भगवती का आठवां स्वरूप महागौरी गौर वर्ण का है।
भगवती का नौंवा रूप सिद्धिदात्री है। यह ज्ञान अथवा बोध का प्रतीक है, जिसे जन्म जन्मांतर की साधना से पाया जा सकता है। इसे प्राप्त कर साधक परम सिद्ध हो जाता है। इसलिए इसे सिद्धिदात्री कहा है।नवदुर्गा आयुर्वेद ,एक मत यह कहता है कि ब्रह्माजी के दुर्गा कवच में वर्णित नवदुर्गा नौ विशिष्ट औषधियों में हैं।
(1) प्रथम शैलपुत्री (हरड़) : - कई प्रकार के रोगों में काम आने वाली औषधि हरड़ हिमावती है जो देवी शैलपुत्री का ही एक रूप है। यह आयुर्वेद की प्रधान औषधि है। यह पथया, हरीतिका, अमृता, हेमवती, कायस्थ, चेतकी और श्रेयसी सात प्रकार की होती है।
(2) ब्रह्मचारिणी (ब्राह्मी) : - ब्राह्मी आयु व याददाश्त बढ़ाकर, रक्तविकारों को दूर कर स्वर को मधुर बनाती है। इसलिए इसे सरस्वती भी कहा जाता है।
(3) चंद्रघंटा (चंदुसूर) : - यह एक ऎसा पौधा है जो धनिए के समान है। यह औषधि मोटापा दूर करने में लाभप्रद है इसलिए इसे चर्महंती भी कहते हैं।
(4) कूष्मांडा (पेठा) : - इस औषधि से पेठा मिठाई बनती है। इसलिए इस रूप को पेठा कहते हैं। इसे कुम्हड़ा भी कहते हैं जो रक्त विकार दूर कर पेट को साफ करने में सहायक है। मानसिक रोगों में यह अमृत समान है।
(5) स्कंदमाता (अलसी) : - देवी स्कंदमाता औषधि के रूप में अलसी में विद्यमान हैं। यह वात, पित्त व कफ रोगों की नाशक औषधि है।
(6) कात्यायनी (मोइया) : - देवी कात्यायनी को आयुर्वेद में कई नामों से जाना जाता है जैसे अम्बा, अम्बालिका व अम्बिका। इसके अलावा इन्हें मोइया भी कहते हैं। यह औषधि कफ, पित्त व गले के रोगों का नाश करती है।
(7) कालरात्रि (नागदौन) :- यह देवी नागदौन औषधि के रूप में जानी जाती हैं। यह सभी प्रकार के रोगों में लाभकारी और मन एवं मस्तिष्क के विकारों को दूर करने वाली औषधि है।
(8) महागौरी (तुलसी) : - तुलसी सात प्रकार की होती है सफेद तुलसी, काली तुलसी, मरूता, दवना, कुढेरक, अर्जक और षटपत्र। ये रक्त को साफ कर ह्वदय रोगों का नाश करती है।
(9) सिद्धिदात्री (शतावरी) : - दुर्गा का नौवां रूप सिद्धिदात्री है जिसे नारायणी शतावरी कहते हैं। यह बल, बुद्धि एवं विवेक के लिए उपयोगी है।
माता पार्वती
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हे पर्वतराज नन्दिनी तेरी जय
जय जय,
जय जय जयसंबंध- देवी
निवासस्थान - जब अविवाहित हिमालय, अन्यथा कैलाश
मंत्र - ॥ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डयै विच्चै॥
अस्त्र - त्रिशूल, पास, अंकुशा, शंख, चक्रम, क्रॉसबो, कमल
जीवनसाथी - शिव
संतान - कार्तिकेय, गणेश, अशोक सुंदरी
सवारी - वृषभ,सिंह,शेर
शिव पार्वती
ललिता सहस्रनाम में पार्वती
(ललिता के रूप में) के 1,000 नामों की
सूची है। पार्वती के सबसे प्रसिद्ध दो में
से एक उमा और अपर्णा हैं। स्कन्द पुराण के अनुसार,देवी पार्वती के द्वारा दुर्गमसुर को मारने के बाद देवी
पार्वती का नाम दुर्गा पड़ा। उमा नाम का उपयोग सती (शिव की पहली पत्नी, जो पार्वती के रूप में पुनर्जन्म हुआ है) के लिए किया जाता
है,
रामायण में देवी पार्वती को उमा नाम से भी संबोधित किया गया
है,देवी पार्वती को अपर्णा के रूप में संदर्भित किया जाता है ('जो सबका भरण पोषण करती है')। देवी पार्वती अंबिका ('प्रिय मां'), शक्ति
('शक्ति'), माताजी
('पूज्य माता'), माहेश्वरी ('महान देवी'), दुर्गा
(अजेय),
भैरवी ('क्रूर'), भवानी ('उर्वरता') आदि नामों से जानी जाती हैं। पार्वती प्रेम और भक्ति की
देवी हैं,
या कामाक्षी; प्रजनन, बहुतायत
और भोजन / पोषण की देवी अन्नपूर्णा कहा गया है । देवी पार्वती एक क्रूर महाकाली भी
है जो तलवार उठाती है, गंभीर सिर
की माला पहनती है, और अपने
भक्तों की रक्षा करती है और दुनिया और प्राणियों की दुर्दशा करने वाली सभी
बुराईयों को नष्ट करती है। देवी पार्वती को स्वर्ण, गौरी, काली
या श्यामा के रूप में संबोधित किया जाता है, इनका एक शांत रूप गौरी है, तो दूसरा भयंकर रूप काली है।इतिहास में पार्वती
पर्वती शब्द वैदिक साहित्य
में प्रयोग नही किया जाता था। इसके बजाय, अंबिका, रुद्राणी
का प्रयोग किया गया है। उपनिषद काल (वेदांत काल) के दूसरे प्रमुख उपनिषद केनोपनिषद
में देवी पार्वती का जिक्र मिलता है,वहाँ उन्हें हेमवती उमा नाम से जाना जाता है तथा वहां पर उन्हें
ब्रह्मविद्या भी जानने को मिलता है और इन्हें दुनिया की माँ की तरह दिखाया गया है।
यहां देवी पार्वती को सर्वोच्च परब्रह्म की शक्ति, या आवश्यक शक्ति के रूप में प्रकट किया गया है। उनकी
प्राथमिक भूमिका एक मध्यस्थ के रूप में है, जो अग्नि, वायु
और वरुण को ब्रह्म ज्ञान देती है, जो
राक्षसों के एक समूह की हालिया हार के बारे में घमंड कर रहे थे। देवी का
सती-पार्वती नाम महाकाव्य काल (400 ईसा
पूर्व -400 ईस्वी) में प्रकट होता है,जहाँ वह शिव की पत्नी है। वेबर का सुझाव है कि जैसे शिव
विभिन्न वैदिक देवताओं रुद्र और अग्नि का संयोजन है, वैसे ही पुराण पाठ में पार्वती रुद्र की पत्नियों की एक
संयोजन है। दूसरे शब्दों में, पार्वती
की प्रतीकात्मकता और विशेषताएं समय के साथ उमा, हेमावती, अंबिका,गौरी को एक पहलू में और अधिक क्रूर, विनाशकारी काली, नीरति के रूप में विकसित हुईं।शारीरिक रूप और प्रतीक
देवी पार्वती को आमतौर पर
निष्पक्ष,
सुंदर और परोपकारी के रूप में दर्शाया जाता है। वह आमतौर पर
एक लाल पोशाक (अक्सर एक साड़ी) पहनती है ।और क्रोध अवस्था मे काली के रूप में भी
दर्शाया गया है। जब शिव के साथ चित्रित किया जाता है, तो वह आमतौर पर दो भुजाओं के साथ दिखाई देती है, लेकिन जब वह अकेली हो तो उसे चार हाथों में चित्रित किया जा
सकता है। इन हाथों में त्रिशूल, दर्पण, माला, फूल
(जैसे कमल) हो सकते हैं। प्राचीन मंदिरों में, पार्वती की मूर्ति अक्सर एक बछड़े या गाय के पास चित्रित
होती है - भोजन का एक स्रोत। उनकी मूर्ति के लिए कांस्य मुख्य धातु रहा है, जबकि पत्थर आम सामग्री रहा है।देवी पार्वती दुर्गा के रूप
कई हिंदू कहानियां पार्वती के वैकल्पिक पहलुओं को प्रस्तुत करती हैं, जैसे कि क्रूर, हिंसक पहलू। उनका रूप एक क्रोधित, रक्त-प्यासे, उलझे हुए बालों वाली देवी, खुले मुंह वाली और एक टेढ़ी जीभ के साथ किया गया है। इस देवी की पहचान आमतौर पर भयानक महाकाली (समय) के रूप में की जाती है। लिंग पुराण के अनुसार, पार्वती ने शिव के अनुरोध पर एक असुर (दानव) दारुक को नष्ट करने के लिए अपने नेत्र से काली को प्रकट किया। दानव को नष्ट करने के बाद भी, काली के प्रकोप को नियंत्रित नहीं किया जा सका। काली के क्रोध को कम करने के लिए, शिव उनके पैरों के नीचे जा कर सो गए,जब काली का पैर शिव के छाती पर पड़ा तो काली का जीभ शर्म से बाहर निकल आया, और काली शांत हो गई। स्कंद पुराण में, पार्वती एक योद्धा-देवी का रूप धारण करती हैं और दुर्ग नामक एक राक्षस को हरा देती हैं जो भैंस का रूप धारण करता है। इस पहलू में, उन्हें दुर्गा के नाम से जाना जाता है।
देवी पार्वती का उपनिषद में वर्णन
108 उपनिषदों में से दूसरे
सबसे प्रमुख उपनिषद "केनोपनिषद" के तृतिया और चतुर्थ खण्ड में देवी पार्वती
का वर्णन है,यहाँ पर इन्हें हैमवती
उमा नाम से पुकारा गया है। जहाँ पर वो ब्रह्मविद्या, परब्रह्म की शक्ति और सांसारिक माँ के रूप में दिखाई गई हैं
और इनको परब्रह्म और देवो के बीच मे मध्यास्था करते हुए दिखया गया है।️कथा
परब्रह्म ने देवताओं को अपने द्वारा विजय दिलवाई । परब्रह्म की उस विजय से देवताओं को अहंकार हो गया । वे समझने लगे कि यह हमारी ही विजय है । हमारी ही महिमा है । यह जानकर परब्रह्म देवताओं के सामने यक्ष के रूप में प्रकट हुए । और वे (देवता) परब्रह्म को ना जान सके कि ‘यह यक्ष कौन है’? तब उन्होंने (देवों ने) अग्नि से कहा कि, ‘हे जातवेद ! इसे जानो कि यह यक्ष कौन है’ । अग्नि ने कहा – ‘बहुत अच्छा’। अग्नि यक्ष के समीप गया । परब्रह्म ने अग्नि से पूछा – ‘तू कौन है’ ? अग्नि ने कहा – ‘मैं अग्नि हूँ, मैं ही जातवेदा हूँ’। ऐसे तुझ अग्नि में क्या सामर्थ्य है ?’ अग्नि ने कहा – ‘इस पृथ्वी में जो कुछ भी है उसे जलाकर भस्म कर सकता हूँ’। तब यक्ष ने एक तिनका रखकर कहा कि ‘इसे जला’ । अपनी सारी शक्ति लगाकर भी उस तिनके को जलाने में समर्थ न होकर वह लौट गया । वह उस यक्ष को जानने में समर्थ न हो सका ।
पूर्वजन्म
पार्वती पूर्वजन्म में दक्ष प्रजापति की पुत्री सती थीं तथा उस जन्म में भी वे भगवान शंकर की ही पत्नी थीं। सती ने अपने पिता दक्ष प्रजापति के यज्ञ में, अपने पति का अपमान न सह पाने के कारण, स्वयं को योगाग्नि में भस्म कर दिया था। तथा हिमनरेश हिमावन के घर पार्वती बन कर अवतरित हुईं |तपस्या
पार्वती को भगवान शिव को पति के रूप में प्राप्त करने के लिये वन में तपस्या करने चली गईं। अनेक वर्षों तक कठोर उपवास करके घोर तपस्या की तत्पश्चात वैरागी भगवान शिव ने उनसे विवाह करना स्वीकार किया।पार्वती की परीक्षा
भगवान शंकर ने पार्वती के
अपने प्रति अनुराग की परीक्षा लेने के लिये सप्तऋषियों को पार्वती के पास भेजा।
उन्होंने पार्वती के पास जाकर उसे यह समझाने के अनेक प्रयत्न किये कि शिव जी औघड़, अमंगल वेषधारी और जटाधारी हैं और वे तुम्हारे लिये उपयुक्त
वर नहीं हैं। उनके साथ विवाह करके तुम्हें सुख की प्राप्ति नहीं होगी। तुम उनका
ध्यान छोड़ दो। किन्तु पार्वती अपने विचारों में दृढ़ रहीं। उनकी दृढ़ता को देखकर सप्तऋषि
अत्यन्त प्रसन्न हुये और उन्हें सफल मनोरथ होने का आशीर्वाद देकर शिव जी के पास
वापस आ गये। सप्तऋषियों से पार्वती के अपने प्रति दृढ़ प्रेम का वृत्तान्त सुन कर
भगवान शंकर अत्यन्त प्रसन्न हुये।सप्तऋषियों ने शिव जी और पार्वती के विवाह का लग्न मुहूर्त आदि निश्चित कर दिया।
शिव जी के साथ विवाह
निश्चित दिन शिव जी बारात ले
कर हिमालय के घर आये। वे बैल पर सवार थे। उनके एक हाथ में त्रिशूल और एक हाथ में
डमरू था। उनकी बारात में समस्त देवताओं के साथ उनके गण भूत, प्रेत, पिशाच
आदि भी थे। सारे बाराती नाच गा रहे थे। सारे संसार को प्रसन्न करने वाली भगवान शिव
की बारात अत्यंत मन मोहक थी, ब्रह्मा
जी की उपस्थिति में विवाह समारोह शुरू हो गया। इस तरह शुभ घड़ी और शुभ मुहूर्त में
शिव जी और पार्वती का विवाह हो गया और पार्वती को साथ ले कर शिव जी अपने धाम कैलाश
पर्वत पर सुख पूर्वक रहने लगे।देवी पार्वती को समर्पित त्यौहार उत्सव
️हरतालिका
तीज
हरतालिका तीज को हरतालिका
व्रत या तीजा भी कहते हैं। यह व्रत भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को हस्त
नक्षत्र के दिन होता है। इस दिन कुमारी और सौभाग्यवती स्त्रियाँ गौरी-शंकर की पूजा
करती हैं। विशेषकर उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल और बिहार में मनाया जाने वाला यह
त्योहार करवाचौथ से भी कठिन माना जाता है क्योंकि जहां करवाचौथ में चांद देखने के
बाद व्रत तोड़ दिया जाता है वहीं इस व्रत में पूरे दिन निर्जल व्रत किया जाता है
और अगले दिन पूजन के पश्चात ही व्रत तोड़ा जाता है। सौभाग्यवती स्त्रियां अपने
सुहाग को अखण्ड बनाए रखने और अविवाहित युवतियां मन मुताबिक वर पाने के लिए
हरितालिका तीज का व्रत करती हैं। इस दिन विशेष रूप से गौरी−शंकर का ही पूजन किया
जाता है। इस दिन व्रत करने वाली स्त्रियां सूर्योदय से पूर्व ही उठ जाती हैं और
नहा धोकर पूरा श्रृंगार करती हैं। पूजन के लिए केले के पत्तों से मंडप बनाकर
गौरी−शंकर की प्रतिमा स्थापित की जाती है। इसके साथ पार्वती जी को सुहाग का सारा
सामान चढ़ाया जाता है। रात में भजन, कीर्तन करते हुए जागरण कर तीन बार आरती की जाती है और शिव
पार्वती विवाह की कथा सुनी जाती है।नवरात्रि
पार्वती की श्रद्धा में एक और लोकप्रिय त्योहार नवरात्रि है, जिसमें नौ दिनों तक उनकी सभी रूपो की पूजा की जाती है। पूर्वी भारत में विशेष रूप से बंगाल, ओडिशा, झारखंड और असम के साथ-साथ भारत के कई अन्य हिस्सों जैसे कि गुजरात में उनके नौ रूप यानी शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री की पूजा की जाती है। और भी कई स्थानीय त्यौहार है जो देवी पार्वती को समर्पित है।️देवी
पार्वती भारतीय उपमहाद्वीप के बाहर
माँ श्री ब्रह्मचारिणी (Maa Bramhcharini)
द्वितीय दुर्गा :-
देवी प्रसीदमयी ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा॥“
जो दोनो कर-कमलो मे अक्षमाला एवं कमंडल धारण करती है। वे सर्वश्रेष्ठ माँ भगवती ब्रह्मचारिणी मुझसे पर अति प्रसन्न हों। माँ ब्रह्मचारिणी सदैव अपने भक्तो पर कृपादृष्टि रखती है एवं सम्पूर्ण कष्ट दूर करके अभीष्ट कामनाओ की पूर्ति करती है।
नवरात्री दुर्गा पूजा दूसरे तिथि – माता ब्रह्मचारिणी की पूजा :
मां ब्रह्मचारिणी. यह देवी शांत और निमग्न होकर तप में लीन हैं. मुख पर कठोर तपस्या के कारण अद्भुत तेज और कांति का ऐसा अनूठा संगम है जो तीनों लोको को उजागर कर रहा है.
देवी ब्रह्मचारिणी के दाहिने हाथ में अक्ष माला है और बायें हाथ में कमण्डल होता है. देवी ब्रह्मचारिणी साक्षात ब्रह्म का स्वरूप हैं अर्थात तपस्या का मूर्तिमान रूप हैं. इस देवी के कई अन्य नाम हैं जैसे
तपश्चारिणी, अपर्णा और उमा इस दिन साधक का मन ‘स्वाधिष्ठान ’चक्र में स्थित होता है. इस चक्र में अवस्थित साधक मां ब्रह्मचारिणी जी की कृपा और भक्ति को प्राप्त करता है.
देवी ब्रह्मचारिणी जी की पूजा का विधान इस प्रकार है, सर्वप्रथम आपने जिन देवी-देवताओ एवं गणों व योगिनियों को कलश में आमत्रित किया है उनकी फूल, अक्षत, रोली, चंदन, से पूजा करें उन्हें दूध, दही, शर्करा, घृत, व मधु से स्नान करायें व देवी को जो कुछ भी प्रसाद अर्पित कर रहे हैं उसमें से एक अंश इन्हें भी अर्पण करें. प्रसाद के पश्चात आचमन और फिर पान, सुपारीभेंट कर इनकी प्रदक्षिणा करें. कलश देवता की पूजा के पश्चात इसी प्रकार नवग्रह, दशदिक्पाल, नगर देवता, ग्राम देवता, की पूजा करें. इनकी पूजा के पश्चात मॉ ब्रह्मचारिणी की पूजा करें.देवी की पूजा करते समय सबसे पहले हाथों में एक फूल लेकर प्रार्थना करें “दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू. देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा”..इसके पश्चात् देवी को पंचामृत स्नान करायें और फिर भांति भांति से फूल, अक्षत, कुमकुम, सिन्दुर, अर्पित करें देवी को अरूहूल का फूल (लाल रंग का एकविशेष फूल) व कमल काफी पसंद है उनकी माला पहनायें. प्रसाद और आचमन के
पश्चात् पान सुपारी भेंट कर प्रदक्षिणा करें और घी व कपूर मिलाकर देवी की आरती करें. अंत में क्षमा प्रार्थना करें “आवाहनं न जानामि न जानामि वसर्जनं, पूजां चैव न जानामि क्षमस्व परमेश्वरी..
या देवी सर्वभूतेषु माँ ब्रह्मचारिणी रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
दधाना कर पद्माभ्याम अक्षमाला कमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मई ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा।।
जपमालाकमण्डलु धराब्रह्मचारिणी शुभाम्॥
गौरवर्णा स्वाधिष्ठानस्थिता द्वितीय दुर्गा त्रिनेत्राम।
धवल परिधाना ब्रह्मरूपा पुष्पालंकार भूषिताम्॥
परम वंदना पल्लवराधरां कांत कपोला पीन।
पयोधराम् कमनीया लावणयं स्मेरमुखी निम्ननाभि नितम्बनीम्॥
ब्रह्मरूपधरा ब्रह्मचारिणी प्रणमाम्यहम्॥
शंकरप्रिया त्वंहि भुक्ति-मुक्ति दायिनी।
शान्तिदा ज्ञानदा ब्रह्मचारिणीप्रणमाम्यहम्॥
अर्पण सदापातु नेत्रो, अर्धरी च कपोलो॥
पंचदशी कण्ठे पातुमध्यदेशे पातुमहेश्वरी॥
षोडशी सदापातु नाभो गृहो च पादयो।
अंग प्रत्यंग सतत पातु ब्रह्मचारिणी।
नवरात्री में दुर्गा सप्तशती पाठ किया जाता हैं
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