रघुपति की स्तुति तीर्थयात्रा का महत्व Importance of pilgrimage in praise of Raghupati
"अब रघुपति पद पंकज रुह हियं धरि पाइ प्रसाद।
कहहु जुगल मुनि बरज करि मिलन सुभाग संबाद॥285
यह श्लोक तुलसीदास जी के एक कृति "रामचरितमानस" से लिया गया है। इसका अर्थ है - "अब मैंने रघुपति श्रीराम के पादकमलों को अपने हृदय में धारण करके उनका प्रसाद प्राप्त किया। हे जुगल! ब्रह्मर्षि नारद जी के उस शुभ समय में, मुनिजन आपस में मिलकर धर्मिक और सुखद बातचीत कर रहे हैं॥"
यह श्लोक भगवान श्रीराम की पूजा और उनके चरणों में भक्ति को दर्शाता है, साथ ही समाज में धर्मिक और सुखद विचारों को बढ़ावा देने की प्रेरणा देता है।
"भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा। तिन्हहि राम पद अति अनुरागा॥
तापस सम दम दया निधाना। परमार्थ पथ परम सुजाना॥"286
यह श्लोक भक्ति और आध्यात्मिकता की महत्ता को बताता है, साथ ही उसे धार्मिक व्यक्तित्व और समाज के लिए एक आदर्श मानता है।
"माघ मकरगत रवि जब होई। तीर्थपतिहिं आव सब कोई॥
देव दनुज किंनर नर श्रेनी। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं॥"287
यह श्लोक माघ मास के महत्त्व और तीर्थ स्नान की महत्ता को दर्शाता है। इसमें समाज में धर्मिक और सामाजिक एकता के संदेश भी होते हैं।
"पूजहि माधव पद जलजाता। परसि अखय बटु हरषहिं गाता॥
भरद्वाज आश्रम अति पावन। परम रम्य मुनिबर मन भावन॥"288
यह श्लोक भगवान तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से है। इसका अर्थ है - "माधव (श्रीराम) के पादकमलों की पूजा करते हुए जल के समान स्नान करते हुए, अपने प्राणों को हर्षित करते हुए गीत गाते हैं। भरद्वाज ऋषि का आश्रम बहुत ही पवित्र है और वहां के महान् मुनियों के मन में अद्वितीय भावना होती है।"
यह श्लोक भगवान राम की भक्ति और आध्यात्मिक उद्दीपना को दर्शाता है, साथ ही साधु-संतों के सम्मान में भी संदेश देता है।
"तहाँ होइ मुनि रिषिय समाजा। जाहिं जे मज्जन तीरथराजा॥
मज्जहिं प्रात समेत उछाहा। कहहिं परसपर हरि गुन गाहा॥"289
यह श्लोक सामाजिक एकता, समरसता और साझा धार्मिक अनुभव को दर्शाता है। इसमें साथी भगवान के गुणों की महिमा का गान भी होता है।
"दो-ब्रह्म निरूपम धर्म बिधि बरनहिं तत्त्व बिभाग।" 290
यह श्लोक ब्रह्मांड और ब्रह्म के विषय में अद्वितीयता और अव्यक्तता को बताता है। यह ब्रह्म की अनन्तता और अनंत गुणों की अव्यक्तता को संकेतित करता है, जो शब्दों या भाषा में पूरी तरह से व्यक्त नहीं की जा सकती है।
"कहहिं भगति भगवंत कै संजुत ग्यान बिराग। 291
यह श्लोक भगवान की भक्ति को समझाते हैं, जो ज्ञान और वैराग्य के साथ संयुक्त है। यह दर्शाता है कि भगवान के प्रति प्रेम और भक्ति में समाहित होने के लिए ज्ञान और वैराग्य का संयोजन आवश्यक होता है।
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