आश्रमी का धर्मिक निर्णय Ashrami's religious decision
एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं। पुनि सब निज निज आश्रम जाहीं॥
प्रति संबत अति होइ अनंदा। मकर मज्जि गवनहिं मुनिबृंदा॥ 292
दोहे के दूसरे भाग में तुलसीदासजी कहते हैं कि प्रत्येक समय मनुष्य को बहुत आनंद और संतोष मिलना चाहिए। मकर संक्रांति का उल्लेख करके यहां उन्होंने मुनियों की तरह हमें समय का महत्त्व और उसका सही उपयोग करने की सलाह दी है।
एक बार भरि मकर नहाए। सब मुनीस आश्रमन्ह सिधाए॥
जगबालिक मुनि परम बिबेकी। भरव्दाज राखे पद टेकी॥293
यह दोहा भी तुलसीदासजी के द्वारा रचित है और इसमें भी जीवन के मूल्यवान सन्देश हैं।
इस दोहे में कहा गया है कि जैसे मकर संक्रांति के दिन सभी मुनियों ने नहाने का कार्य किया, ठीक उसी तरह हर व्यक्ति को भी अपने आश्रम में उसी तरह समय बिताना चाहिए। यह एक संकेत है कि सभी को नियमित रूप से समय समझौता करना चाहिए ताकि वे अपने मानसिक और आध्यात्मिक विकास के लिए समय निकाल सकें।
दोहे के दूसरे भाग में तुलसीदासजी एक उत्कृष्ट और जागरूक मुनि के उदाहरण के माध्यम से हमें यह बताते हैं कि हर व्यक्ति को उच्च सोच वाले और समझदार लोगों के साथ समय बिताना चाहिए। भरव्दाज जैसे प्रमुख मुनि ने अपने पादों को समर्पित किया, उसी तरह हमें भी उन विचारों और शिक्षाओं को मानना चाहिए जो समझदार और आदर्शनीय व्यक्तियों से सीख सकते हैं।
सादर चरन सरोज पखारे। अति पुनीत आसन बैठारे॥
करि पूजा मुनि सुजस बखानी। बोले अति पुनीत मृदु बानी॥294
सादर चरन सरोज पखारे। इसमें बताया गया है कि श्रीराम जी के पादों को शुद्धता से धोकर पूजन किया जाता है। यह उनके पादों की पवित्रता और उनके पूजन की महत्ता को दर्शाता है।
अति पुनीत आसन बैठारे। यहां बताया गया है कि सीताजी और श्रीरामजी को बहुत ही पवित्र आसन पर बैठाया गया था। इससे उनके पूजन में समर्थन और आदर दर्शाया जा रहा है।
करि पूजा मुनि सुजस बखानी। बोले अति पुनीत मृदु बानी॥ यह बताता है कि जब मुनियों ने पूजा की तो वे बहुत ही शुद्ध और पवित्र भाषा में बातचीत की। इससे स्पष्ट होता है कि पूजन में शुद्धता और सच्चाई की आवश्यकता होती है।
नाथ एक संसउ बड़ मोरें। करगत बेदतत्व सबु तोरें॥
कहत सो मोहि लागत भय लाजा। जौ न कहउँ बड़ होइ अकाजा॥295
यह दोहा भगवान तुलसीदास के द्वारा रचित है और इसमें भगवान कृष्ण के भक्ति और समर्थन का वर्णन किया गया है।
"नाथ एक संसउ बड़ मोरें। करगत बेदतत्व सबु तोरें॥"
यहां श्रीकृष्ण को 'नाथ' यानी गुरु और परमेश्वर के रूप में उपस्थित माना गया है। दोहे में कहा गया है कि उन्हीं के आदेशानुसार सम्पूर्ण वेदों का तात्पर्य तथ्य को मैंने समझ लिया है।
"कहत सो मोहि लागत भय लाजा। जौ न कहउँ बड़ होइ अकाजा॥"
यहां बताया गया है कि भक्त कहता है कि मुझे शर्म आती है क्योंकि मैं भगवान कृष्ण की बड़ी भावना से बात नहीं कर सकता। उसे यह भावना होती है कि मैं बड़ होकर भी कुछ अधूरा कार्य छोड़ जाऊँगा।
संत कहहि असि नीति प्रभु श्रुति पुरान मुनि गाव।
होइ न बिमल बिबेक उर गुर सन किएँ दुराव॥296
यह दोहा संत तुलसीदास जी के द्वारा रचित है, और इसमें संतों और गुरुओं के महत्त्व का वर्णन किया गया है।
"संत कहहि असि नीति प्रभु श्रुति पुरान मुनि गाव। होइ न बिमल बिबेक उर गुर सन किएँ दुराव॥"
इस दोहे में कहा गया है कि हम लोग संतों और गुरुओं की शिक्षा को ना केवल सुनना चाहिए, बल्कि उसे अपने दिल में बिना किसी दुर्बलता के स्थापित करना चाहिए। वे नीति, प्रभु, श्रुति और पुराणों की बात करते हैं, जो हमें जीवन में सही राह दिखाने में सहायक हो सकते हैं। इसलिए गुरु के साथ बिना अनिश्चितता के मिलकर चलना चाहिए।
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