शिव के डमरू (Damru) की पौराणिक कथा / Legend of Shiva's Damru

शिव के डमरू (Damru) की पौराणिक कथा  

शिव के डमरू के उद्भव के संबंध में कई कथाएं प्राचीन हिंदू पौराणिक ग्रंथों और धार्मिक लोककथाओं में मिलती हैं। इन कथाओं के अनुसार, डमरू का उद्भव या प्राप्ति निम्नलिखित तरीकों से हुआ है:
1. मानस पुत्रों के द्वारा: एक कथा के अनुसार, शिव के बालक रूप में उनके मन के उद्भव से डमरू प्राप्त हुआ था। शिव के स्वयंभू मनस पुत्रों ने डमरू को शिव को उपहार के रूप में प्रस्तुत किया।
2. देवी पार्वती के वरदान के रूप में: एक कथा के अनुसार, माता पार्वती ने शिव से डमरू की इच्छा व्यक्त की थी और उन्हें वरदान के रूप में प्राप्त किया। शिव ने उनकी प्रार्थना स्वीकार की और डमरू को उन्हें प्रदान किया।
3. शिव और पार्वती के विवाह के बाद: एक और कथा के अनुसार, शिव और पार्वती के विवाह के बाद, ब्रह्मा और विष्णु ने उन्हें उपहार के रूप में डमरू प्रदान किया।
ये कथाएं पौराणिक हैं और धार्मिक मान्यताओं पर आधारित हैं। इनमें से कोई एक कथा सटीकता के साथ डमरू के उद्भव को समझाने की कोशिश कर सकती है, या फिर इसे केवल पौराणिक कल्पना और धार्मिक परंपराओं के हिसाब से स्वीकार किया जा सकता है।

डमरू (Damru) की पौराणिक कथा

शिव के डमरू (Damru) की पौराणिक कथाओं और तंत्रिक ग्रंथों के अनुसार, डमरू को भगवान शिव के द्वारा स्वयं सृष्ट किया गया माना जाता है। डमरू एक छोटा सा मुड़ख़ोरा या ड्रम जैसा वाद्ययंत्र होता है, जिसमें दो टांगे होती हैं और जो शिव के हाथ में होता है।
एक प्रसिद्ध पौराणिक कथा के अनुसार, डमरू का उद्भव मण्डर पर्वत पर हुआ था। भगवान शिव ने अपने तापस्या काल में जब विश्व सृजनहार के रूप में विराजमान थे, तब उन्होंने दमरू का उद्भव और वादन किया। डमरू के ध्वनि के माध्यम से उन्होंने अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया और सृष्टि की गति को प्रकट किया।दूसरे पौराणिक कथानुसार, डमरू को एक राक्षस नामित दारुक ने बनाया था। शिव और पार्वती उस समय अपने आश्रम में बिताने आए थे, जहां उन्हें दारुक ने उनकी विनती पर डमरू वादन करके मनोरंजन किया। इसके पश्चात्, शिव ने दारुक को आशीर्वाद दिया और उन्हें अमरता की वरदान दिया, जिसके बाद दारुक शिव के विशेष आदेश के अनुसार जगह जगह घूमकर डमरू वादन करने लगे।कई कथाओं में यह भी बताया जाता है कि डमरू को शिवाजी के प्रिय शिष्य मातंग ने दिया था। मातंग एक साधक थे और वे शिवाजी के पास अपने गुरुदक्षिणा के रूप में डमरू लेकर आए थे।ये कथाएं पौराणिक हैं और धार्मिक मान्यताओं पर आधारित हैं। डमरू के उद्भव के विषय में कई अलग-अलग कथाएं हो सकती हैं, और यह भी संभव है कि यह केवल पौराणिक एवं तंत्रिक कथाओं की कल्पना हो।

शिव के डमरू के बारे में वैज्ञानिक तथ्यों की कमी होने के कारण, उसे संबंधित प्राचीन पौराणिक और आध्यात्मिक मान्यताओं के रूप में माना जाता है। इसके अलावा, शिव के डमरू से जुड़े निम्नलिखित तथ्य हमारे पौराणिक ग्रंथों और धार्मिक प्रथाओं के आधार पर ज्ञात हैं:
1. सृष्टि की गति: डमरू को विभिन्न तालों के साथ वादन करने से उसकी ध्वनि सृष्टि की गति और समय के प्रवाह का प्रतीक है। इसे शिव के डमरू के ध्वनि में महत्वपूर्ण भूमिका दी जाती है, जो उनकी विश्व की सृष्टि, संचालन और संहार की गति को प्रकट करती है।
2. आध्यात्मिक अवसर के प्रतीक: डमरू के वादन से शिव की ध्वनि शक्ति को प्रकट की जाती है, जो आध्यात्मिक जगत् में विशेष अवसरों के प्रतीक के रूप में मान्यता प्राप्त करती है। यह सत्याग्रह और आध्यात्मिक उन्नति के समय में उठाया जाता है।
3. धर्म के प्रचार का साधन: शिव के डमरू के ध्वनि से शिव और पार्वती की कथाएं और धार्मिक सन्देश सुनाए जाते हैं। यह धार्मिक गतिविधियों, सत्संगों, और पूजाओं के समय में उपयोग किया जाता है।
4. शक्ति के प्रतीक: डमरू शक्ति और संजीवनी का प्रतीक है। शिव के डमरू के वादन से उनकी शक्ति प्रकट होती है और उसे आध्यात्मिक और शारीरिक समस्याओं का निवारण करने की क्षमता मानी जाती है।
ये तथ्य पौराणिक और धार्मिक विश्व की मान्यताओं के आधार पर उद्धृत किए गए हैं और वैज्ञानिक प्रमाणित तथ्य की अभाव में आधारित हैं। यह ध्यान देने योग्य है कि यह विशेषताएं और मान्यताएं शिव के डमरू को अधिकांश धार्मिक संस्कृतियों में समान रूप से मान्य हैं।

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