(१७ -२५) श्लोक बालकाण्ड के भावार्थ सहित

(१७ -२५) श्लोक बालकाण्ड के भावार्थ सहित (17-25) Verses with the meaning of Balkand

श्लोक

उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के ।।
सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक ।। १७ - सप्तदश

भावार्थ

यह दोहा भगवान राम की चरित्र की महिमा को बताता है। 
उघरहिं - देखते ही  
बिमल - निर्मल  
बिलोचन - नेत्र  
ही के - उनके ही  
मिटहिं - मिट जाते हैं  
दोष - दोष  
दुख - दुःख  
भव - संसार  
रजनी - अंधकार
सूझहिं - समझते हैं  
राम चरित - रामायण की कथा  
मनि मानिक - मन माणिक्य (मन के ज्ञान का रत्न)  
गुपुत - संक्षेप में  
प्रगट - प्रकट  
जहँ - जहाँ  
जो - वह  
जेहि खानिक - वहाँ-वहाँ के समय
इस दोहे में कहा गया है कि जो मनुष्य भगवान राम के निर्मल नेत्रों को देखता है, उसके दोष, दुःख और संसार के अंधकार मिट जाते हैं। रामायण की कथा को समझने से मन को ज्ञान का रत्न मिलता है और जहाँ-जहाँ यह प्रकट होती है, वहां-वहां के समय में भगवान का सन्देश उसे प्राप्त होता है।

श्लोक

दो- जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान। 
कौतुकं देखत सैल बन भूतल भूरि निधान ॥ १८ - अष्टादश , ॥

भावार्थ

यह दोहा भक्ति के उत्कृष्टता को व्यक्त करता है। 
जथा - जैसे ही  
सुअंजन - स्वच्छ  
अंजि - ज्ञान  
दृग - दृष्टि  
साधक - साधक  
सिद्ध - सिद्ध  
सुजान - ज्ञानी
कौतुकं - आश्चर्य  
देखत - देखते हैं  
सैल - पर्वत  
बन - वन  
भूतल - पृथ्वी  
भूरि - बहुत  
निधान - समृद्धि
इस दोहे में कहा गया है कि स्वच्छ ज्ञान और साधना की दृष्टि वाले साधक और सिद्ध पुरुष जैसे ही पर्वतों और वनों को देखते हैं, उनमें बहुत समृद्धि का आश्चर्य महसूस करते हैं।

श्लोक

गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन ।। 
तेहि करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन ।। १९ ,

भावार्थ

यह दोहा गुरु की महिमा और भगवान राम की चरित्र की महत्ता को व्यक्त करता है। 
गुरु - गुरुदेव  
पद - पाद  
रज - रोशनी  
मृदु - मृदुता  
मंजुल - सुंदरता  
अंजन - काजल  
नयन - आंखें  
अमिअ - अनंत  
दृग - दृष्टि  
दोष - दोष  
बिभंजन - दूर करने वाले
तेहि - उन्हीं  
करि - करते  
बिमल - साफ  
बिबेक - विवेक  
बिलोचन - देखते हैं  
बरनउँ - बताता हूं  
राम चरित - रामायण की कथा  
भव मोचन - संसार से मुक्ति 
इस दोहे में गुरुदेव के पादों की रोशनी, मृदुता, सुंदरता और काजल की तरह आंखों को अनंत दोषों से मुक्ति प्रदान करते हैं। वे जो साफ विवेक से देखते हैं, वही रामायण की कथा सुनकर संसार से मुक्ति प्राप्त करते हैं।

श्लोक

बंदउँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संसय सब हरना।। 
सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी।। २० - विंशति: 

भावार्थ

यह दोहा श्री हनुमान जी की महिमा को व्यक्त करता है। 
बंदउँ - सेवन करता हूं  
प्रथम - पहले  
महीसुर - हनुमान  
चरना - पादों  
मोह - मोह  
जनित - उत्पन्न  
संसय - संदेह  
सब - सभी  
हरना - दूर करना
सुजन - ज्ञानी  
समाज - समुदाय  
सकल - सभी  
गुन - गुण  
खानी - चर्चा करनी  
करउँ - करता हूं  
प्रनाम - नमस्कार  
सप्रेम - पूर्ण प्रेम से  
सुबानी - बानी 
इस दोहे में हनुमान जी के पादों की सेवा करने से सभी मोह और संदेह दूर होते हैं। जो ज्ञानी समुदाय है, उनके सभी गुणों की चर्चा करता हूं और पूर्ण प्रेम से उन्हें नमस्कार करता हूं।

श्लोक

साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू।।
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा।। २१ - एकविंशतिः ,

भावार्थ

यह दोहा साधु संतों के चरित्र की महिमा को बयां करता है। 
साधु - साधु  
चरित - चरित्र  
सुभ - शुभ  
कपासू - कपास के समान  
निरस - विरल  
बिसद - विभिन्न  
गुनमय - गुणवान  
फल - परिणाम  
जासू - होते हैं
जो - जो  
सहि - सही  
दुख - दुःख  
परछिद्र - पर्दा  
दुरावा - दूर करने वाले  
बंदनीय - पूजनीय  
जेहिं - जहाँ  
जग - जगत  
जस - जैसे  
पावा - पाते हैं
इस दोहे में कहा गया है कि साधु संतों का चरित्र तो शुभता के कपास के समान होता है, जिनके विभिन्न गुणवान फल होते हैं। जो व्यक्ति सही रूप से दुःख के पर्दे को दूर करने वाले साधु संतों को पूजनीय मानता है, वही व्यक्ति जगत में प्रशंसनीय होता है।

श्लोक

मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू ।। 
राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा।। २२ - द्वाविंशतिः , 

भावार्थ

यह दोहा भगवान की भक्ति और साधु-संतों की महिमा को बताता है। 
मुद - आनंद  
मंगलमय - शुभ  
संत - संत  
समाजू - समाज  
जो - वह  
जग - जगत  
जंगम - चलनेवाला  
तीर्थराजू - तीर्थराज (कुंभ मेला) 
राम भक्ति - भगवान राम की भक्ति  
जहँ - जहां  
सुरसरि - सुरम्य  
धारा - प्रवाह  
सरसइ - सरस  
ब्रह्म - ब्रह्मा  
बिचार - विचार  
प्रचारा - प्रचार
इस दोहे में कहा गया है कि जो संतों का समाज शुभ और आनंदमय होता है और जो जगत में चलने वाले तीर्थराज के समान होते हैं, वहां भगवान राम की भक्ति की धारा होती है और वे संत और साधु जनों में ब्रह्मा के विचार और प्रचार होता है।

श्लोक

बिधि निषेधमय कलिमल हरनी। करम कथा रबिनंदनि बरनी।। 
हरि हर कथा बिराजति बेनी। सुनत सकल मुद मंगल देनी।। २३ - त्रयोविंशति: , 

भावार्थ

यह दोहा भगवान की कथा की महिमा को बताता है। 
बिधि - धर्म  
निषेधमय - निषेधों से भरा  
कलिमल - कलियुग की मलिनता  
हरनी - हटाने वाले  
करम - कर्म  
कथा - कथाएं  
रबिनंदनि - भगवान का नाम स्तुति करना  
बरनी - बताने
हरि - भगवान  
हर - नाम स्तुति  
कथा - कथाएं  
बिराजति - विराजते हैं  
बेनी - सुंदरता  
सुनत - सुनते हैं  
सकल - सभी  
मुद - आनंद  
मंगल - शुभ  
देनी - देती हैं
इस दोहे में कहा गया है कि धर्म के निषेधों को हटाने वाली भगवान की कथाएं कर्मों की चर्चा से भरी हुई हैं। भगवान की कथाएं सुंदरता से भरी होती हैं और उन्हें सुनने से सभी को आनंद और शुभ होता है।

श्लोक

बटु बिस्वास अचल निज घरमा। तीरथराज समाज सुकरमा ।। 
सबहि सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा ॥ २४ - चतुर्विंशतिः , 

भावार्थ

यह दोहा साधना और संतों की महिमा को व्यक्त करता है। 
बटु - जीव  
बिस्वास - विश्वास  
अचल - स्थिर  
निज - अपने  
घरमा - घर में  
तीर्थराज - साधु-संत  
समाज - समाज  
सुकरमा - सुखमय
सबहि - सभी  
सुलभ - सुलभ  
सब दिन - हर दिन  
सब देसा - हर जगह  
सेवत - सेवा करते  
सादर - आदरपूर्वक  
समन - समर्पण  
कलेसा - कार्य
इस दोहे में कहा गया है कि जीव को अपने घर में स्थिर विश्वास होना चाहिए और साधु-संतों का समाज सुखमय होता है। सभी जगह सुलभता से, हर दिन और हर जगह सेवा करते हुए, आदरपूर्वक समर्पण की सेवा करनी चाहिए।

श्लोक

अकथ अलौकिक तीरथराऊ। देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ ।। २५ - पंचविंशतिः

भावार्थ

यह दोहा साधु-संतों की महिमा को व्यक्त करता है। 
अकथ - अकथनीय  
अलौकिक - अलौकिक  
तीर्थराऊ - तीर्थराज (साधु-संत)  
देइ - देते हैं  
सद्य - तुरंत  
फल - फल  
प्रगट - प्रकट  
प्रभाऊ - प्रभु
इस दोहे में कहा गया है कि साधु-संतों का संदेश अकथनीय और अलौकिक होता है, और वे तुरंत फल प्रकट करने वाले प्रभु होते हैं।

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