौपाई का अर्थ: "मित्रो, उस वचन को सुनकर मन को धीरज देते हुए, रघुवीर (श्री राम) की स्मृति में लीन होकर जाते हैं। यह समाचार जानकर नगर के नर-नारी सब भारी आराधना के लिए निकल पड़ते हैं। परदेशी देखते हुए उन्हें नमस्कार करते हैं, लेकिन वे खोखले हैं। भरी-भरी देखते हैं, परन्तु राजा के आदेशकों से दुष्ट होते हैं। भरत को सराहते हैं कुछ, किंतु कोई नहीं कह सकता कि राजा कैसे नेतृत्व करेंगे। आत्मा की निंदा और दूसरों की सराहना करते हुए, कोई भी विचलित नहीं होता। इस प्रकार, लोग सब जाग उठते हैं, और बिगड़ा गुदारा सुधारने लगता है। गुरुजन ने सुनाया और समझाया, और सब लोगों ने अपनी नौकाओं को उतार दिया। जब तक कि बहने वाली नदी सबको पार करा देती है, तब तक भरत ने सबको संभाला।" यह चौपाई भगवान राम के वानवास की घटनाओं से संबंधित है, जो तुलसीदास जी के महाकाव्य "रामचरितमानस" से ली गई है। इसमें लोगों के भावों का वर्णन किया गया है जब वे राम के प्रति उनकी आराधना और सेवा करने निकल पड़ते हैं।
दोहा-
प्रातक्रिया करि मातु पद बंदि गुरहि सिरु नाइ।
आगें किए निषाद गन दीन्हेउ कटकु चलाइ।।202।।
इस दोहे का अर्थ नीचे दिया गया है:
"प्रात:काल क्रिया करके माता के पादों को स्पर्श करते हुए, गुरु के सिर को बांधते हैं और सीरीनामा पहनते हैं। फिर, उन्होंने निषाद गण को बुलाया और दीन जनों को सहित सभी को गले लगाकर यात्रा के लिए निर्धारित कर दिया।"
इस दोहे में, कबीर जी भक्ति और सेवा के माध्यम से अध्यात्मिक प्रगति की महत्ता पर बात कर रहे हैं। वे शिक्षक और गुरु के साथ भक्ति और सेवा में लगे रहने की महत्ता को बता रहे हैं, जिससे आत्मा का प्रगाढ़ विकास हो सकता है।
चौपाई
कियउ निषादनाथु अगुआईं। मातु पालकीं सकल चलाईं।।
साथ बोलाइ भाइ लघु दीन्हा। बिप्रन्ह सहित गवनु गुर कीन्हा।।
आपु सुरसरिहि कीन्ह प्रनामू। सुमिरे लखन सहित सिय रामू।।
गवने भरत पयोदेहिं पाए। कोतल संग जाहिं डोरिआए।।
कहहिं सुसेवक बारहिं बारा। होइअ नाथ अस्व असवारा।।
रामु पयोदेहि पायँ सिधाए। हम कहँ रथ गज बाजि बनाए।।
सिर भर जाउँ उचित अस मोरा। सब तें सेवक धरमु कठोरा।।
देखि भरत गति सुनि मृदु बानी। सब सेवक गन गरहिं गलानी।।
चौपाई का अर्थ: "निषादनाथ भरत ने अपनी माता को पालकी में सब सामान सहित बैठाया। उन्होंने सब भाइयों को भी बुलाया और लघुओं को भी सम्मानित किया, विप्रों को सहित गुरु का गावन (सत्कार) किया। उन्होंने खुद सुरसरि जी में प्रणाम किया और लखना सहित सीता-राम का स्मरण किया। जब भरत अयोध्या में पहुंचे, तो उन्होंने घर के साथ जाकर डोरियां देखीं। सुसेवक बाराहीं बार (बारह बार नमस्कार किया), वह अपने नाथ के समक्ष अस्व-असवारा हो गया। राम को अयोध्या में पानी में पैर धोते हुए पाया। हमने कहा कि रथ, हाथी, बाजा बनाने की जरूरत है। मेरा सिर भर जाए, यह ठीक नहीं है, सभी सेवकों के लिए धर्म बहुत कठोर है। भरत की गति को देखते हुए और उनकी मृदु बातों को सुनकर सभी सेवक गले मिलाने लगे।"
दोहा-
भरत तीसरे पहर कहँ कीन्ह प्रबेसु प्रयाग।
कहत राम सिय राम सिय उमगि उमगि अनुराग।।203।।
इस दोहे का अर्थ नीचे दिया गया है:
"भरत ने तीसरे पहर में कहा, 'हे प्रबेसु, बता, कैसा है प्रयाग?' राम कहते हैं, 'सीता, सीता', और अनुराग में उमगते रहते हैं।"
इस दोहे में, कबीर जी भगवान राम के भक्त भरत की भक्ति और विशेष रूप से प्रयाग के साथ उनकी सांगता की स्थिति को बता रहे हैं। भरत ने प्रयाग के स्वरूप का पूर्वानुमान किया और राम की माधुर्य भरी उपासना में विराजमान रहता है।
चौपाई 
झलका झलकत पायन्ह कैंसें। पंकज कोस ओस कन जैसें।।
भरत पयादेहिं आए आजू। भयउ दुखित सुनि सकल समाजू।।
खबरि लीन्ह सब लोग नहाए। कीन्ह प्रनामु त्रिबेनिहिं आए।।
सबिधि सितासित नीर नहाने। दिए दान महिसुर सनमाने।।
देखत स्यामल धवल हलोरे। पुलकि सरीर भरत कर जोरे।।
सकल काम प्रद तीरथराऊ। बेद बिदित जग प्रगट प्रभाऊ।।
मागउँ भीख त्यागि निज धरमू। आरत काह न करइ कुकरमू।।
अस जियँ जानि सुजान सुदानी। सफल करहिं जग जाचक बानी।।
चौपाई का अर्थ: "भरत के पायोधी में झलक झलकते पांव, कमल की छाया के समान थे। जब भरत पायोधी में पहुंचे, तो समाज में सभी दुखी हो गए। सब लोगों ने समाचार सुनकर स्नान किया, और त्रिबेणी (तीर्थराज) के पास गए और नमस्कार किया। उन्होंने सभी तरह की शुद्धता के साथ स्नान किया, और महिषासुर की पूजा और सम्मान किया। जब भरत ने श्यामल और धवल वस्त्रों को देखा, तो उनके शरीर में गौरव की रूचि उत्पन्न हुई। वे सभी कार्यों को प्रदक्षिणा की तरह आत्मीयता से करते हैं, वे वेदों में प्रगट होते हैं। वे निज धर्म की मांग नहीं करते, और किसी भी कुकर्म का आरंभ नहीं करते। उन्हें सारे लोग जानते हैं कि वे सुजान, सुदानी हैं और जग के जाँचने वाले शब्दों को सफलतापूर्वक करते हैं।"
दोहा-
अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरबान।
जनम जनम रति राम पद यह बरदानु न आन।।204।।
इस दोहे का अर्थ नीचे दिया गया है:
"मेरी इच्छा ना है धन में, ना धर्म में, और ना काम में। मुझे निर्बान की प्राप्ति की चाह नहीं है, मैं चाहता हूँ कि जन्म-जन्मांतरों तक मेरी भक्ति भगवान राम के पादों में रहे।"
इस दोहे में, कबीर जी भक्ति में लगे रहने की महत्ता को बता रहे हैं। उनकी इच्छा धन, धर्म या काम में नहीं है, बल्कि उनकी प्राथमिकता भगवान राम के प्रेम में है, और वे चाहते हैं कि वे जन्म-जन्मांतरों तक राम के पादों में समर्थ रहें।
चौपाई
जानहुँ रामु कुटिल करि मोही। लोग कहउ गुर साहिब द्रोही।।
सीता राम चरन रति मोरें। अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरें।।
जलदु जनम भरि सुरति बिसारउ। जाचत जलु पबि पाहन डारउ।।
चातकु रटनि घटें घटि जाई। बढ़े प्रेमु सब भाँति भलाई।।
कनकहिं बान चढ़इ जिमि दाहें। तिमि प्रियतम पद नेम निबाहें।।
भरत बचन सुनि माझ त्रिबेनी। भइ मृदु बानि सुमंगल देनी।।
तात भरत तुम्ह सब बिधि साधू। राम चरन अनुराग अगाधू।।
बाद गलानि करहु मन माहीं। तुम्ह सम रामहि कोउ प्रिय नाहीं।।
चौपाई का अर्थ: "मैं जानता हूँ, राम ने मुझे कुटिलता से भरकर मोहा है। लोग कहते हैं कि मैंने गुरु साहिब का द्रोह किया है। मेरी रात्रि-दिन विशेष रूप से सीता और राम के पादों में रत रहती है। आपका अनुग्रह निरंतर बढ़ता जा रहा है। मैं जल्दी जन्म-भर सुरति को भरकर भूल जाता हूँ, और जल में चाटक जैसे पानी को देखते ही तृप्ति प्राप्त करने की चाह करता हूँ। जैसे चाटक रत्न से घटाए बिना नहीं रह सकता, वैसे ही सभी प्रेम को भली भाँति बढ़ाने की चाह होती है। जैसे सोने में तेज बढ़ता है, वैसे ही मेरी प्रियतम राम के पादों का स्मरण बढ़ता है। भरत ने मेरे शब्द सुनकर तीर्थराज (त्रिबेणी) में मृदु भाषण किया और सुमंगल बातें कहीं। तात भरत, तुमने सभी तरह से साधुता की है, तुम्हारा अगाध प्रेम राम के पादों में है। मैं मन में बातें नहीं करता, तुमसे बेहतर राम में कोई प्रिय नहीं है।"
दोहा-
तनु पुलकेउ हियँ हरषु सुनि बेनि बचन अनुकूल।
भरत धन्य कहि धन्य सुर हरषित बरषहिं फूल।।205।।
इस दोहे का अर्थ नीचे दिया गया है:
"तन में पुलक आते हैं, हृदय में हर्ष होता है, जब भरत श्रीराम के लिए अनुकूल वचन सुनता है। भरत को धन्य कहते हैं, सुर्य हर्षित होते हैं और फूलों की बरसात होती है।"
इस दोहे में, कबीर जी भरत की प्रेम भरी भक्ति और उनके मन की उत्साहपूर्ण स्थिति की स्तुति कर रहे हैं। भरत श्रीराम के प्रति अपनी अनुकूल भावना को व्यक्त करते हैं, जिससे उनका तन और हृदय हर्षित होता है, और वे सुरों की भाँति हर्षित हो जाते हैं, जैसे बरषात में फूलों की बरसात होती है।
चौपाई 
प्रमुदित तीरथराज निवासी। बैखानस बटु गृही उदासी।।
कहहिं परसपर मिलि दस पाँचा। भरत सनेह सीलु सुचि साँचा।।
सुनत राम गुन ग्राम सुहाए। भरद्वाज मुनिबर पहिं आए।।
दंड प्रनामु करत मुनि देखे। मूरतिमंत भाग्य निज लेखे।।
धाइ उठाइ लाइ उर लीन्हे। दीन्हि असीस कृतारथ कीन्हे।।
आसनु दीन्ह नाइ सिरु बैठे। चहत सकुच गृहँ जनु भजि पैठे।।
मुनि पूँछब कछु यह बड़ सोचू। बोले रिषि लखि सीलु सँकोचू।।
सुनहु भरत हम सब सुधि पाई। बिधि करतब पर किछु न बसाई।।
चौपाई का अर्थ: "तीर्थराज का निवास प्रमोद से भरा हुआ है, वह अपने गृह के बाहर अधीर है। वे दोनों एक-दूसरे से मिलकर दस पाँच करते हैं, भरत का स्नेह साफ़, सुचारू और साफ है। राम की गुणगान सुनकर सभी लोग खुश होते हैं, भरद्वाज मुनि वहाँ आते हैं। मुनि को देखकर भरत उन्हें दंडवत प्रणाम करते हैं, और वे दिव्य भाग्य की मूर्ति हैं। वह उठकर उनके पास जाते हैं, और उनसे आशीर्वाद लेते हैं, और अपनी कृतार्थता को प्रकट करते हैं। मुनि उनसे कुछ पूछते हैं, जिस पर वे भरत संकोच करते हैं। मुझे सुनिए भरत, हम सभी यह जान चुके हैं, लेकिन कुछ भी नहीं कर रहे हैं।"
दोहा-
तुम्ह गलानि जियँ जनि करहु समुझी मातु करतूति।
तात कैकइहि दोसु नहिं गई गिरा मति धूति।।206।।
इस दोहे का अर्थ नीचे दिया गया है:
"तुम अपनी भाषा में बातें करो और समझो, माता, और अपनी कर्तव्यों को समझो। तुम्हें अपने पिता की ओर से कोई असुरक्षितता नहीं हुई है, इसलिए मानसिकता को नहीं गिराओ और अपने बुद्धि को धोकर नहीं बर्बाद करो।"
इस दोहे में, कबीर जी माता को यह सिखा रहे हैं कि वह अपनी भाषा में बातें करे, समझे, और अपने कर्तव्यों को समझे। उन्हें यह समझना चाहिए कि उन्हें उनके पिता की ओर से कोई कमी नहीं हुई है और वे सुरक्षित हैं। इसलिए, वह अपनी मानसिक स्थिति को धोने नहीं देनी चाहिए और अपनी बुद्धि को नष्ट नहीं करनी चाहिए।
चौपाई 
यहउ कहत भल कहिहि न कोऊ। लोकु बेद बुध संमत दोऊ।।
तात तुम्हार बिमल जसु गाई। पाइहि लोकउ बेदु बड़ाई।।
लोक बेद संमत सबु कहई। जेहि पितु देइ राजु सो लहई।।
राउ सत्यब्रत तुम्हहि बोलाई। देत राजु सुखु धरमु बड़ाई।।
राम गवनु बन अनरथ मूला। जो सुनि सकल बिस्व भइ सूला।।
सो भावी बस रानि अयानी। करि कुचालि अंतहुँ पछितानी।।
तहँउँ तुम्हार अलप अपराधू। कहै सो अधम अयान असाधू।।
करतेहु राजु त तुम्हहि न दोषू। रामहि होत सुनत संतोषू।।
चौपाई का अर्थ: "अब कोई भी अच्छी बात नहीं कहता, सभी लोग दोनों वेद और बुद्धि की मान्यता करते हैं। तात, जैसा तुमने जो कहा है, वह लोगों ने वेदों की महानता को प्राप्त किया है। लोग कहते हैं कि जो राजा अपने पिता द्वारा दिया गया राज्य संभालता है, वही वेद को धारण करता है। राजा सत्यब्रत, तुमने जो बोला है, वह राजा को सुख और धर्म की महिमा देता है। राम की कथा की वजह से सभी अनार्थों का नाश होता है, जो सुनता है वह जग में शूल बन जाता है। जो कुछ भविष्य में होगा, वह रानी का जानने वाला होता है और उसके बाद पछताने वाला होता है। उस समय तुम्हारा अपराध बहुत ही कम है, जो कोई भी कहे, वह अत्यन्त ही नीच और असाधु होता है। जो राजा करता है, वह तुम्हें दोषी नहीं मानता, वह संतुष्ट होता है जब राम की तारीफ सुनता है।"
दोहा-
अब अति कीन्हेहु भरत भल तुम्हहि उचित मत एहु।
सकल सुमंगल मूल जग रघुबर चरन सनेहु।।207।।
इस दोहे का अर्थ नीचे दिया गया है:
"अब तुम्हने बहुत योग्यता का प्रदर्शन किया है, भरत, तुम्हें इसका योग्य मूल्य देना चाहिए। सम्पूर्ण सुमंगल सत्य, जगत के सभी मंगल और श्रेष्ठ, रघुकुल के प्रभु के पादों के प्रति पूरा सन्निहित है।"
इस दोहे में, कबीर जी भरत को उनकी योग्यता का सम्मान करने का सुझाव दे रहे हैं और उन्हें सम्पूर्ण सुमंगल (मंगलमय) और सत्य का प्रति राघव के पादों का समर्पण करने की सिफारिश कर रहे हैं।
चौपाई
सो तुम्हार धनु जीवनु प्राना। भूरिभाग को तुम्हहि समाना।।
यह तम्हार आचरजु न ताता। दसरथ सुअन राम प्रिय भ्राता।।
सुनहु भरत रघुबर मन माहीं। पेम पात्रु तुम्ह सम कोउ नाहीं।।
लखन राम सीतहि अति प्रीती। निसि सब तुम्हहि सराहत बीती।।
जाना मरमु नहात प्रयागा। मगन होहिं तुम्हरें अनुरागा।।
तुम्ह पर अस सनेहु रघुबर कें। सुख जीवन जग जस जड़ नर कें।।
यह न अधिक रघुबीर बड़ाई। प्रनत कुटुंब पाल रघुराई।।
तुम्ह तौ भरत मोर मत एहू। धरें देह जनु राम सनेहू।।
चौपाई श्रीराम चरित मानस में हैं। इसका अर्थ है:
"इसलिए तुम्हारा धनुष्य ही मेरी जान, प्राण है। तुम मेरे लिए भूमिहीनों के समान हो। यह तुम्हारे विचारों में कोई संदेह नहीं है, क्योंकि तुम मेरे पिता दशरथ के प्यारे भ्राता हो। भरत! तुम मन में रघुवंशी वीरों के लिए ही ध्यान करो, क्योंकि कोई भी तुम्हारे समान प्यारा नहीं है। लक्ष्मण और सीता राम से बहुत प्रेम करते हैं और राम की सराहना तुम्हें ही करते हैं। तुम बिना राम जी के अनुराग में जाने भी नहीं पा सकते, तुम उनके प्रति उनकी सबसे अधिक प्रेम करते हो। ये बातें बहुत बड़ाई नहीं हैं, यह तो राघव के प्रणेता और राघुकुल के पालने वालों के लिए है। भरत! मेरे मत को नहीं मानो, तुम्हारे लिए तुम्हारी जान राम का प्रेम करने में है।"
दोहा-
तुम्ह कहँ भरत कलंक यह हम सब कहँ उपदेसु।
राम भगति रस सिद्धि हित भा यह समउ गनेसु।।208।।
इस दोहे का अर्थ नीचे दिया गया है:
"तुम कह रहे हो, भरत, कि यह कलंक हम सब में है, हम सब इससे सीखें। राम भक्ति का रस, सिद्धि और हित, यह सभी गुण हमारे साथ हैं।"
इस दोहे में, कबीर जी भरत से कह रहे हैं कि यह कलंक उनके भीतर नहीं है, बल्कि राम भक्ति के रस, सिद्धि और हित सभी उनमें हैं और वह सभी यही गुण प्राप्त कर सकते हैं।

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