राम चरन सतसंग मन ,काम में दिलचस्पी रुचि

राम चरन सतसंग मन ,काम में दिलचस्पी रुचि Ram Charan satsang mind, interest in work interest

"जौं करि कष्ट जाइ पुनि कोई। जातहिं नींद जुड़ाई होई॥
जड़ता जाड़ बिषम उर लागा। गएहुँ न मज्जन पाव अभागा॥"257
अर्थ:-
"कोई भी मनुष्य कठिनाइयों को झेलता है, पर फिर भी उसमें सुलगा रहता है। उसकी नींद कोई नहीं चुरा सकता। यद्यपि उसका मन बड़ा कठिन है, ताकि वह समस्याओं से दुखी हो, पर फिर भी वह अभागा नहीं होता जो अपने मन को नहीं शांत कर पाता।"
इस दोहे में तुलसीदास जी ने मनुष्य के जीवन में आने वाली कठिनाइयों को व्यक्त किया है। वे कह रहे हैं कि कोई भी जिसे भी संघर्ष करना पड़े, उसे सहना चाहिए और उसका सामना करना चाहिए। अगर कोई व्यक्ति समस्याओं से भागता है और उन्हें नहीं सुलझाता, तो वह उसका अभागा होता है।

संवाद में नैतिकता
"करि न जाइ सर मज्जन पाना। फिरि आवइ समेत अभिमाना॥
जौं बहोरि कोउ पूछन आवा। सर निंदा करि ताहि बुझावा॥"258
अर्थ:-
"मनुष्य को अपने सिर पर मिट्टी नहीं लगानी चाहिए, क्योंकि फिर उसे साथ में अहंकार भी आता है। अगर कोई अन्य को सवाल करने आवे, तो उसे उसकी गलती को समझाना चाहिए और उसे उसकी गलती का आदान-प्रदान करना चाहिए।"
इस दोहे में तुलसीदास जी कह रहे हैं कि हमें दूसरों को निंदा नहीं करनी चाहिए। जो भी दोष हो, उसे समझाना चाहिए और उस दोष को दूर करने का प्रयास करना चाहिए। अपने अहंकार को बढ़ावा नहीं देना चाहिए और दूसरों को भी बिना उनकी निंदा किये समझाना चाहिए।

"सकल बिघ्न ब्यापहि नहिं तेही। राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही॥
सोइ सादर सर मज्जनु करई। महा घोर त्रयताप न जरई॥"259
अर्थ:-
"जैसे कि रामचंद्रजी की कृपा से सभी बिगड़े काम ठीक हो जाते हैं, वैसे ही सभी प्रकार के विघ्न उसी में समाहित होते हैं। वही राम उस मानव का मन संतुष्ट कर देते हैं, जिसने उन्हें आदर्श रूप से पूजा है, और उसका दुःख बड़े ही घोर तीनों वेदनाओं का नाश नहीं करता।"
तुलसीदास जी इस दोहे में बता रहे हैं कि भगवान रामचंद्रजी की कृपा से सभी प्रकार के विघ्न दूर हो जाते हैं। उनकी पूजा और उनके आदर्शों का पालन करने से मानव मन शांति पा सकता है और उसका दुःख बड़े तीनों वेदनाओं का नाश कर सकता है।

राम चरन सतसंग मन
"ते नर यह सर तजहिं न काऊ। जिन्ह के राम चरन भल भाऊ॥
जो नहाइ चह एहिं सर भाई। सो सतसंग करउ मन लाई॥"260
अर्थ:-

"जो लोग रामचंद्रजी के पादों की पूजा करते हैं, उनको मैं कभी नहीं छोड़ूँगा। जो मनुष्य इस संसार में है, लेकिन उसका मन रामचंद्रजी के प्रेम में नहीं है, उसे मैं सत्संग से मन लगाकर करता हूँ।"
तुलसीदास जी के इस दोहे में यह कहा गया है कि जो लोग भगवान राम के चरणों की पूजा करते हैं, उन्हें वह नहीं छोड़ते हैं। अगर कोई व्यक्ति मानवीय शरीर में होकर भी रामचंद्रजी के प्रेम में नहीं है, तो उसे सत्संग करके अपना मन राम की ओर ले जाना चाहिए।

"अस मानस मानस चख चाही। भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही॥
भयउ हृदयँ आनंद उछाहू। उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू॥"261
अर्थ:-

"ऐसा मानस के मन में रस चाहिए, जो अवगाहन के लिए कवि की बुद्धि को शुद्ध कर दे। उसके ह्रदय में आनंद उत्पन्न हो और प्रेम का प्रवाह बहे।"
तुलसीदास जी के इस दोहे में वे बता रहे हैं कि कवि को उस प्रकार की भावना को महसूस करना चाहिए, जो उसकी बुद्धि को शुद्ध कर दे और जिससे उसके हृदय में आनंद का संचार हो। इससे प्रेम और प्रमोद की झील में वह लीन हो सके।

कविता: सरजू और राम
"चली सुभग कबिता सरिता सो। राम बिमल जस जल भरिता सो॥
सरजू नाम सुमंगल मूला। लोक बेद मत मंजुल कूला॥"262

अर्थ:-
"वह सुंदर कबीता (कविता) की धारा, जो श्रीराम की तरह शुद्ध जल से भरी हुई है। वह सरयू नदी का नाम सुमंगल है, जो लोक में बेदों की मान्यता के समान मनुष्यों के लिए पवित्र स्थान है।"
तुलसीदास जी इस दोहे में सरयू नदी की महिमा गाते हैं, जिसे श्रीराम के पवित्र जल के समान स्तुति दी गई है। वे सरयू नदी को एक शुद्ध और पवित्र स्थान के रूप में बता रहे हैं जो लोगों के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण है।

"नदी पुनीत सुमानस नंदिनि। कलिमल तृन तरु मूल निकंदिनि॥"263

अर्थ: -
"जो नदी पवित्र और सुंदर है, वह नदिनी (नदी की देवी) सुमानस है, जो कलिमल (अशुद्धि) को तृण (ग्रास) कर तरुमूल (पेड़ों की जड़) से ही निकाल देती है।"
तुलसीदास जी इस दोहे में नदी की पवित्रता को बयां करते हैं। सुमानस नदी को कलिमल को नष्ट करने वाली माना गया है, जो कि व्यक्ति के पापों को दूर करती है और उसे शुद्धि की ओर ले जाती है।

"श्रोता त्रिबिध समाज, पुर ग्राम नगर दुहुँ कूल।
संतसभा अनुपम अवध, सकल सुमंगल मूल॥"264

यह श्लोक तुलसीदासजी के ग्रंथ "रामचरितमानस" से है, जो उनकी रचनात्मक कृति है।
अर्थ:-
"समाज तीन प्रकार के श्रोता होते हैं - गाँवों में, नगरों में और दोनों के मिलनसार। अयोध्या में संतों की सभा अनुपम है, जो सभी सुमंगल की जड़ है।"
यहाँ तुलसीदासजी समाज के तीन प्रकार के श्रोता का उल्लेख कर रहे हैं - गाँव, नगर, और उनके मिलनसार समाज। उन्होंने कहा है कि अयोध्या में संतों की सभा अनुपम है, और यहाँ की संत समाज की सुमंगल की जड़ है, जो सभी के लिए शुभ और मार्गदर्शन प्रदान करती है।

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