बाला-काण्ड श्लोक ३७ से ४२ भावार्थ सहित

बाला-काण्ड  श्लोक ३७ से ४२ भावार्थ सहित Bala-Kand verses 37 to 42 with meaning

श्लोक
पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना। पर अघ सुनइ सहस दस काना।। 
बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही। संतत सुरानीक हित जेही॥ ३७
भावार्थ
यह दोहा भगवान की महिमा और उनके भक्ति में स्तुति करते हुए लिखा गया है। ये गोस्वामी तुलसीदास जी के 'रामचरितमानस' से लिए गए हैं।
यह दोहा संतानों की सुरक्षा और हित की बात करता है। 
पुनि - फिर  
प्रनवउँ - बिना पुकारे  
पृथुराज - धरतीपति (राजा)  
समाना - समान  
पर - पर  
अघ - दुर्जन  
सुनइ - सुनकर  
सहस - सहसा  
दस - दस  
काना - कान
बहुरि - बहुत  
सक्र - बार-बार  
सम - समान  
बिनवउँ - पुकारते  
तेही - वही  
संतत - संतान
सुरानीक - सुरक्षित  
हित - हित  
जेही - जैसी
इस दोहे में कहा गया है कि राजा धरतीपति फिर भी बिना पुकारे दुर्जनों की शिकायत सुनते हैं। लेकिन जैसे संतानों की सुरक्षा और हित की चिंता करते हैं, वही बार-बार पुकारते हैं।
"पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना। पर अघ सुनइ सहस दस काना।। बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही। संतत सुरानीक हित जेही॥"
इस दोहे में लिखा है कि भगवान को फिर से प्रणाम करता हूँ, जो पृथ्वीराज (राम) के समान हैं। मैं उनसे अपने पापों को सुना रहा हूँ, हालात समृद्धि से बिनती कर रहा हूँ। उन्हीं को बार-बार प्रार्थना करता हूँ, क्योंकि उनकी कृपा ही संतों और देवताओं के हित में बहुत अहम भूमिका निभाती है।
इस दोहे में भगवान की कृपा और उनके भक्ति में स्तुति की गई है, जो समस्त संतों और सृष्टि के हित में समर्पित है। यह भक्ति और निरंतर प्रार्थना का भाव समझाता है।
श्लोक
बचन बज्र जेहि सदा पिआरा। सहस नयन पर दोष निहारा।। ३८
भावार्थ
यह दोहा किसी के वचन की महत्ता और दूसरों के गुणों को देखने की बात करता है। यह दोहा भक्ति और आत्मविश्वास के बारे में है। इसे गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है और यह उनके 'रामचरितमानस' से लिया गया है।
बचन - वचन
बज्र - वज्र (धारा)
जेहि - जो
सदा - हमेशा
पिआरा - प्रिय होता है
सहस - समर्थ
नयन - आंखें
पर - पर
दोष - दोष
निहारा - देखती है
इस दोहे में यह कहा गया है कि किसी के वचन हमेशा महत्त्वपूर्ण होते हैं और हमें दूसरों के गुणों को देखना चाहिए, न कि उनकी दोषों पर नजर रखनी चाहिए।
"बचन बज्र जेहि सदा पिआरा। सहस नयन पर दोष निहारा।।" - यह वाक्य बताता है कि जिन वचनों का प्रेम होता है, वे वचन तो वज्र (गदा) के समान होते हैं और जो दृष्टि में दोष नहीं दिखाई देते, वे दृष्टि सहस्रों नयनों पर भी निहारते हैं।
इस दोहे से यह संदेश मिलता है कि सच्चे और प्रेमपूर्ण वचनों की शक्ति अत्यधिक होती है और वे दृष्टि में किसी भी तरह के दोष को नहीं दिखाते हैं। यह हमें बताता है कि सत्य और प्रेम में विश्वास रखना चाहिए।
श्लोक
उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति । 
जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति ॥ ३९  ॥
भावार्थ
यह दोहा गोस्वामी तुलसीदास जी के रामचरितमानस से हैं और इसमें मित्रता और दुश्मनता के बारे में बात की गई है।
यह दोहा मित्रता और लोगों की सहायता के महत्त्व को बताता है।
उदासीन - उदासीनता
अरि - शत्रु
मीत - मित्र
हित - हित
सुनत - सुनना
जरहिं - जिसके साथ
खल - दुर्जन
रीति - तरीका
जानि - जानकर
पानि - पानी
जुग - युग
जोरि - शक्ति से
जन - लोग
बिनती - बिनती
करइ - करते हैं
सप्रीति - सहायता के साथ
इस दोहे में कहा गया है कि जब हमारे मित्र हमारे हित की बात सुनते हैं, तो हमें उनकी मदद करनी चाहिए। यहां कहा गया है कि जानकर जब लोग सहायता की मांग करते हैं, तो हमें सहायता करनी चाहिए।
"उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति। जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति॥"
यह वाक्य बताता है कि जो व्यक्ति उदासीन होकर अपने शत्रु और मित्र की हितैषी बातों को सुनता है, वह खलाएगी रीति का पालन करता है। जानते हुए भी कि दुनिया में जल जोर से बहता है, वह व्यक्ति लोगों से प्रीति के साथ बिनती करता है।
यह दोहा हमें यह बताता है कि हमें अपने मित्र और शत्रु दोनों की सुनना चाहिए, और उन्हें प्रेम से सुनना चाहिए। इससे हम समझ सकते हैं कि प्रेम और सद्भावना से ही हम जीवन में सुलह कर सकते हैं।
श्लोक
मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा। तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा ॥ 
बायस पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा।। ४०
भावार्थ
यह दोहा गोस्वामी तुलसीदास जी के 'रामचरितमानस' से हैं और इसमें आत्म-समर्पण और साधना के बारे में बताया गया है।
यह दोहा अपनी सत्ता को समझाता है।
मैं - मैं
अपनी - अपनी
दिसि - दिशा (सम्मुख)
कीन्ह - देखा
निहोरा - उदाहरण
तिन्ह - वे
निज - अपने
ओर - दिशा
न - नहीं
लाउब - लाऊंगा
भोरा - प्रकट
बायस - बहुत
पलिअहिं - पल
अति - बहुत
अनुरागा - प्रेम
होहिं - होते हैं
निरामिष - निर्मल
कबहुँ - कभी
कि - कोई
कागा - कागा (कवि)
"मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा। तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा॥ बायस पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा।।" यह वाक्य बताता है कि मैं अपने बाहरी दृष्टिकोण को नहीं देखता, बल्कि मैं अपने अंतर्मन की दिशा को ही देखता हूँ। मैं अपने बाहरी संसार की ओर ध्यान नहीं देता। अत्यंत आनंदित और उत्साहित रहता हूँ, और कभी-कभी मैं सदा ही निर्मम और निरामिष होता हूँ, जैसे कि कौवा।
यह दोहा हमें यह सिखाता है कि सच्ची साधना में आत्मा को समर्पित करना चाहिए। यहां उचित आनंद और उत्साह का महत्त्व बताया गया है और साधना में समर्पण के माध्यम से हम अपनी ऊर्जा को प्राप्त कर सकते हैं।
इस दोहे में कहा गया है कि मैंने अपनी सम्मुख दिशा में कोई उदाहरण नहीं देखा है, मुझे अपनी सत्ता का प्रमाण नहीं दिखाना पड़ता, जैसे कि कागा को भी कभी कोई प्रमाणिकता नहीं देनी पड़ती है।
श्लोक
बंदउँ संत असज्जन चरना। दुखप्रद उभय बीच कछु बरना।। 
बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीं।। ४१
भावार्थ
यह दोहा गोस्वामी तुलसीदास जी के 'रामचरितमानस' से हैं और इसमें संतों के साथ संबंध और विचार किया गया है।
यह दोहा संतों और असाधुओं के विचारों के बारे में है।
बंदउँ - मैं बंधा हुआ
संत - संत
असज्जन - दुर्जन
चरना - पाद
दुखप्रद - दुखदायी
उभय - दोनों
बीच - बीच
कछु - कुछ
बरना - कहना
बिछुरत - विभाजन होता है
एक - एक
प्रान - जीवन
हरि - भगवान
लेहीं - लेते हैं
मिलत - मिलते
दुख - दुःख
दारुन - दर्दनाक
देहीं - देते हैं
"बंदउँ संत असज्जन चरना। दुखप्रद उभय बीच कछु बरना।। बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीं।।"
इस वाक्य में कहा गया है कि संतों के चरणों में सेवा करना चाहिए, और दोषी लोगों के संग में न रहना चाहिए। यह दोषदृष्टि और संतों के सम्बंध में चिंता का विचार किया गया है। जब हम संतों के संग में रहते हैं, तो हमारा अंतर्मन हरि (भगवान) की ओर मुख करता है, और जब हम उनसे दूर होते हैं, तो वह बहुत दुःखदायक होता है।
यह दोहा हमें संतों और साधुओं के साथ संबंध का महत्त्व बताता है और दोषी संगति से दूर रहने की सलाह देता है। इससे हमारी आत्मिक उन्नति और मनोबल बना रहता है।
इस दोहे में कहा गया है कि संतों के पादों की प्राप्ति से सुख मिलता है, जबकि असाधुओं के पादों की प्राप्ति से दुःख मिलता है। भगवान से मिलने पर सुख मिलता है, लेकिन उनसे विभाजन होने पर दुख मिलता है।
श्लोक
उपजहिं एक संग जग माहीं। जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं।।
 सुधा सुरा सम साधु असाधू। जनक एक जग जलधि अगाधू ।। ४२
भावार्थ
यह दोहा सभी मानवों की एकता और समानता के बारे में है।
यह दोहा गोस्वामी तुलसीदास जी के 'रामचरितमानस' से हैं और इसमें समाज में संग का महत्त्व और उसका प्रभाव बताया गया है।
उपजहिं - उत्पन्न होते हैं
एक - एक
संग - समूह
जग - दुनिया
माहीं - में
जलज - जलाशयों में उत्पन्न होने वाले
जोंक - जलाशय
जिमि - जैसे
गुन - गुण
बिलगाहीं - विभाजित
सुधा - अमृत
सुरा - सुरा (मदिरा)
सम - समान
साधु - साधु
असाधू - असाधु
जनक - जन
एक - एक
जग - दुनिया
जलधि - समुद्र
अगाधू - अपार
"उपजहिं एक संग जग माहीं। जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं।। सुधा सुरा सम साधु असाधू। जनक एक जग जलधि अगाधू।।"
यह वाक्य बताता है कि जैसे जलज जीवों को जल के संग में जीना पड़ता है, उसी तरह मनुष्यों को भी समाज में किसी न किसी संगति में रहना पड़ता है। साधु-असाधु, श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ सभी इसी समाज में हैं। सारा संसार एक ही बारिस्थल (जलधि) में बिलगाहित है।
यह दोहा हमें समाज में संग का महत्त्व बताता है। हर व्यक्ति को समाज में अपना स्थान बनाना पड़ता है और सभी को सहनीयता और समझदारी से संगठित रहना चाहिए।
इस दोहे में कहा गया है कि सभी मानव समुदाय एक ही में उत्पन्न होते हैं, जैसे जलाशयों में उत्पन्न होने वाले जलाशय भिन्न-भिन्न गुणों में विभाजित होते हैं। साधु-असाधु, अमृत-मदिरा के साथ भी जन समुद्र में एक ही हैं।

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