तुलसीदास के 10 दोहे अर्थ सहित 10 couplets of Tulsidas with meaning
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुना निधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥134
यह दोहे तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से हैं। इसका अर्थ है:
"सीता, जनक की सुता, जगत की जननी, अत्यंत प्रिय और करुणा का सागर हैं।
उनके चरणों के कमलों को मैं इस युग में मनाता हूँ, ताकि उनकी कृपा से मेरा मन निर्मल ज्ञान से भरा हो सके।"
यहां कहा गया है कि सीता, जनक की सुता, जगत की जननी, अत्यंत प्रिय हैं और करुणा का सागर हैं। मैं उनके पाद कमलों को इस युग में मनाता हूँ, ताकि उनकी कृपा से मेरा मन निर्मल ज्ञान से भरा हो सके।
पुनि मन बचन कर्म रघुनायक। चरन कमल बंदउँ सब लायक॥
राजिवनयन धरें धनु सायक। भगत बिपति भंजन सुख दायक॥135
यह दोहे तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से हैं। इसका अर्थ है:
"फिर से मन, वाणी और कर्म भगवान राम के ही नाम में लगाना चाहिए। उनके चरणार्विंदों को मैं सबकुछ आदरणीय मानता हूँ।
रामचंद्रजी ने धनुष और तीर धारण किया है, वे भक्तों की संकटों को दूर करने वाले और सुखदायक हैं।"
यहां कहा गया है कि मन, वाणी और कर्म को पुनः भगवान राम के नाम में लगाना चाहिए। उनके चरणों को सबसे आदरणीय मानना चाहिए। रामचंद्रजी ने धनुष और तीर धारण किया है, वे भक्तों की संकटों को दूर करने वाले और सुखदायक हैं।
दो0-गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न।
बदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न॥ 136
"जल की भिन्नता नहीं होती, चाहे वह समुद्र में गिरा हो या कहीं और।
वैसे ही, जो व्यक्ति सीता और राम के पादों में समर्थ है, उनका परम प्रिय होना समान है।"
इस दोहे में कहा गया है कि जल की भिन्नता समुद्र में गिरने पर भी नहीं होती, वैसे ही जो व्यक्ति सीता और राम के पादों में समर्थ है, उनका परम प्रिय होना समान है। यहां दो चीजों की समानता का उल्लेख किया गया है।
बंदउँ नाम राम रघुवर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥
बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो॥137
यह दोहे तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से हैं। इसका अर्थ है:
"मैं भगवान राम के नाम का आदर करता हूँ, जो सूर्य, चंद्रमा, और हिमकर (बर्फ) के लिए कृपालु हैं।
उनके गुण हरि के हरमय वेदों के प्राण हैं और उनके गुण अगुण के अनूपम निधान हैं।"
यहां बताया गया है कि मैं भगवान राम के नाम का आदर करता हूँ, जो सूर्य, चंद्रमा, और हिमकर (बर्फ) के लिए कृपालु हैं। उनके गुण हरि के हरमय वेदों के प्राण हैं और उनके गुण अगुण के अनूपम निधान हैं।
महामंत्र जोइ जपत महेसू। कासीं मुकुति हेतु उपदेसू॥
महिमा जासु जान गनराउ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ॥138
यह दोहे तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से हैं। इसका अर्थ है:
"जो महामंत्र महादेव (शिव) का जप करते हैं, वे काशी में मुक्ति के लिए सिखाते हैं।
जिनकी महिमा को जाना गया है, उन्हें पहले नाम प्रभु की पूजा की जानी चाहिए।"
यहां कहा गया है कि जो लोग महादेव का महामंत्र जपते हैं, वे काशी में मुक्ति के लिए उपदेश देते हैं। जिनकी महिमा को समझा गया है, उन्हें पहले भगवान के नाम की पूजा की जानी चाहिए।
जान आदिकबि नाम प्रतापू। भयउ सुद्ध करि उलटा जापू॥
सहस नाम सम सुनि सिव बानी। जपि जेई पिय संग भवानी॥ 139
यह दोहे तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से हैं। इसका अर्थ है:
"आदिकवि जानते हैं कि भगवान के नाम का प्रताप क्या है, इसलिए वे उसे शुद्ध करके उल्टा जपते हैं।
सहस्रों नामों का सुनकर सिव जी की बाणी के साथ वह व्यक्ति भवानी माता के संग जैसा जप करता है।"
यहां कहा गया है कि आदिकवि जानते हैं कि भगवान के नाम का प्रताप क्या होता है, इसलिए वे उसे शुद्ध करके उल्टा जपते हैं। जो व्यक्ति सहस्रों नामों का सुनकर सिव जी की बाणी के साथ भवानी माता के संग जैसा जप करता है।
हरषे हेतु हेरि हर ही को। किय भूषन तिय भूषन ती को॥
नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को॥ 140
यह दोहे तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से हैं। इसका अर्थ है:
"हे हरि, हर ही को हर्ष देने के लिए हेरि हैं। वे जो भगवान का नाम जानते हैं, उन्हीं को श्रेष्ठ भूषण समझते हैं।
भगवान के नाम को जानकर सिव को भी अशुभ फल (कालकूट) देने वाले अमायकों को भी नष्ट कर देता है।"
यहां कहा गया है कि भगवान हरि ही हर्ष देने के लिए सक्षम हैं। जो भगवान का नाम जानते हैं, उन्हीं को श्रेष्ठ भूषण माना जाता है। भगवान के नाम को जानने वाले लोगों को वे अशुभ फल देने वाले कालकूट यानी दुःख को भी नष्ट कर देते हैं।
दो0-बरषा रितु रघुपति भगति तुलसी सालि सुदास॥
राम नाम बर बरन जुग सावन भादव मास॥141
यह दोहे तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से हैं। इसका अर्थ है:
"रघुपति श्रीराम की भक्ति बरसात की रितु (मौसम) के तुलसीदास के लिए बहुत ही सुहावना है।
राम नाम को बार-बार जपना जुग में सावन और भाद्रपद मास में अत्यंत उपयुक्त है।"
यहां बताया गया है कि श्रीराम की भक्ति बरसात के मौसम के तुलसीदास के लिए अत्यंत सुहावना होती है। श्रीराम का नाम जुग में सावन और भाद्रपद मास में बार-बार जपना बहुत उपयुक्त है।
आखर मधुर मनोहर दोऊ। बरन बिलोचन जन जिय जोऊ॥
सुमिरत सुलभ सुखद सब काहू। लोक लाहु परलोक निबाहू॥142
यह दोहे तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से हैं। इसका अर्थ है:
"बोले शब्द मधुर और मनोहर होते हैं, इनकी वाणी सुनकर जन और जीवन दोनों सुखमय होते हैं।
भगवान का स्मरण करने से सभी को सुखद आसानी से मिलता है और वे इस लोक और परलोक में समान रूप से सुखी रहते हैं।"
यहां कहा गया है कि मधुर और मनोहर शब्दों का प्रयोग करने से लोगों को सुख मिलता है। भगवान का स्मरण करने से सभी को सुख मिलता है और वे इस लोक और परलोक में समान रूप से सुखी रहते हैं।
कहत सुनत सुमिरत सुठि नीके। राम लखन सम प्रिय तुलसी के॥
बरनत बरन प्रीति बिलगाती। ब्रह्म जीव सम सहज सँघाती॥143
यह दोहे तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से हैं। इसका अर्थ है:
"तुलसीदास कहते हैं और लोग सुनते हैं, सुमिरते हैं, सुनते हैं, सुखी और नेक होते हैं, जैसे राम और लक्ष्मण तुलसीदास के प्रिय हैं।
प्रेम से बरनने वाला अपनी प्रियता को व्यक्त करता है, और ब्रह्मा और जीवात्मा के समान सहजता से एक साथ रहता है।"
यहां बताया गया है कि तुलसीदास कहते हैं, लोग सुनते हैं, सुमिरते हैं, सुखी और नेक होते हैं, जैसे राम और लक्ष्मण तुलसीदास के प्रिय हैं। प्रेम से बरनने वाला व्यक्ति अपनी प्रियता को व्यक्त करता है, और वह ब्रह्मा और जीवात्मा के समान सहजता से एक साथ रहता है।
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